देवापि (आर्ष्टिषेण) n. (सो. कुरु.) कुरुवंश का एक राजा एवं सूक्तद्रष्टा
[ऋ.१०.९८] । इसके सूक्त में शंतनु राजा का उल्लेख भी प्राप्त है । शंतनु तथा यह दोनों कुरुवंश का राजा प्रतीप एवं सुनंदा के पुत्र थे । उनमें से यह ज्येष्ठ तथा शंतनु कनिष्ठ बंधु था । फिर भी शंतनु गद्दी पर बैठा । इसी कारण राज्य में १२ वर्षो तक अवर्षण हुआ । ब्राह्मणों ने उससे कहा, ‘तुम छोटे भाई हो कर गद्दी पर बैठे हो, इस कारण भगवान् वृष्टि नहीं करते है’। शंतनु ने देवापि को राजसिंहासन पर बैठने के लिये बुलवाया । परंतु देवापि ने उसे कहा, ‘तुम्हारा पुरोहित बन कर मैं यज्ञ करता हूँ, तब वर्षा होगी ।’ तब इसने ऋग्वेद में इसके नाम से प्रसिद्ध सूक्त का उद्घोष किया
[नि.२.११] । त्वचारोग होने के कारण, इसने राज्य अस्वीकार कर दिया तथा यह तपस्या करने अरण्य गया । सौ वर्षे का अवर्षण होने के कारण, शंतनु की प्रार्थना से इसने यज्ञ किया
[बृहद्दे. ७.१४-८.७] । इससे प्रतीत होता है, क्षत्रिय हो कर भी, इसने ब्राह्मणवर्ण स्वीकार कर पौरोहित्य किया । पृथूदक नामक तीर्थ पर तपस्या कर के, इसने यह ब्राह्मणत्व प्राप्त किया था
[म.श.२३९.१०] । ‘बृहस्पति की स्तुति कर, इसने वर्षा करवाई । अपने सूक्त में इसने स्वयं को ‘औलान’ कहलाया है
[ऋ. १०. ९८.११] । पुराण में कुछ भेद से यही जानकारी उपलब्ध है । महाभारत में इसे प्रतीप एवं शैब्या-स्त्री सुनंदी का पुत्र बताया गया है
[म.आ.९०.४६] । भागवत, मत्स्य, वायु एवं विष्णुमत में यह प्रतीपपुत्र होने के बारे में मतभेद नहीं है । इसे शंतनु तथा वाह्रिक नामक दो भाई थे । बचपन में ही इसने विरक्ति स्वीकार की
[म.आ.८९.५२, ९०.४६] ;
[ह.वं.१.३२.१०६] । धर्मज्ञान की इच्छा से विरक्त हो कर, यह वन में गया । बाद में यह देवों का उपाध्याय बना । इसे च्यवन तथा इष्टक नामक दो पुत्र थे
[वायु. ९९.२३२] ;
[ब्रह्म.१३. ११७] । कुष्ठरोग से पीडित होने के कारण, लोगों ने इसे राजा बनाना अमान्य किया था
[मत्स्य.५०.३९] । भागवत में उपरोक्त सारी कथा दे कर, उसमें और कुछ जानकारी भी दी गयी है । शंतनु ने देवापि को राज्य का स्वीकार करने की प्रार्थना की । शंतनु के प्रधानों ने कुछ बुद्धिमान् ब्राह्मणों को भेज कर इसकी मति पाखंड मतों की ओर प्रवृत्त की । अंत में शंतनु के पास आ कर यह वेदमार्ग की निंदा करने लगा । इससे यह पतित सिद्ध हो कर, राज्य के लिये अयोग्य बना, तथा शंतनु का दोष नष्ट हो गया
[विष्णु.४.२०.७] । बाद में यह कलापिग्राम में रहने लगा । कलियुग में सोमवंश नष्ट होने के बाद, कृतयुगारंभ में इसने पुनः एक बार, सोमवंश की स्थापना की
[भा.९.२२] । कलियुग में वर्णाश्रमधर्म नष्ट होने के बाद, नये कृतयुग के आरंभ में, वर्णाश्रमधर्म की स्थापना इसीके हाथों से होनेवाली है
[भा.१२.२] ;
[विष्णु. ४. २०.७,९] ; सुवर्चस् देखिये ।
देवापि (आर्ष्टिषेण) II. n. चेदि देश का एक क्षत्रिय । कर्ण ने इसका वध किया
[म.क.४०.५०] ।
देवापि (आर्ष्टिषेण) III. n. आर्ष्टिषेण राजा के उपमन्यु नामक पुरोहित का पुत्र (मिथु देखिये) ।