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द्विषष्टितमदशकम्

दशमस्कन्धपरिच्छेदः - द्विषष्टितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


कदाचिद्गोपालान् विहितमखसम्भारविभवान्

निरीक्ष्य त्व शौरे मघवमदमुद्ध्वंसितुमनाः ।

विजानन्नप्येतान् विनयमृदु नन्दादिपशुपा -

नपृच्छः को वायं जनक भवतामुद्यम इति ॥१॥

बभाषे नन्दस्त्वां सुत ननु विधेयो मघवतो

मखो वर्षे वर्षे सुखयति स वर्षेण पृथिवीम् ।

नृणां वर्षायत्तं निखिलमुपजीव्यं महितले

विशेषादस्माकं तृणसलिलजीव्या हि पशवः ॥२॥

इति श्रुत्वा वाचं पितुरयि भवानाह सरसं

धिगेतन्नो सत्यं मघवजनिता वृष्टिरिति यत् ।

अदृष्टं जीवानां सृजति खलु वृष्टिं समुचितां

महारण्ये वृक्षाः किमिव बलिमिन्द्राय ददते ॥३॥

इदं तावत् सत्यं यदिह पशवो नः कुलधनं

तदाजीव्यायासौ बलिरचलभर्त्रे समुचितः ।

सुरेभ्योऽप्युत्कृष्टा ननु धरणिदेवाः क्षितितले

ततस्तेऽप्याराध्या इति जगदिथ त्वं निजजनान् ॥४॥

भवद्वाचं श्रुत्वा बहुमतियुतास्तेऽपि पशुपा

द्विजेन्द्रानर्चन्तो बलिमददुरुच्चैः क्षितिभृते ।

व्यधुः प्रादक्षिण्यं सुभृशमनमन्नादरयुता -

स्त्वमादः शैलात्मा बलिमखिलमाभीरपुरतः ॥५॥

अवोचश्र्चैवं तान् किमिह वितथं मे निगदितं

गिरीन्द्रो नन्वेश स्वबलिमुपभुङ्क्ते स्ववपुषा ।

अयं गोत्रो गोत्रद्विषि च कुपिते रक्षितुमलं

समस्तानित्युक्त्वा जहृषुरखिला गोकुलजुषः ॥६॥

परिप्रीता याताः खलु भवदुपेता व्रजजुषो

व्रजं यावत्तावन्निजमखविभङ्गं निशमयन् ।

भवन्तं जानन्नप्यधिकरजसाऽऽक्रान्तहृदयो

न सेहे देवेन्द्रस्त्वदुपचितात्मोन्न्तिरपि ॥७॥

मनुष्यत्वं यातो मधुभिदपि देवेष्वविनयं

विधत्ते चेन्नष्टस्त्रिदशसदसां कोऽपि महिमा ।

ततश्र्च ध्वंसिष्ये पशुपहतकस्य श्रियमिति

प्रवृत्तस्त्वां जेतुं स किल मधवा दुर्मदनिधिः ॥८॥

त्वदावासं हन्तुं प्रलयजलदानम्बरभुवि

प्रहिण्वन् बिभ्राणः कुलिशमयमभ्रेभगमनः ।

प्रतस्थेऽन्यैरन्तर्दहनमरुदाद्यैर्विहसितो

भवन्माया नैव त्रिभुवनपते मोहयति कम् ॥९॥

सुरेन्द्रः कु्रद्धश्र्चेद् द्विजकरुणया शैलकृपया -

प्यनातङ्कोऽस्माकं नियत इति विश्र्वास्य पशुपान् ।

अहो किं नायातो गिरिभिदिति सञ्चिन्त्य निवसन्

मरुद्गेहाधीश प्रणुद मुरवैरिन् मम गदान् ॥१०॥

॥ इति इन्द्रयागविघातवर्णनं द्विषष्टितमदशकं समाप्तम् ॥

वसुदेवनन्दन ! एक समयकी बात है , गोपगण यज्ञानुष्ठानके लिये सामग्री जुटा रहे थे । यह देखकर आपने इन्द्रके अभिमानको चूर्ण करनेके लिये सब बात जानते हुए भी , इन नन्दादि गोपोंसे विनययुक्त मृदु वाणीमें पूछा —— ‘पिताजी ! आपलोग यह कैसी तैयारी कर रहे हैं ?’ ॥१॥

नन्दजीने आपको बताया ——‘बेटा ! इन्द्रकी प्रसन्नताके लिये प्रतिवर्ष यज्ञ किया जाता है । वे वर्षाद्वारा पानी बरसाकर पृथ्वीको सुख पहुँचाते हैं । पृथ्वीपर मनुष्योंकी सारी आजीविका वर्षाके ही अधीन है । विशेषतः हमलोगोंके पशु तो तृण और जलपर ही जीवन धारण करते हैं ’ ॥२॥

