संक्षिप्त विवरण - बन्ध एवं मुद्राएँ

कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


योगसाधना में बन्धों एवं मुद्राओं का विशेषरुप से उल्लेख आया है । इनमें से कुछ उपयोगी बन्धों एवं मुद्राओं का यहाँ विवरण दिया जा रहा है जिनका उल्लेख रुद्रयामला में आया हैं ।

बन्ध

१ . ,मूलबन्ध --- मूल गुदा एवं लिङु -स्थान के रन्ध्र को बन्द करने का नाम मूलबन्ध है । वाम पाद की एडी को गुदा और लिङु के मध्यभाग में दृढ लगाकर गुदा को सिकोडकर योनिस्थान अर्थात् ‍ गुदा और लिङु एवं कन्द के बीच के भाग को दृढतापूर्वक संकोचन द्वारा अधोगत अपानवायु को बल के साथ धीरे -धीरे ऊपर की ओर है । अन्य आसनों के साथ एडी को सीवनी पर बिना लगाये हुए भी मूलबन्ध लगाया जा सकता है ।

फल --- इससे अपानवायु का ऊर्ध्व -गमन होकर प्राण के साथ एकता होती है । कुण्डलिनी -शक्ति सीधी होकर ऊपर की ओर चढती की ओर चढती है । कोष्ठबद्धता दूर करने , जठराग्नि को प्रदीप्त करने और वीर्य को ॠर्ध्वरेतस् ‍ बनामे में बन्ध अति उत्तम है । साधकों को न केवल भजन के अवसर पर किन्तु हर समय मूल बन्ध को लगाये रखने का अभ्यास करना चाहिये ।

२ . उड्डीयानबन्ध --- दोनों जानुओं को मोडकर पैरों के तलवों को परस्पर भिडाकर पेट के नाभि से नीचे और ऊपर के आठ अंगुल हिस्से को बलपूर्वक खींचकर मेरुदण्ड (रीढ की हड्डी से ) ऐसा लगा दे जिससे कि पेट के स्थान पर गढडा -सा दीखने लगे । पेट को अंदर की ओर जितना अधिक खींचा जायगा , उतना ही यह बन्ध अच्छा होगा । इसमें प्राण पक्षी के सदृश सुषुम्ना की ओर उडने लगता है , इसलिये यह बन्ध उड्डीयान कहलाता है । इस बन्ध को पैरों के तलवों को बिना भिडाये हुए भी किया जा सकता है ।

फल --- प्राण और वीर्य का ऊपर की ओर दौडना , मन्दाग्नि का नाश , क्षुधा की वृद्धि , जठराग्नि का प्रदीप्त और फेफडे का शक्तिशाली होना है , इस बन्ध के फल है ।

३ . जालन्धरबन्ध --- कण्ठ को सिकोडकर ठोढी को दृडतापूर्वक कण्ठकूप में इस प्रकार स्थापित करे कि ह्रदय से ठोडी का अन्तर केवल चार अंगुल का रहे , सीना आगे की ओर तना रहे । यह बन्ध कण्ठस्थान के नाडी -जाल के समूह को बाँधे रखता है , इसलिये इसका नाम जालन्धर -बन्ध है ।

फल --- कण्ठ का सुरीला , मधुर और आर्कषण होना , कण्ठ के संकोच द्वारा इडा , एवं पिङुला नाडियों के बंद होने पर प्राण का सुषुम्ना में प्रवेश करना है ।

प्रायः सभी आसन मुद्राएँ और प्राणायाम मूलबन्ध और उड्डीयानबन्ध के साथ किये जाते है । किन्तु राजयोग में ध्यानावस्था में जालन्धरबन्ध लगाने की बहुत कम आवश्यकता होती है ।

