दोहा
मगबासी नर नारि सुनि धाम काम तजि धाइ।
देखि सरूप सनेह सब मुदित जनम फलु पाइ ॥२२१॥
चौपाला
कहहिं सपेम एक एक पाहीं । रामु लखनु सखि होहिं कि नाहीं ॥
बय बपु बरन रूप सोइ आली । सीलु सनेहु सरिस सम चाली ॥
बेषु न सो सखि सीय न संगा । आगें अनी चली चतुरंगा ॥
नहिं प्रसन्न मुख मानस खेदा । सखि संदेहु होइ एहिं भेदा ॥
तासु तरक तियगन मन मानी । कहहिं सकल तेहि सम न सयानी ॥
तेहि सराहि बानी फुरि पूजी । बोली मधुर बचन तिय दूजी ॥
कहि सपेम सब कथाप्रसंगू । जेहि बिधि राम राज रस भंगू ॥
भरतहि बहुरि सराहन लागी । सील सनेह सुभाय सुभागी ॥
दोहा
चलत पयादें खात फल पिता दीन्ह तजि राजु।
जात मनावन रघुबरहि भरत सरिस को आजु ॥२२२॥
चौपाला
भायप भगति भरत आचरनू । कहत सुनत दुख दूषन हरनू ॥
जो कछु कहब थोर सखि सोई । राम बंधु अस काहे न होई ॥
हम सब सानुज भरतहि देखें । भइन्ह धन्य जुबती जन लेखें ॥
सुनि गुन देखि दसा पछिताहीं । कैकइ जननि जोगु सुतु नाहीं ॥
कोउ कह दूषनु रानिहि नाहिन । बिधि सबु कीन्ह हमहि जो दाहिन ॥
कहँ हम लोक बेद बिधि हीनी । लघु तिय कुल करतूति मलीनी ॥
बसहिं कुदेस कुगाँव कुबामा । कहँ यह दरसु पुन्य परिनामा ॥
अस अनंदु अचिरिजु प्रति ग्रामा । जनु मरुभूमि कलपतरु जामा ॥
दोहा
भरत दरसु देखत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु।
जनु सिंघलबासिन्ह भयउ बिधि बस सुलभ प्रयागु ॥२२३॥
चौपाला
निज गुन सहित राम गुन गाथा । सुनत जाहिं सुमिरत रघुनाथा ॥
तीरथ मुनि आश्रम सुरधामा । निरखि निमज्जहिं करहिं प्रनामा ॥
मनहीं मन मागहिं बरु एहू । सीय राम पद पदुम सनेहू ॥
मिलहिं किरात कोल बनबासी । बैखानस बटु जती उदासी ॥
करि प्रनामु पूँछहिं जेहिं तेही । केहि बन लखनु रामु बैदेही ॥
ते प्रभु समाचार सब कहहीं । भरतहि देखि जनम फलु लहहीं ॥
जे जन कहहिं कुसल हम देखे । ते प्रिय राम लखन सम लेखे ॥
एहि बिधि बूझत सबहि सुबानी । सुनत राम बनबास कहानी ॥
दोहा
तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ।
राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ ॥२२४॥
चौपाला
मंगल सगुन होहिं सब काहू । फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू ॥
भरतहि सहित समाज उछाहू । मिलिहहिं रामु मिटहि दुख दाहू ॥
करत मनोरथ जस जियँ जाके । जाहिं सनेह सुराँ सब छाके ॥
सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं । बिहबल बचन पेम बस बोलहिं ॥
रामसखाँ तेहि समय देखावा । सैल सिरोमनि सहज सुहावा ॥
जासु समीप सरित पय तीरा । सीय समेत बसहिं दोउ बीरा ॥
देखि करहिं सब दंड प्रनामा । कहि जय जानकि जीवन रामा ॥
प्रेम मगन अस राज समाजू । जनु फिरि अवध चले रघुराजू ॥
दोहा
भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु।
कबिहिं अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु ॥२२५॥
चौपाला
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें । गए कोस दुइ दिनकर ढरकें ॥
जलु थलु देखि बसे निसि बीतें । कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें ॥
उहाँ रामु रजनी अवसेषा । जागे सीयँ सपन अस देखा ॥
सहित समाज भरत जनु आए । नाथ बियोग ताप तन ताए ॥
सकल मलिन मन दीन दुखारी । देखीं सासु आन अनुहारी ॥
सुनि सिय सपन भरे जल लोचन । भए सोचबस सोच बिमोचन ॥
लखन सपन यह नीक न होई । कठिन कुचाह सुनाइहि कोई ॥
अस कहि बंधु समेत नहाने । पूजि पुरारि साधु सनमाने ॥
छंद
सनमानि सुर मुनि बंदि बैठे उत्तर दिसि देखत भए।
