अनियमित क्रिया के कारण जिस तरह मानव -देह में रोग उत्पन्न होते हैं , उसी तरह औषध के बिना ही भीतरी क्रियाओं के द्वारा नीरोग होने के उपाय भगवान् के बनाये हुए हैं । हमलोग उस भगवत्प्रदत्त सहज कौशल को नहीं जानते , इसी कारण दीर्घकाल तक रोग का दुःख भोगते रहते है । यहाँ रोगों के निदान के लिय स्वरशास्त्रोक्त कुछ यौगिक उपायों का उल्लेख किया गया है । इनके प्रयोग से विशेष लाभ हो सकता है ---
१ . ज्वर में स्वर परिवर्तन --- ज्वर का आक्रमण होने पर अथवा आक्रमण की आशङ्का होने पर जिस नासिका से श्वास चलता हो , उस नासिका को बंद कर देना चाहिये । जब तक ज्वर न उतरे और शरीर स्वस्थ न हो जाय , तब तक उस नासिका को बंद ही रखना चाहिये । ऐसा करने से दस -पंद्रह दिनों में उतरने वाला ज्वर पाँच ही सात दिनों में अवश्य ही उतर जायगा। ज्वरकाल में मन -ही -मन सदा चाँदी के समान श्वेत वर्ण का ध्यान करने से और भी शीघ्र लाभ होता है । सिन्दुवार की जड रोगी के हाथ में बाँध देने से सब प्रकार के सब प्रकार के ज्वर निश्चय ही दूर हो जाते हैं ।
अँतरिया ज्वर --- श्वेत अपराजिता अथवा पलाश के कुछ पत्तों को हाथ से मलकर , कपडे से लपेटकर एक पोटली बना लेनी चाहिये और जिस दिन ज्वर की बारी हो उस दिन सबेरे से ही उसे सूँघते रहना चाहिये । अँतरिया ज्वर बंद हो जायगा ।
२ . सिरदर्द में स्वर परिवर्तन --- सिरदर्द होने पर दोनों हाथों की केहुने के ऊपर धोती के किनारे अथवा रस्सी से खूब कसकर बाँध देना चाहिये । इससे पाँच -सात मिनट में ही सिरदर्द जाता रहेगा । केहुनी पर इतने जोर से बाँधना चाहिये कि रोगी को हाथ में अत्यन्त दर्द मालूम हो । सिरदर्द अच्छा होते ही बाँहे खोल देनी चाहिये ।
एक दूसरे प्रकार का सिरदर्द होता है , जिसे साधारणतः ‘अधकपाली ’ या ‘आधासीसी ’ कहते हैं । कपाल के मध्य से बायीं या दाहिने ओर आधे कपाल और मस्तक में अत्यन्त पीडा मालूम होती है । प्रायः यह पीडा सूर्योदय के समय आरम्भ होती है और दिन चढने के साथ -साथ यह भी बढती जाती है । दोपहर के बाद घटनी शुरु होती है और शाम तक प्रायः नहीं ही रहती । इस रो ग का आक्रमण होने पर जिस तरफ के कपाल में दर्द हो , ऊपर लिख -अनुसार उसी तरफ की केहुनी के ऊपर जोर से रस्सी बाँध देनी चाहिये । थोडी ही देर में दर्द शान्त हो जायगा और रोग जाता रहेगा । दूसरे दिन यदि फिर दर्द शुरु हो और रोज एक ही नासिका से श्वास चलते समय शुरु होता हो तो सिरदर्द मालूम होते ही उस नाक को बंद कर देना चाहिये और हाथ को भी बाँध रखना चाहिये । ‘अद्धकपाली ’ सिरदर्द में इस क्रिया से होने वाले आश्चर्यजनक फल को देखकर साधक चकित रह जाते है ।
शिरः पीडा --- शिरः पीडाग्रस्त रोगी को प्रातःकाल शय्या से उठते ही नासापुठ से शीतल जल पीना चाहिये । इससे मस्तिष्क शीतल रहेगा , सिर भारी नहीं होगा और सर्दी नहीं लगेगी । यह क्रिया विशेष कठिन भी नहीं है । एक बरतन में ठंडा जल भरकर उसमें नाक डुबाकर धीरे -धीरे गले भीतर जल खींचना चाहिये । क्रमशः अभ्यास से यह क्रिया सहज हो जायगी । शिरःपीडा होने पर चिकित्सक रोगी के आरोग्य होने की आशा छोड देता है , रोगी को भी भीषण कष्ट होता है , परंतु इस उपाय से काम लेने पर निश्चय ही आशातील लाभ पहुँचता है ।
३ . उदरामय , अजीर्णादि में स्वर परिवर्तन --- भोजन , जलपान आदि जब जो कुछ खाना हो वह दाहिनी नाक से श्वास चलते समय खाना चाहिये । प्रतिदिन इस नियम से आहार करने से वह बहुत आसानी से पच जायगा और कभी अजीर्ण का रोग नहीं होगा । जो लोग इस रोग से कष्ट पा रहे हैं , वे भी यदि इस नियम के अनुसार रोज भोजन करें तो खाए पदार्थ पच जायेगें और धीरे -धीरे उनका रोग दूर हो जायगा । भोजन के बाद थोडी देर बायीं करवट सोना चाहिये । जिन्हें समय न हो उन्हें ऐसा उपाय करना चाहिये कि जिससे भोजन के बाद दस -पंद्रह मिनट तक दाहिनी नाक से श्वास चले अर्थात् पूर्वोक्त नियम के अनुसार रुई द्वारा बायीं नाक बंद कर देनी चाहिये । गुरुपाक (भारी ) भोजन होने पर भी इस नियम से वह शीघ्र पच जाता है ।