४ . महाबन्ध --- महाबन्ध की दो विधियों में पहली विधि इस प्रकार है ---बायें पैर की एडी को गुदा और लिङु के मध्यभाग में जमाकर बायीं जंघा के ऊपर दाहिन पैर को रख , समसूत्र में हो , वाम अथवा जिस नासारन्ध्र से वायु चल रहा हो उससे ही पूरक करके जालन्धर -बन्ध लगाये । फिर मूलद्वार से वायु का ऊपर की ओर आकर्षण करके मूलबन्ध लगाये । मन को मध्य नाडी में लगाये हुए यथाशक्ति कुम्भक करे । तत्पश्चात् ‍ पूरक के विपरीत वाली नासिका से धीरे -धीरे रेचन करे । इस प्रकार दोनों नासिका से अनुलोम एवं विलोम रिति से समान प्राणायाम करे ।

इसकी दूसरी इस प्रकार है ---पद‌म अथवा सिद्धासन से बैठे , योनि और गुह्यप्रवेश सिकोड , अपानवायु को ऊर्ध्वगामी कर , नाभिस्थ समानवायु के साथ मिलाकर और ह्रदयस्थ प्राणवायु को अधोमुख करके प्राण और अपानवायुओं के साथ नाभिस्थल पर दृढरुप से कुम्भक करे ।

फल --- प्राण का ऊर्ध्वगामी होना -वीर्य की शुद्धि , इडा , पिङुला और सुषुम्ना का सङुम प्राप्त होना , बल की वृद्धि आदि इसके गुण है ।

५ . महाबन्ध --- यह दो प्रकार से किया जाता है - महाबन्ध की प्रथम विधि के अनुसार मूलब्न्धपूर्वक कुम्भक करके दोनों हाथों की हथेली भूमि में दृढ स्थिर करके , हाथों के बल ऊपर उठाकर दोनों नितम्बों को शनैःशनैः ताडना दे और ऐसा ध्यान करे कि प्राण इडा एवं पिङुला को छोडकर कुण्डलिनी -शक्ति को जगाता हुआ सुषुम्ना में प्रवेश कर रहा है । तत्पश्चात् ‍ वायु को शनैः शनैः महाबन्ध की विधि के अनुसार रेचन करे इसकी दूसरी विधि इस प्रकार है --

मूलबन्ध के साथ पद्‍मासन से बैठे , अपान और प्राणवायु को नाभिस्थान पर एक करके (मिलकर ) दोनों हाथों को तानकर नितम्बों से मिलते हुए भूमि पर जमाकर नितम्ब को आसनसहित उठा -उठाकर भूमि पर ताडित करते रहें ।

फल --- कुण्डलिनी -शक्ति का जाग्रत् ‍ होना , प्राण का सुषुम्ना में प्रवेश करना इसके प्रमुख गुण है । महाबन्ध , महावेध और महामुद्रा - तीनों को मिलाकर करना अधिक फलदायक है ।

मुद्रा

१ . खेचरी मुद्रा --- जीभ को ऊपर की ओर उलटी ले जाकर तालु -कुहर (जीभ के ऊपर तालु के बीच के गढे ) में लगाये रखने का नाम ‘खेचरी -मुद्रा ’ है । इसके निमित्त जिह्रा को बढाने के तीन साधन किये जाते है - छेदन , चालन और दोहन।

