रुद्रयामलतन्त्र एवं योग ---
प्रस्तुत रुद्रयामल प्राय . ६ हजार श्लोकों में उपनिबद्ध है । इस तन्त्र की मुख्य विषयवस्तु महाशक्ति कुलकुण्डलिनी के जागरण से सम्बन्धित है । इस योग की सिद्धि के लिए साधक (योगी ) के जीवन में यम एवं नियम का अनुष्ठान परमावश्यक है । साथ ही साथ आसन सिद्ध करना भी आवश्यक है । कुछ कुछ मात्रा में प्राणायाम के अभ्यास से प्राणों (श्वासों ) की गति में समत्व लाना भी नितान्त आवश्यक है । जिसका आहार विकृत होता है , उसके प्राण (श्वसन तन्त्र आदि ) भी विकृत एवं कुपित हो जाते हैं । जिनके प्राण विकृत या कुपित होते हैं उनका मन कभी एकाग्र नहीं होता । अतः प्राणों की स्थिरता एवं समत्व के लिए आहार की शुद्धि परमावश्यक होती है । योग के इन्हीं अङों की प्रयोग पद्धति का वर्णन रुद्रयामल में किया गया है । प्रयोग पद्धति में पूजा एवं अर्चना के लिए ८ सहस्त्रनाम अनेक कवच एवं स्तुतियाँ जिनमे कुलकुण्डलिनी की स्तुति मुख्य है ।
आगमशास्त्र और रुद्रयामल
महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज ने अपनी ‘तन्त्र और आगम शास्त्रों का दिग्दर्शन ’ नामक पुस्तक में तत्त्व से प्रारम्भ करके साहित्य तक के शीर्षकों में जो बातें बतलाई हैं उनमें सुविधा की दृष्टी से हम पहले ‘साहित्य ’ शीर्षक लेते है , जिसके अन्तर्गत उन्होंने दस शिवागम , अष्तादश रुद्रागम , चौंसठ भैरवागम , चौसठ कुलमार्ग तन्त्र , समय मार्ग के शुभागम पंचक और नवयुग के चौसठ तन्त्रों का उल्लेख किया है ।
तांत्रिक साहित्य के इतिहास में दस शिवागम और अष्टादश रुद्रागम अष्टाविंश आगम के नाम से प्रसिद्ध हैं ।
‘ किरणागम ’ के अनुसार परमेश्वर ने सबसे पहले दस शिवों को उत्पन्न करके उनमें से प्रत्येक को अपने अविभक्त महाज्ञान का एक - एक हिस्सा दिया । यह अविभक्त महाज्ञान ही पूर्ण शिवागम है । उन दस शिवों तथा उन्हें प्राप्त आगमों तथा उनके तीन श्रोताओं के नाम निम्नलिखित है ; ---
|
शिव |
आगम |
श्रोता |
|
१ |
२ |
३ |
१ |
प्रणव |
कामिकागम |
प्रणव |
त्रिकल |
हर |
२ |
सुधा |
योगजागम |
सुधा |
भस्मसंग |
प्रभु |
३ |
दीप्त |
चिन्तागम |
दीप्ताख्य |
गोपति |
अम्बिका |
४ |
कारण |
कारणागम |
कारणाख्य |
शर्व |
प्रजापति |
५ |
सुशिव |
अजितागम |
सुशिव |
उमेश |
अच्युत |
६ |
ईश |
सुदीप्तकागम |
ईश |
त्रिमूर्त्ति |
हुताशन |
७ |
सूक्ष्म |
सूक्ष्म |
सूक्ष्म |
भय |
प्रभंजन |
८ |
काल |
सहस्त्र |
काल |
भीम |
राग |
९ |
धनेश |
सुप्रभेद (मुकुटागम ) |
धनेश |
विश्वेश |
शशि |
१० |
अशु |
अंशुमान् |
