नरनारायण n. एक भगवत्स्वरुप देवताद्वय । स्वायंभुव मन्वन्तर के सत्ययुग में भगवान् वासुदेव के चार अवतार धर्म के पुत्र के रुप में प्रगट हुएँ
[म.शां.३३४.९-१२] उनके नाम क्रमशः नर, नारायण, हरि एवं कृष्न थे । उनमें से नर एवं नारायण यह बंधुद्वय पहले देवतारुप में, पश्चात्, ऋषिरुप में, एवं महाभारतकाल में अर्जुन एवं कृष्ण के रुप में, अपने पराक्रम एवं क्षात्रतेज के कारण अधिकतम सुविख्यात है (नर एवं नारायण देखिये) । नरनारायण की उपासना काफी प्राचीन है । महाभारत काल में अर्जुन एवं कृष्ण की, नरनारायणों का अवतार समझने के कारण, नरनारायणों की उपासना को नया रुप प्राप्त हो गया । पाणिनि में नरनारायणों के भक्तिसंप्रदाय का निर्देश किया है । देवी भागवत के मत में, नरनारायण चाक्षुष मन्वन्तर में उत्पन्न हुएँ थे
[दे.भा.४.१६] । ये धर्म को दक्षकन्या मूर्ति से उत्पन्न हुये थे
[भा.२.७] । ये धर्म को कला नामक स्त्री से उत्पन्न हुए थे, ऐसा भी उल्लेख प्राप्त है । पूर्ण शांति प्राप्ति के लिये, इन दोनों ने दुर्घट तप किया था
[भा.१.३] । नरनारायण के दुर्घट तप से भयभीत हो कर, इन्द्र ने इनके तपोभंग के लिये कुछ अप्सराएँ भेजी । यह देख कर नारायण शाप देने के लिये सिद्ध हो गया, परंतु नर ने उसका सांत्वन किया
[दे.भा.४.१६] ;
[भा.२.७] ;
[पद्म. सृ.२२] । पश्चात् नारायण ने अपनी जंघा से उर्वशी नामक अप्सरा निर्माण कर, वह इन्द्र को प्रदान की
[भा.११.४.७] । इन्द्र द्वारा भेजी गई अप्सराओं को अगले अवतार में विवाह करने का अश्वासन दे कर इसने विदा किया
[दे. भा.४.१६] । बाद में इन्होंने कृष्ण तथा अर्जुनरुप से अवतार लिया । कृष्णार्जुनों को दर्शन दे कर इन्होंने उपदेश भी दिया
[दे.भा.४.१७] ;
[भा.१०.८९.६०] । यह बदरिकाश्रम में रहते थे
[भा.११.४.७] । इन दोनों ने नारद से किये अनेक संवादों का निर्देश प्राप्त हैं
[म.शां.३२१-३२४] । एक बार हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रह्राद ससैन्य तीर्थयात्रा करते करते, नरनारायण के आश्रम के पास आया । उस स्थान पर उसने बाण, तरकस आदि युद्धोपयोगी चीजें देखीं । इससे उसे लगा कि, इस आश्रम के मुनि शांत ने हो कर दांभिक होंगे । उसने इन्हें बैसा कहा भी । इससे गर्भागर्भ बातें हो कर, युद्ध करने तक नौवत आ गयी । पश्चात् नरनारायण एवं प्रह्राद का काफी दिनों तक तुमुल युद्ध हुआ । उसमें कोई भी नहीं हारा । इस युद्ध के कारण देवलोक एवं पृथ्वी लोक के सारे लोगों को तकलीफ होने लगी । फिर विष्णु ने मध्यस्थ का काम किया तथा यह युद्ध रोक लिया
[दे.भा.४.४.९] ।