( १ ) छेदन --- जीभ के नीचे के भाग मेम सूताकर वाली एक नाडी नीचे वाले दाँतो की जड के साथ जीभ को खींचे रखती है । इसलिये जीभ को ऊपर चढानो कठिन होता है । प्रथम इस नाडी के दाँतो के निकट वाले एक ही स्थान पर स्फटिक ( बिल्लौर ) का धार वाला टुकडा प्रतिदिन प्रातःकाल चार - पाँच बार फेरते रहें । कुछ दिनों तक ऐसा करने के पश्चात् ‍ वह नाडी उस स्थान में पूर्ण कट जायगी । इसी प्रकार क्रमशः उससे ऊपर - ऊपर एक - एक स्थान को जिह्रामूल तक काटते चले जायँ । स्फटिक फेरने के पश्चात् ‍ माजूफल का कपडछन चूर्ण ( टेरिन ऐसिड ) जीभ के ऊपर - नीचे तथा दाँतो पर मलें नून , हरीतकी और कत्थे का चूर्ण छेदन किये हुए स्थान पर लगाये । यह छेदन - विधि सबसे सुगम है और इससे किसी प्रकार की हानि पहुँचने की सम्भावना नहीं है , यद्यापि इसमें समय अधिक लगेगा । साधारणतया छेदन का कार्य किसी धातु के तीक्ष्ण यन्त्र से प्रति आठवें दिन उस शिरा को बाल के बराबर छेदकर घाव पर कत्था और हरड का चूर्ण लगाकर करते हैं । इसके छेदन के लिये नाखून काटने वाला - जैसा एक तीक्ष्ण यन्त्र और खाल छीलने के लिये एक दूसरे यन्त्र की आवश्यकता होती है , जिससे कटा हुआ भाग फिर न जुडने पावे । इसमें नाडी के सम्पूर्ण अंश के एक साथ कट जाने से वाक् ‍ तथा आस्वादन - शक्ति के नष्ट हो जाने का भय रहता है । इसलिये इसे किसी अभिज्ञ पुरुष की सहायता से ही करना चाहिये । छेदन की आवश्यकता केवल उनको होती है , जिनकी जीभ और यह नाडी मोटी होती है । जिनकी जीभ लंबी और यह नाडी पतली होती है , उन्हें छेदने की अधिक आवश्यकता नहीं है ।

( २ - ३ ) चालन व दोहन --- अँगूठे और तर्जनी अँगुली से अथवा बारीक वस्त्र से जीभ को पकडकर चारों तरफ उलट - फेरकर हिलाने और खींचने को चालन कहते हैं । मुक्खन अथवा घी लगाकर दोनों हाथों की अँगुलियों से जीभ का गाय के स्तनदोहन जैसे पुनःपुनः धीरे - धीरे आकर्षण करने की क्रिया का नाम दोहन है ।

निरन्तर अभ्यास करते रहने से अन्तिम अवस्था में जीभ इतनी लम्बी हो सकती है कि नासिका के ऊपर भ्रूमध्यतक पहुँच जाय । इस मुद्रा का बडा महत्त्व बतलाया गया है , इससे ध्यान की अवस्था परिपक्व करने में बडी सहायता मिलती है । जिह्राओं के भी नाना प्रकार के भेद देखने में आये हैं । किसी जिह्रा में सूताकार नाडी के स्थान में मोटा मांस होता है , जिसके काटने में अधिक कठिनाई होती है । किसी -किसी जिह्रा में न यह नाडी होती है , न मांस । उसमें छेदने की आवश्यकता नहीं है । केवल चालन एवं दोहन होना चाहिये ।

२ . महामुद्रा --- इसकी पहली विधि इस प्रकार है --- मूलबन्ध लगाकर बायें पैर की एडी से सीवन (गुदा और अण्डकोष के मध्य का चार अँगुल स्थान ) दबाये और दाहिने पैर को फैलाकर उसकी अँगुलियों को दोनों हाथों से पकडे । पाँच घर्षण करके बायीं नासिका से पूरक करे और जालन्धर -बन्ध लगाये । फिर जालन्धर -बन्ध -खोलकर दाहिनी नासिका से पूरक करे और जालन्धर -बन्ध लगाये । फिर जालन्धर -बन्ध -खोलकर दाहिनी नासिका से रेचक करे । वह वामाङु की मुद्रा समाप्त हुई । इसी प्रकार दक्षिणाङु में इस मुद्रा को करना चाहिये तथा दूसरी विधि इस प्रकार है ---बायें पैर की एडी को सीवन (गुदा और उपस्थ के मध्य के चार अङुल भाग ) में बलपूर्वक जमाकर दायें पैर को लम्बो फैलाये । फिर शनैःशनैः पूरक के साथ मूल तथा जालन्धर बन्ध लगाते हुए दायें पैर का अँगूठा पकडकर मस्तक के दायें पैर के घुटने पर जमाकर यथाशक्ति कुम्भक करे । कुम्भक के समय पूरक की हुई वायु को कोष्ठ में शनैः शनीः फुलावे और ऐसी भावना करे कि प्राण कुण्डलिनी को जाग्रत् ‍ करके सुषुम्ना में प्रवेश कर रहा है । तत्पश्चात् ‍ मस्तक को घुटने से शनैःशनै रेचक करते हुए उठाकर यथास्थिति में बैठ जाय । इसी प्रकार दूसरे अङु से करना चाहिये । प्राणायाम की संख्या एवं समय बढाता रहे ।