यौगिक उपाय
स्थिरता के साथ बैठकर एकटक नाभिमण्डल में दृष्टि जमाकर नाभिकन्द का ध्यान करने से एक सप्ताह में उदरामय रोग दूर हो जाता है । श्वास रोककर नाभि को खींचकर नाभि की ग्रन्थि को एक सौ बार मेरुदण्ड से मिलाने से आमादि उदरामयजनित सब तरह की पीडाएँ दूर हो जाती हैं और जठराग्नि तथा पाचनशक्ति बढ जाती है ।
१ . प्लीहा --- रात को बिछौने पर सोकर और सबेरे शय्या -त्याग के समय हाथ और पैरों को सिकोडकर छोड देना चाहिये । फिर कभी इस करवट कभी उस करवट टेढा -मेढा शरीर करके सारे शरीर को सिकोडना और फैलाना चाहिये । प्रतिदिन चार -पाँच मिनट ऐसा करने से प्लीहा -यकृत् (तिल्ली , लीवर ) रोग दूर हो जायगा । सर्वदा इसका अभ्यास करने से प्लीहा -यकृत् रोग की पीडा कभी नहीं भोगनी पडेगी ।
२ . दन्तरोग --- प्रतिदिन जितनी बार मल -मूत्र का त्याग करे , उतनी बार दाँतो की दोनों पंक्तियों को मिलाकर जरा जोर से दबाये रखे । जब तक मल या मूत्र निकलता रहे तब तक दाँतो से दाँत मिलाकर इस प्रकार दबाये रहना चाहिये । दो -चार दिन ऐसा करने से कमजोर दाँतो की जड मजबूत हो जायगी । सदा इसका अभ्यास करने से दन्तमूल दृढ हो जाता है और दाँत दीर्घ कल तक देते हैं तथा दाँतो में किसी प्रकार की बीमारी होने का कोई डर नहीं रहता ।
३ . स्नायविक वेदना --- छाती , पीठ या बगल में ---चाहे जिस स्थान में स्नायविक वेदना या अन्य किसी प्रकार की वेदना हो , वेदना मालूम होते ही जिस नासिका से श्वास चलता हो उसे बंद कर देना चाहिये , दो -चार मिनट बाद अवश्य ही वेदना शान्त हो जायगी ।
४ . दमा या श्वासरोग --- जब दमें का जोर का दौरा हो तब जिस नासिका से निःश्वास चलता हो , उसे बंद करके दूसरी नासिका से श्वास चला देना चाहिये । दस -पंद्रह मिनट में दमे का जोर कम हो जायगा । प्रतिदिन इस प्रकार करने से महीने भर में पीडा शान्त हो जायेगी । दिन में जितने ही अधिक समय तक यह क्रिया की जायगी , उतना ही शीघ्र रह रोग होगा । दमा के समान कष्टदायक कोई रोग नहीं , दमा का जोर होने पर यह क्रिया करने से बिना किसी दवा के बीमारी अच्छी हो जाती है ।
५ . वात --- प्रतिदिन भोजन के बाद कंघी से सिर वाहना चाहिये । कंघी इस प्रकार चलानी चाहिये जिसमें उसके काँटे सिर को स्पर्श करें । उसके बाद वीरासन लगाकर अर्थात् दोनों पैर पीछे की ओर मोडकर उनके ऊपर दबाकर १५ मिनट बैठना चाहिये । प्रतिदिन दोनों समय भोजन के बाद इस प्रकार बैठने से कितना भी पुराना वात क्यों न हो , निश्चय ही अच्छा हो जायगा । अगर स्वस्थ आदमी इस नियम का पालन करे तो उसके वातरोग होने की कोई आशङ्का नहीं रहेगी । कहना न होगा कि रबड की कंघी का व्यवहार नहीम करना चाहिये ।
६ . नेत्ररोग --- प्रतिदिन सबेरे बिछौने से उठते ही सबसे पहले मुँह में जितना पानी भरा जा सके , उतना भरकर दूसरे जल से आँखो को बीस बार झपटा मारकर धोना चाहिये । प्रतिदिन दोनों समय भोजन के बाद हाथ -मुँह धोते समय कम -से -कम सात बार आँखो में जल का झपटा देना चाहिये । जितनी बार मुँह में जल डाले , उतनी बार आँखे और मुँह को धोना न भूले । प्रतिदिन स्नान के वक्त तेल मालिश करते समय सबसे पहले दोनों पैरों के अँगूठों के नखों को तेल से भर देना चाहिये और फिर तेल लगाना चाहिये ।
ये कुछ नियम नेत्रों के लिये विशेष लाभदायक हैं । दृष्टिशक्ति सतेज होती है । आँखे स्निग्ध रहती है और आँखों में कोई बीमारी होने की सम्भावना नहीं रहती । नेत्र मनुष्य के परम धन हैं । अतएव प्रतिदिन नियम -पालन में कभी आलस्य नहीं करना चाहिये ।