नभ धूरि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए ॥
तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे।
सब समाचार किरात कोलन्हि आइ तेहि अवसर कहे ॥
दोहा
सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर।
सरद सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल ॥२२६॥
चौपाला
बहुरि सोचबस भे सियरवनू । कारन कवन भरत आगवनू ॥
एक आइ अस कहा बहोरी । सेन संग चतुरंग न थोरी ॥
सो सुनि रामहि भा अति सोचू । इत पितु बच इत बंधु सकोचू ॥
भरत सुभाउ समुझि मन माहीं । प्रभु चित हित थिति पावत नाही ॥
समाधान तब भा यह जाने । भरतु कहे महुँ साधु सयाने ॥
लखन लखेउ प्रभु हृदयँ खभारू । कहत समय सम नीति बिचारू ॥
बिनु पूँछ कछु कहउँ गोसाईं । सेवकु समयँ न ढीठ ढिठाई ॥
तुम्ह सर्बग्य सिरोमनि स्वामी । आपनि समुझि कहउँ अनुगामी ॥
दोहा
नाथ सुह्रद सुठि सरल चित सील सनेह निधान ॥
सब पर प्रीति प्रतीति जियँ जानिअ आपु समान ॥२२७॥
चौपाला
बिषई जीव पाइ प्रभुताई । मूढ़ मोह बस होहिं जनाई ॥
भरतु नीति रत साधु सुजाना । प्रभु पद प्रेम सकल जगु जाना ॥
तेऊ आजु राम पदु पाई । चले धरम मरजाद मेटाई ॥
कुटिल कुबंध कुअवसरु ताकी । जानि राम बनवास एकाकी ॥
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू । आए करै अकंटक राजू ॥
कोटि प्रकार कलपि कुटलाई । आए दल बटोरि दोउ भाई ॥
जौं जियँ होति न कपट कुचाली । केहि सोहाति रथ बाजि गजाली ॥
भरतहि दोसु देइ को जाएँ । जग बौराइ राज पदु पाएँ ॥
दोहा
ससि गुर तिय गामी नघुषु चढ़ेउ भूमिसुर जान।
लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान ॥२२८॥
चौपाला
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू । केहि न राजमद दीन्ह कलंकू ॥
भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ । रिपु रिन रंच न राखब काऊ ॥
एक कीन्हि नहिं भरत भलाई । निदरे रामु जानि असहाई ॥
समुझि परिहि सोउ आजु बिसेषी । समर सरोष राम मुखु पेखी ॥
एतना कहत नीति रस भूला । रन रस बिटपु पुलक मिस फूला ॥
प्रभु पद बंदि सीस रज राखी । बोले सत्य सहज बलु भाषी ॥
अनुचित नाथ न मानब मोरा । भरत हमहि उपचार न थोरा ॥
कहँ लगि सहिअ रहिअ मनु मारें । नाथ साथ धनु हाथ हमारें ॥
दोहा
छत्रि जाति रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान।
लातहुँ मारें चढ़ति सिर नीच को धूरि समान ॥२२९॥
चौपाला
उठि कर जोरि रजायसु मागा । मनहुँ बीर रस सोवत जागा ॥
बाँधि जटा सिर कसि कटि भाथा । साजि सरासनु सायकु हाथा ॥
आजु राम सेवक जसु लेऊँ । भरतहि समर सिखावन देऊँ ॥
राम निरादर कर फलु पाई । सोवहुँ समर सेज दोउ भाई ॥
आइ बना भल सकल समाजू । प्रगट करउँ रिस पाछिल आजू ॥
जिमि करि निकर दलइ मृगराजू । लेइ लपेटि लवा जिमि बाजू ॥
तैसेहिं भरतहि सेन समेता । सानुज निदरि निपातउँ खेता ॥
जौं सहाय कर संकरु आई । तौ मारउँ रन राम दोहाई ॥
दोहा
अति सरोष माखे लखनु लखि सुनि सपथ प्रवान।
सभय लोक सब लोकपति चाहत भभरि भगान ॥२३०॥
चौपाला
जगु भय मगन गगन भइ बानी । लखन बाहुबलु बिपुल बखानी ॥
तात प्रताप प्रभाउ तुम्हारा । को कहि सकइ को जाननिहारा ॥
अनुचित उचित काजु किछु होऊ । समुझि करिअ भल कह सबु कोऊ ॥
सहसा करि पाछैं पछिताहीं । कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं ॥
सुनि सुर बचन लखन सकुचाने । राम सीयँ सादर सनमाने ॥
कही तात तुम्ह नीति सुहाई । सब तें कठिन राजमदु भाई ॥
जो अचवँत नृप मातहिं तेई । नाहिन साधुसभा जेहिं सेई ॥
सुनहु लखन भल भरत सरीसा । बिधि प्रपंच महँ सुना न दीसा ॥