फल --- मन्दाग्नि , अजीर्ण आदि उदर के रोगों तथा प्रमेह का नाश , क्षुधा की वृद्धि और कुण्डलिनी की जाग्रत् ‍ होना है ।

३ . आश्विनीमुद्रा --- सिद्ध अथवा पद्‍मासन से बैठकर योनिमण्डल को अश्व के सदृश पुनः पुनः सिकोडना अश्विनीमुद्रा कहलाती है ।

फल --- यह मुद्रा प्राण के उत्थान और कुण्डलिनी -शक्ति के जाग्रत् ‍ करने में सहायक होती है । अपानवायु को शुद्ध और वीर्यवाही स्नायुओं को मजबूत करती है ।

४ . शक्तिचालिनीमुद्रा --- सिद्ध अथवा पद्‌मासन से बैठकर हाथों की हथेलियाँ पृथ्वी पर जमा दे । बीस -पचीस बार शनैःशनैः दोनों नितम्बो को पृथ्वी से उठा -उठाकर ताडन करे । तत्पश्चात् ‍ मूलबन्ध लगाकर दोनों नासिकाओं से अथवा वाम से अथवा जो स्वर चल रहा हो उस नासिका से पूरक करके प्राणवायु को अपानवायु से संयुक्त करके जालन्धर -बन्ध लगाकर यथाशक्ति कुम्भक करे । कुम्भक के समय अश्विनीमुद्रा करे अर्थात् ‍ गुह्य -प्रदेश हा आकर्षण -विकर्षण करता रहे । तत्पश्चात् ‍ जालन्धर -बन्ध खोलकर यदि दोनों नासिकापुट से पूरक किया हो तो दोनों से अथवा पूरक के विपरीत नासिकापुट से रेचक करे और निर्विकार होकर एकाग्रथापूर्वक बैठ जाय ।

घेरण्डसंहिता में इस मुद्रा को करते समय बालिश्त भर चौडा , चार अङुल लंबा , कोमल , श्वेत और सूक्ष्म वस्त्र नाभि पर कटिसूत्र से बाँधकर सारे शरीर पर भस्म मलकर करना बतलाय गया है ।

फल --- सर्वरोग -नाशक और स्वास्थ्यवर्धक होने के अतिरिक्त कुण्डलिनी -शक्ति को जाग्रत् ‍ करने में अत्यन्त सहायक है । इसके साधक अवश्य लाभ प्राप्त करता है ।

५ . योनिमुद्रा --- सिद्धासन से बैठ सम -सूत्र हो षण्मुखी मुद्रा लगाकर अर्थात् ‍ दोनों अँगूठों से दोनों कानों को , दोनों तर्जनियों से दोनों नेत्रों को , दोनों मध्यमाओं से नाक के छिद्रो को बंद करके और दोनों अनामिका एवं कनिष्ठिकाओं को दोनों ओठों के पास रखकर काफी मुद्रा द्वारा अर्थात् ‍ जिह्रा को कौए की चोंच के सदृश बनाकर उसके द्वारा प्राणवायु को खींचकर अधोगत अपानवायु के साथ मिलाये । तत्पश्चात् ‍ ओ३म् ‍ जाप करता हुआ ऐसी भावना करे कि उसकी ध्वनि के साथ परस्पर मिलि हुई वायु कुण्डलिनी को जाग्रत् ‍ करके षट्‌चक्रों का भेदन करते हुए सहस्त्रदल -कमल में जा रही है । इससे अन्तर्ज्योति का साक्षात्कार होता है ।