अंशु |
अग्न |
रवि |
इसी तरह अठारह रुद्र हैं , जिनके अठारह आगम है और उनके दो -दो श्रोता है । उन रुद्रागमों और उनके श्रोताओं के नाम निम्नलिखित हैं ,---
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रूद्र आगम |
श्रोता |
१ |
२ |
१ |
विजय |
अनादिरूद्र |
परमेश्वर |
२ |
निःश्वास |
दशार्ण |
शिलसंभवा |
३ |
परमेश्वर |
श्रीरूप |
उशना |
४ |
प्रोद्गीत |
शूली |
कच |
५ |
मुखबिम्ब |
प्रशान्त |
दधीचि |
६ |
सिद्धमत |
बिन्दु |
चण्डेश्वर |
७ |
सन्तान |
शिवलिंग |
हंसवाहन |
८ |
नारसिंह |
सौम्य |
नृसिंह |
९ |
चन्द्रहास |
अनन्त |
बृहस्पति |
१० |
वीरभद्र |
सर्वात्मा |
वीरभद्र महागण |
११ |
स्वायम्भुव |
निधन |
ब्रह्मा पद्मज |
१२ |
विरज |
तेज |
प्रजापति |
१३ |
कौरव्य |
ब्रघ्नेश |
नंदिकेश्वर |
१४ |
माकुट |
शिवाख्य ईशान |
महादेव , ध्वजाश्रय |
१५ |
किरण |
देवपिता |
संवर्तक |
१६ |
ललित |
आलय |
रुद्रभैरव |
१७ |
आग्नेय |
व्योमशिव |
हुताशन |
१८ |
? |
शिव |
? |
मुकुटतन्त्र में रुद्र -भेद विविध हैं । यद्यपि अठारहवें रुद्र और उनके एक श्रोता का नाम उपलब्ध नहीं होता फिर भी सिद्धान्त के अनुसार १८ x२ =३६ रुद्रज्ञान हैं । शिव तथा रुद्र दोनें के सिद्धान्त ज्ञानों को मिलाकर ३० +३६ =६६ शिव -रुद्र ज्ञान विभक्त हैं ।
कामिकागम के अनुसार सदाशिव के पाँच मुख है -सद्योजात , वामदेव , अघोर , तत्पुरुष और ईशान । जिनके पाँच स्त्रोत हैं ---लौकिक , वैदिक , आध्यात्मिक , अतिमार्ग और मन्त्र ।
सोम -सिद्धान्त के अनुसार उपर्यक्त पाँच स्त्रोतों वाले पाँच तन्त्र , पाँच -पाँच प्रकार के हैं । सिद्धान्तदीपिका एवं "शतरत्न " के अनुसार उपर्युक्त वर्णन हैं । उपर्युक्त विवरण को निम्नलिखित रुपरेखा में देखा जा सकता है।
सदाशिव |
उत्तर मुख |
पश्चिम मुख |
|
दक्षिण मुख |
उर्ध्व मुख |
सद्योजातशिव |
वामदेवशिव |
अघोरशिव |
तत्पुरूष |
ईशान |
कामिक |
दीप्त |
विजय |
प्रोद्गीत |
रौरव |
योगज |
सूक्ष्म |
निःश्वास |
ललित |
-- |
चिन्त्य |
सहस्त्र |
स्वायंभुव |
सिद्ध |
मुकुट |
कारण |
अंशुमत |
आग्नेय |
सन्तान |
-- |
अजित |
सुप्रभेद |
वीर |
सर्वोक्त |
विमलज्ञान |
कविराज जी ने नेपाल लाइब्रेरी में उपलब्ध "निःश्वास -तत्त्व -संहिता " नामक एक पोथी की चर्चा की है , जिसमें ---१ . लौकिक धर्मसूत्र . २ मूलसूत्र , ३ . उत्तर सूत्र (आदि सूत्र ), ४ . नय सूत्र (प्रथम सूत्र ), ५ गुह्य सूत्र इन पाँच सूत्रों या विभागों का उल्लेख किया है और बतलाया है कि आदि या उत्तर सूत्र में अठारह प्राचीन शिव -सूत्रों का उल्लेख है , जो वास्तव में उन नामों से प्रचलित आगम ही हैं । उनमें दस शिवतन्त्र है । ‘कालिकागम ’ के अनुसार अथारह तन्त्र बतलाये गये है । इन्होंने ज्ञान -सम्बन्धी शुद्धमार्ग , अशुद्धमार्ग और मिश्रमार्ग , इन तीन मार्गों का उल्लेख किया है और पशु , माया आदि तत्वों के ज्ञान की अपेक्षा शिवप्रतिपादक ज्ञान को सर्वश्रेष्ठ बतलाया हैं । सिद्धान्त -मत के अनुसार वेदादि -सम्बन्धी ज्ञान से सिद्धान्त ज्ञान को विशुद्ध और श्रेष्ठ बतलाया गया है । यह ज्ञान भी परापर भेद से भिन्न -भिन्न प्रकार का है ।
‘ कामिकागम ’ और " स्वायंभुव आगम " के अनुसार परापर भेद का उल्लेख किया गया है । अधिकारी भेद से ज्ञान के भेद किये गये है । पतिप्रतिपादक ज्ञान को परज्ञान और पशुप्रतिपादक ज्ञान को अपरज्ञान कहा गया है । शिव प्रकाश ज्ञान को पर या श्रेष्ठ कहा गया है तथा पशु - पाश आदि अर्थ प्रकाशज्ञान को अपर - ज्ञान कहा गया है । यहाँ स्मरणीय है कि शिव - ज्ञान और रुद्रज्ञान को सिद्धान्त - ज्ञान कहत हैं । कविराज जी ने यह भी बतलाय है कि पाशुपतों में उपर्युक्त अठारह रौद्रागमों की प्रामाणिकता मानी जाती है क्योंकी उन ( रौद्रागमों ) में द्वैतदृष्टि से अद्वैतदृष्टि का मिश्रण है । प्ररन्तु दस शिवागमों में अद्वैतदृष्टि को अंगीकृत वे नहीं मानते । अतः अभिनवगुप्त भी पाशुपतमत को सर्वथा हेय नहीं मानते । इस प्रकार से शिवागमों और रुद्रागमों की चर्चा करने के बाद चौसठ भैरवागमों का उल्लेख किया गया है ।
चौसठ भैरवागम
तन्त्रालोक के प्रसिद्ध टीकाकार जयरथ ने श्रीकंठ -सहिता के अनुसार चौसठ भैरवागम -अद्वैतागमों का उल्लेख किया है । वे निम्नलिखित आठ अष्टकों में विभक्त हैं --१ भैरवाष्टक , २यामलाष्टक , ३ .मताष्टक ४ . मंगलाष्टक , ५ .चक्राष्टक , ६ .बहुरुपाष्टक , ७ .वागीशाष्टक , और ८ .शिखाष्टक (६४ )।
इन आठ अष्टकों में प्रथम और द्वितीय अष्टक के एक -एक तन्त्र का नाम नहीं मिलता । नवीं शताब्दी के प्रारम्भ में शिखाष्टक के वीणाशिवा , सम्मोह और शिरश्छेद नामक तन्त्र भारत से कम्बोज देश पहुँचे गये थे । यहाँ यह भी बतलाया गया है कि एक चौथा तन्त्र भी जो ‘नयोत्तर ’ नाम से प्रसिद्ध है जिसका उल्लेख प्रबोधचन्द्र वागची ने स्टडीज इन दि तन्त्राय , वाल्यूम १ , पृष्ठ २ में किया हैं और उन्होंने बतलाया है , कि नेपाल में सरंक्षित "निःश्वास तत्त्व संहिता "" अठारह रौद्रागमों के अन्तर्गत "निःश्वास तन्त्र " क ही दूसरा नाम है । जिसके चार भाग हैं , उन सभी को मिलाकर ‘नयोत्तर तन्त्र ’ कहा जाता है ।