प्रभो ! पिताकी यह बात सुनकर आपने सरस वाणीमें कहा ——‘धिक्कार है इस मान्यताको । पिताजी ! यह सत्य नहीं है कि इन्द्र ही वर्षा करते हैं । जीवोंका अदृष्ट (प्रारब्ध ) ही समुचित वर्षा करता है । बड़े -बड़े जगलोंे वृक्ष इन्द्रको क्या बलि देते हैं — कैसी पूजा चढ़ाते हैं !’ ॥३॥

‘ यह तो सर्वथा सत्य है कि यहॉं पशु ही हमारे कुलके धन हैं । उनकी आजीविकाके लिये हमें उन सुप्रसिद्ध गिरिराज गोवर्धनको पूजा देनी उचित है । इस पृथ्वीपर तो देवताओंसे भी उत्कृष्ट भूदेव —— ब्राह्मण ही हैं । अतः उनकी भी आराधना करनी चाहिये । ’ यह बात आपने स्वजनोंसे कही ॥४॥

आपकी बात सुनकर बहुमत आपके पक्षमें हो गया और उस बहुमतसे युक्त गोपोंने ब्राह्मणोंकी पूजा करते हुए गिरिराज गोवर्धनको बड़ी भारी भेंट सामग्री अर्पित की —— अन्नकूटका भोग लगाया । गिरिराजकी परिक्रमा की और बड़े आदरके साथ अत्यन्त विनम्र होकर प्रणाम किया । इधर आपने पर्वतके रूपमें प्रकट होकर गोपोंके समक्ष सारी भेंट -सामग्री स्वयं भोग लगायी ॥५॥

फिर आपने उन गोपोंसे कहा —— ‘बन्धुओ ! क्या यहॉं मेरा कथन सत्य नहीं था । देखो , ये साक्षात् गिरिराज अपने शरीरसे प्रकट होकर अपनेको प्राप्त हुई बलि -सामग्रीका भोग आरोग रहे हैं । ये गोत्र (पर्वत ) हैं और इन्द्र गोत्रद्रोही हैं । ’ अतः उनके कुपित होनेपर ये हमारी रक्षा करनेमें समर्थ हैं । ’ सब गोपोंसे ऐस कहकर जब आप चुप हुए , तब सम्पूर्ण गोकुलसेवी गोप बड़े प्रसन्न हुए ॥६॥

अत्यन्त तृप्त और प्रसन्न होकर सभी वज्रवासी आपके साथ ज्यों ही व्रजको लौटे , त्यों ही अपने यज्ञके भङ्गहोनेका समाचार सुनकर इन्द्र कुपित हो उठे । यद्यपि वे आपको जानते थे और उनकी अपनी उन्नति भी आपपर ही निर्भर करती थी , तथापि अधिक रजोगुणसे आक्रान्तचित्त होनेके कारण देवराज इन्द्र इस घटनाको सहन न कर से ॥७॥

‘ मनुष्यभावको प्राप्त होकर मधुसूदन भी यदि देवताओंके प्रति अविनयपूर्ण बर्ताव करते हैं तो देवसभाकी कोई अपूर्व महिमा नष्ट हो जायगी । इसलिये मैं उस अधम गोपकी सारी सम्पत्तिका विध्वंस कर डालूँगा । ’ —— ऐसा सोचकर दुर्दम्य अभिमानका सागर इन्द्र आपको जीतनेकी चेष्टामें लग गया ॥८॥

अपने हाथमें वज्र ले ऐरावतपर यात्रा करनेवाले इस इन्द्रने आपके आवास -स्थान व्रजको नष्ट कर देनेके लिये आकाशमें प्रलयंकर मेघोंको भेजा और स्वयं भी प्रस्थित हुआ । उस समय अग्नि और वायु आदि अन्य देवताओंने मन -ही -मन उसकी हँसी उड़ायी । त्रिभुवननाथ श्रीकृष्ण ! आपकी माया किसको मोहमें नहीं डाल देती है ॥९॥

‘ देवराज इन्द्र कुपित हो गये हैं तो कोई चिन्ताकी बात नहीं है । ब्राह्मणोंकी दया और गिरिराजकी कृपासे हमारे भयका निवारण होना निश्र्चित है । ’ गोपोंको ऐसा विश्र्वास दिलाकर आप यह सोचते हुए वहॉं उपस्थित रहे कि —— ‘ आश्र्चर्य है ! पर्वतभेदी इन्द्र अबतक क्यों नहीं आया । ’ वायुपुराधीश्र्वर मुरारे ! मेरे रोगोंको दूर कीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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