६ . योगमुद्रा --- मूलबन्ध के साथ पद्‌मासन से बैठकर प्रथम दोनों नासिकापुटों से पूरक करके जालन्धनबन्ध लगाये । तत्पश्चात् ‍ दोनों हाथों को पीठ के पीछे ले जाकर बायें हाथ से दायें की और दायें हाथ से बायें हाथ की कलाई को पकडे , शरीर को आगे झुकाकर पेट के अन्दर एडियों को दबाते हुए सिर को जमीन पर लगा दें । इस प्रकार यथाशक्ति कुम्भक करने के पश्चात् ‍ सिर को जमीन से उठाकर जालन्धर -बन्ध खोलकर दोनों नासिकाओं से रेचन करे ।

फल --- पेट के रोगों को दूर करने और कुण्डलिनी -शक्ति को जागृत् ‍ करने में यह मुद्रा सहायक होती है ।

७ . शाम्भवीमुद्रा --- मूल और उड्डीयाबन्ध के साथ सिद्ध अथवा पद्‍मासन से बैठकर नासिका के अग्रभाग अथवा भ्रूमध्य में दृष्टि को स्थिर करके ध्यान जमाना ‘शाम्भवी मुद्रा ’ कहलाती है ।

८ . तडागी मुद्रा --- तडाग (तालाब ) के सदृश कोष्ठ को वायु से भरने को तडागी मुद्रा कहते हैं । शवासन से चित्त लेटकर जिस नासिका का स्वर चल रहा हो , उससे पूरक तालाब के समान पेट को फैलाकर वायु से भर लेना चाहिए । तत्पश्चात् ‍ कुम्भक करते हुए वायु को पेट में इस प्रकार हिलावे , जिस प्रकार तालाब का जल हिलता है । कुम्भक के पश्चात् ‍ सावधनी से वायु का शनैःशनैः रेचन कर दे , इससे पेट के सर्वरोग समूल नष्ट होते हैं ।

९ . विपरीतकरणीमुद्रा -शीर्षासन -कपालासन --- पहिले जमीन पर मुलायम गोल लपेटा हुआ वस्त्र रखकर उस पर अपने मस्तक को रखे । फिर दोनों हाथों के तलों को मस्तक के पीछे लगाकर शरीर को उलटा ऊपर उठाकर सीधा खडा कर दे । थोडे ही प्रयत्न से मूल और उड्डीयान स्वयं लग जाता है । यह मुद्रा पद्‍मासन के साथ भी की जा सकती है । इसको ऊर्ध्व -पद्‍मासन कहते हैं । आरम्भ में इसको दीवार के सहारे करने में आसानी होगी ।

फल --- वीर्यरक्षा , मस्तिष्क , नेत्र , ह्रदय तथा जठराग्नि का बलवान होना , प्राण की गति स्थिर और शान्त होना , कब्ज , जुकाम , सिरदर्द आदि का दूर होना , रक्त क शुद्ध होना और कफ के विकार का दूर होना है ।

१० . उन्मनी मुद्रा --- किसी सुख -आसन से बैठकर आधी खुली हुई और आधी बंद आँखों से नासिका के अग्रभाग पर टकटकी लगाकर देखते रहना यह ‘उन्मनी मुद्रा ’ कहलाती है । इससे मन एकाग्र होता है ।

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Last Updated : March 28, 2011

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