दोहा
भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि।
सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि ॥१९१॥
चौपाला
राम प्रताप नाथ बल तोरे । करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे ॥
जीवत पाउ न पाछें धरहीं । रुंड मुंडमय मेदिनि करहीं ॥
दीख निषादनाथ भल टोलू । कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोलू ॥
एतना कहत छींक भइ बाँए । कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए ॥
बूढ़ु एकु कह सगुन बिचारी । भरतहि मिलिअ न होइहि रारी ॥
रामहि भरतु मनावन जाहीं । सगुन कहइ अस बिग्रहु नाहीं ॥
सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा । सहसा करि पछिताहिं बिमूढ़ा ॥
भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझें । बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें ॥
दोहा
गहहु घाट भट समिटि सब लेउँ मरम मिलि जाइ।
बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउँ आइ ॥१९२॥
चौपाला
लखन सनेहु सुभायँ सुहाएँ । बैरु प्रीति नहिं दुरइँ दुराएँ ॥
अस कहि भेंट सँजोवन लागे । कंद मूल फल खग मृग मागे ॥
मीन पीन पाठीन पुराने । भरि भरि भार कहारन्ह आने ॥
मिलन साजु सजि मिलन सिधाए । मंगल मूल सगुन सुभ पाए ॥
देखि दूरि तें कहि निज नामू । कीन्ह मुनीसहि दंड प्रनामू ॥
जानि रामप्रिय दीन्हि असीसा । भरतहि कहेउ बुझाइ मुनीसा ॥
राम सखा सुनि संदनु त्यागा । चले उतरि उमगत अनुरागा ॥
गाउँ जाति गुहँ नाउँ सुनाई । कीन्ह जोहारु माथ महि लाई ॥
दोहा
करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ।
मनहुँ लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदयँ समाइ ॥१९३॥
चौपाला
भेंटत भरतु ताहि अति प्रीती । लोग सिहाहिं प्रेम कै रीती ॥
धन्य धन्य धुनि मंगल मूला । सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला ॥
लोक बेद सब भाँतिहिं नीचा । जासु छाँह छुइ लेइअ सींचा ॥
तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता । मिलत पुलक परिपूरित गाता ॥
राम राम कहि जे जमुहाहीं । तिन्हहि न पाप पुंज समुहाहीं ॥
यह तौ राम लाइ उर लीन्हा । कुल समेत जगु पावन कीन्हा ॥
करमनास जलु सुरसरि परई । तेहि को कहहु सीस नहिं धरई ॥
उलटा नामु जपत जगु जाना । बालमीकि भए ब्रह्म समाना ॥
दोहा
स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात।
रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात ॥१९४॥
चौपाला
नहिं अचिरजु जुग जुग चलि आई । केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई ॥
राम नाम महिमा सुर कहहीं । सुनि सुनि अवधलोग सुखु लहहीं ॥
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा । पूँछी कुसल सुमंगल खेमा ॥
देखि भरत कर सील सनेहू । भा निषाद तेहि समय बिदेहू ॥
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा । भरतहि चितवत एकटक ठाढ़ा ॥
धरि धीरजु पद बंदि बहोरी । बिनय सप्रेम करत कर जोरी ॥
कुसल मूल पद पंकज पेखी । मैं तिहुँ काल कुसल निज लेखी ॥
अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें । सहित कोटि कुल मंगल मोरें ॥
दोहा
समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियँ जोइ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग बिधि बंचित सोइ ॥१९५॥
चौपाला
कपटी कायर कुमति कुजाती । लोक बेद बाहेर सब भाँती ॥
राम कीन्ह आपन जबही तें । भयउँ भुवन भूषन तबही तें ॥
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई । मिलेउ बहोरि भरत लघु भाई ॥
कहि निषाद निज नाम सुबानीं । सादर सकल जोहारीं रानीं ॥
जानि लखन सम देहिं असीसा । जिअहु सुखी सय लाख बरीसा ॥
निरखि निषादु नगर नर नारी । भए सुखी जनु लखनु निहारी ॥
