दोहा
नव गयंदु रघुबीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ॥५१॥
चौपाला
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा । मुदित मातु पद नायउ माथा ॥
दीन्हि असीस लाइ उर लीन्हे । भूषन बसन निछावरि कीन्हे ॥
बार बार मुख चुंबति माता । नयन नेह जलु पुलकित गाता ॥
गोद राखि पुनि हृदयँ लगाए । स्त्रवत प्रेनरस पयद सुहाए ॥
प्रेमु प्रमोदु न कछु कहि जाई । रंक धनद पदबी जनु पाई ॥
सादर सुंदर बदनु निहारी । बोली मधुर बचन महतारी ॥
कहहु तात जननी बलिहारी । कबहिं लगन मुद मंगलकारी ॥
सुकृत सील सुख सीवँ सुहाई । जनम लाभ कइ अवधि अघाई ॥
दोहा
जेहि चाहत नर नारि सब अति आरत एहि भाँति।
जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति ॥५२॥
चौपाला
तात जाउँ बलि बेगि नहाहू । जो मन भाव मधुर कछु खाहू ॥
पितु समीप तब जाएहु भैआ । भइ बड़ि बार जाइ बलि मैआ ॥
मातु बचन सुनि अति अनुकूला । जनु सनेह सुरतरु के फूला ॥
सुख मकरंद भरे श्रियमूला । निरखि राम मनु भवरुँ न भूला ॥
धरम धुरीन धरम गति जानी । कहेउ मातु सन अति मृदु बानी ॥
पिताँ दीन्ह मोहि कानन राजू । जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू ॥
आयसु देहि मुदित मन माता । जेहिं मुद मंगल कानन जाता ॥
जनि सनेह बस डरपसि भोरें । आनँदु अंब अनुग्रह तोरें ॥
दोहा
बरष चारिदस बिपिन बसि करि पितु बचन प्रमान।
आइ पाय पुनि देखिहउँ मनु जनि करसि मलान ॥५३॥
चौपाला
बचन बिनीत मधुर रघुबर के । सर सम लगे मातु उर करके ॥
सहमि सूखि सुनि सीतलि बानी । जिमि जवास परें पावस पानी ॥
कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू । मनहुँ मृगी सुनि केहरि नादू ॥
नयन सजल तन थर थर काँपी । माजहि खाइ मीन जनु मापी ॥
धरि धीरजु सुत बदनु निहारी । गदगद बचन कहति महतारी ॥
तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे । देखि मुदित नित चरित तुम्हारे ॥
राजु देन कहुँ सुभ दिन साधा । कहेउ जान बन केहिं अपराधा ॥
तात सुनावहु मोहि निदानू । को दिनकर कुल भयउ कृसानू ॥
दोहा
निरखि राम रुख सचिवसुत कारनु कहेउ बुझाइ।
सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाइ ॥५४॥
चौपाला
राखि न सकइ न कहि सक जाहू । दुहूँ भाँति उर दारुन दाहू ॥
लिखत सुधाकर गा लिखि राहू । बिधि गति बाम सदा सब काहू ॥
धरम सनेह उभयँ मति घेरी । भइ गति साँप छुछुंदरि केरी ॥
राखउँ सुतहि करउँ अनुरोधू । धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू ॥
कहउँ जान बन तौ बड़ि हानी । संकट सोच बिबस भइ रानी ॥
बहुरि समुझि तिय धरमु सयानी । रामु भरतु दोउ सुत सम जानी ॥
सरल सुभाउ राम महतारी । बोली बचन धीर धरि भारी ॥
तात जाउँ बलि कीन्हेहु नीका । पितु आयसु सब धरमक टीका ॥
दोहा
राजु देन कहि दीन्ह बनु मोहि न सो दुख लेसु।
तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु ॥५५॥
चौपाला
जौं केवल पितु आयसु ताता । तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता ॥
जौं पितु मातु कहेउ बन जाना । तौं कानन सत अवध समाना ॥
पितु बनदेव मातु बनदेवी । खग मृग चरन सरोरुह सेवी ॥
अंतहुँ उचित नृपहि बनबासू । बय बिलोकि हियँ होइ हराँसू ॥
बड़भागी बनु अवध अभागी । जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी ॥
जौं सुत कहौ संग मोहि लेहू । तुम्हरे हृदयँ होइ संदेहू ॥
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के । प्रान प्रान के जीवन जी के ॥
ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊँ । मैं सुनि बचन बैठि पछिताऊँ ॥
दोहा
यह बिचारि नहिं करउँ हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ।
मानि मातु कर नात बलि सुरति बिसरि जनि जाइ ॥५६॥
चौपाला
देव पितर सब तुन्हहि गोसाई । राखहुँ पलक नयन की नाई ॥
अवधि अंबु प्रिय परिजन मीना । तुम्ह करुनाकर धरम धुरीना ॥
अस बिचारि सोइ करहु उपाई । सबहि जिअत जेहिं भेंटेहु आई ॥
जाहु सुखेन बनहि बलि जाऊँ । करि अनाथ जन परिजन गाऊँ ॥
सब कर आजु सुकृत फल बीता । भयउ कराल कालु बिपरीता ॥
बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी । परम अभागिनि आपुहि जानी ॥
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा । बरनि न जाहिं बिलाप कलापा ॥
राम उठाइ मातु उर लाई । कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई ॥
दोहा
समाचार तेहि समय सुनि सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ ॥५७॥
चौपाला
दीन्हि असीस सासु मृदु बानी । अति सुकुमारि देखि अकुलानी ॥
बैठि नमितमुख सोचति सीता । रूप रासि पति प्रेम पुनीता ॥
चलन चहत बन जीवननाथू । केहि सुकृती सन होइहि साथू ॥
की तनु प्रान कि केवल प्राना । बिधि करतबु कछु जाइ न जाना ॥
चारु चरन नख लेखति धरनी । नूपुर मुखर मधुर कबि बरनी ॥
मनहुँ प्रेम बस बिनती करहीं । हमहि सीय पद जनि परिहरहीं ॥
मंजु बिलोचन मोचति बारी । बोली देखि राम महतारी ॥
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी । सासु ससुर परिजनहि पिआरी ॥
दोहा
पिता जनक भूपाल मनि ससुर भानुकुल भानु।
पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु ॥५८॥
चौपाला
मैं पुनि पुत्रबधू प्रिय पाई । रूप रासि गुन सील सुहाई ॥
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई । राखेउँ प्रान जानिकिहिं लाई ॥
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली । सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली ॥
फूलत फलत भयउ बिधि बामा । जानि न जाइ काह परिनामा ॥
पलँग पीठ तजि गोद हिंड़ोरा । सियँ न दीन्ह पगु अवनि कठोरा ॥
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ । दीप बाति नहिं टारन कहऊँ ॥
सोइ सिय चलन चहति बन साथा । आयसु काह होइ रघुनाथा।
चंद किरन रस रसिक चकोरी । रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी ॥
दोहा
करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जंतु बन भूरि।
बिष बाटिकाँ कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि ॥५९॥
चौपाला
बन हित कोल किरात किसोरी । रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी ॥
पाइन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ । तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ ॥
कै तापस तिय कानन जोगू । जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू ॥
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती । चित्रलिखित कपि देखि डेराती ॥
सुरसर सुभग बनज बन चारी । डाबर जोगु कि हंसकुमारी ॥
अस बिचारि जस आयसु होई । मैं सिख देउँ जानकिहि सोई ॥
जौं सिय भवन रहै कह अंबा । मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा ॥
सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी । सील सनेह सुधाँ जनु सानी ॥
दोहा
कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्हि मातु परितोष।
लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष ॥६०॥
मासपारायण , चौदहवाँ विश्राम
चौपाला
मातु समीप कहत सकुचाहीं । बोले समउ समुझि मन माहीं ॥
राजकुमारि सिखावन सुनहू । आन भाँति जियँ जनि कछु गुनहू ॥
आपन मोर नीक जौं चहहू । बचनु हमार मानि गृह रहहू ॥
आयसु मोर सासु सेवकाई । सब बिधि भामिनि भवन भलाई ॥
एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा । सादर सासु ससुर पद पूजा ॥
जब जब मातु करिहि सुधि मोरी । होइहि प्रेम बिकल मति भोरी ॥
तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी । सुंदरि समुझाएहु मृदु बानी ॥
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही । सुमुखि मातु हित राखउँ तोही ॥