कहहिं लहेउ एहिं जीवन लाहू । भेंटेउ रामभद्र भरि बाहू ॥
सुनि निषादु निज भाग बड़ाई । प्रमुदित मन लइ चलेउ लेवाई ॥
दोहा
सनकारे सेवक सकल चले स्वामि रुख पाइ।
घर तरु तर सर बाग बन बास बनाएन्हि जाइ ॥१९६॥
चौपाला
सृंगबेरपुर भरत दीख जब । भे सनेहँ सब अंग सिथिल तब ॥
सोहत दिएँ निषादहि लागू । जनु तनु धरें बिनय अनुरागू ॥
एहि बिधि भरत सेनु सबु संगा । दीखि जाइ जग पावनि गंगा ॥
रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू । भा मनु मगनु मिले जनु रामू ॥
करहिं प्रनाम नगर नर नारी । मुदित ब्रह्ममय बारि निहारी ॥
करि मज्जनु मागहिं कर जोरी । रामचंद्र पद प्रीति न थोरी ॥
भरत कहेउ सुरसरि तव रेनू । सकल सुखद सेवक सुरधेनू ॥
जोरि पानि बर मागउँ एहू । सीय राम पद सहज सनेहू ॥
दोहा
एहि बिधि मज्जनु भरतु करि गुर अनुसासन पाइ।
मातु नहानीं जानि सब डेरा चले लवाइ ॥१९७॥
चौपाला
जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा । भरत सोधु सबही कर लीन्हा ॥
सुर सेवा करि आयसु पाई । राम मातु पहिं गे दोउ भाई ॥
चरन चाँपि कहि कहि मृदु बानी । जननीं सकल भरत सनमानी ॥
भाइहि सौंपि मातु सेवकाई । आपु निषादहि लीन्ह बोलाई ॥
चले सखा कर सों कर जोरें । सिथिल सरीर सनेह न थोरें ॥
पूँछत सखहि सो ठाउँ देखाऊ । नेकु नयन मन जरनि जुड़ाऊ ॥
जहँ सिय रामु लखनु निसि सोए । कहत भरे जल लोचन कोए ॥
भरत बचन सुनि भयउ बिषादू । तुरत तहाँ लइ गयउ निषादू ॥
दोहा
जहँ सिंसुपा पुनीत तर रघुबर किय बिश्रामु।
अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनामु ॥१९८॥
चौपाला
कुस साँथरी íनिहारि सुहाई । कीन्ह प्रनामु प्रदच्छिन जाई ॥
चरन रेख रज आँखिन्ह लाई । बनइ न कहत प्रीति अधिकाई ॥
कनक बिंदु दुइ चारिक देखे । राखे सीस सीय सम लेखे ॥
सजल बिलोचन हृदयँ गलानी । कहत सखा सन बचन सुबानी ॥
श्रीहत सीय बिरहँ दुतिहीना । जथा अवध नर नारि बिलीना ॥
पिता जनक देउँ पटतर केही । करतल भोगु जोगु जग जेही ॥
ससुर भानुकुल भानु भुआलू । जेहि सिहात अमरावतिपालू ॥
प्राननाथु रघुनाथ गोसाई । जो बड़ होत सो राम बड़ाई ॥
दोहा
पति देवता सुतीय मनि सीय साँथरी देखि।
बिहरत ह्रदउ न हहरि हर पबि तें कठिन बिसेषि ॥१९९॥
चौपाला
लालन जोगु लखन लघु लोने । भे न भाइ अस अहहिं न होने ॥
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे । सिय रघुबरहि प्रानपिआरे ॥
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ । तात बाउ तन लाग न काऊ ॥
ते बन सहहिं बिपति सब भाँती । निदरे कोटि कुलिस एहिं छाती ॥
राम जनमि जगु कीन्ह उजागर । रूप सील सुख सब गुन सागर ॥
पुरजन परिजन गुर पितु माता । राम सुभाउ सबहि सुखदाता ॥
बैरिउ राम बड़ाई करहीं । बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं ॥
सारद कोटि कोटि सत सेषा । करि न सकहिं प्रभु गुन गन लेखा ॥
दोहा
सुखस्वरुप रघुबंसमनि मंगल मोद निधान।
ते सोवत कुस डासि महि बिधि गति अति बलवान ॥२००॥
चौपाला
राम सुना दुखु कान न काऊ । जीवनतरु जिमि जोगवइ राऊ ॥
पलक नयन फनि मनि जेहि भाँती । जोगवहिं जननि सकल दिन राती ॥
ते अब फिरत बिपिन पदचारी । कंद मूल फल फूल अहारी ॥
धिग कैकेई अमंगल मूला । भइसि प्रान प्रियतम प्रतिकूला ॥
मैं धिग धिग अघ उदधि अभागी । सबु उतपातु भयउ जेहि लागी ॥
कुल कलंकु करि सृजेउ बिधाताँ । साइँदोह मोहि कीन्ह कुमाताँ ॥
सुनि सप्रेम समुझाव निषादू । नाथ करिअ कत बादि बिषादू ॥
राम तुम्हहि प्रिय तुम्ह प्रिय रामहि । यह निरजोसु दोसु बिधि बामहि ॥
छंद
बिधि बाम की करनी कठिन जेंहिं मातु कीन्ही बावरी।
तेहि राति पुनि पुनि करहिं प्रभु सादर सरहना रावरी ॥
तुलसी न तुम्ह सो राम प्रीतमु कहतु हौं सौहें किएँ।
परिनाम मंगल जानि अपने आनिए धीरजु हिएँ ॥