शरीर को बड़ा करने का साधन , अपने में कृष्णभाव का साधन , नेत्रों के द्वारा आकर्षण , काले सांप का दर्शन , रण में होने वाले क्षोभ ( चाञ्चल्य ) का निवारण , अपनी पञ्चेन्द्रियों का निरोध , योगविद्यासाधन , भक्षप्रस्थ निरुपण , योगसिद्धि के लिये अत्यावश्यक चान्द्रायण व्रत का प्रकार आदि , हे शङ्कर ! सुनिये ॥८० - ८२॥
हे शिव ! यामल के रहते कोई ऐसा नहीं कह सकता कि इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र जो जो वस्तुएं हैं वे उन्हें दुर्लभ हैं । इसीलिये जो लोग बालकों से अथवा मन्त्र के द्वारा मेरे मुखकमल से निःसृत इस महातन्त्र यामल का अभ्यास करते हैं , वे धन्य हैं । क्योंकि यह यामल अतिगुह्म है , महागुह्य है , शब्द से भी गुह्य है तथा संशय रहित है । यह अनेक सिद्धि समूहों का समुद्र है , योगमय है एवं शुभावह है और यह समूचे शास्त्र समूहों का सार है । यह अनेक मन्त्रमय है , सबका प्रिय है और वाराणसीपुर के अधिपति सदाशिव को सर्वदा आमोदप्रद एवं सुखावह है ॥८३ - ८६॥
इस रुद्रयामल तन्त्र की देवता साक्षात सरस्वती हैं जिसे शिखर पर काली गणों के मध्य में वरण किया गया है । यही महामोक्ष है , मोक्ष का द्वार है और सभी प्रकार के सङ्केत से शोभित है । वाञ्छाकल्पद्रुम है शिव संस्कार से संस्कृत तन्त्र है । इस तन्त्र का क्रिया सार प्रकाशित करने लायक नहीं है । यह सहस्त्र स्तुतियों से सुशोभित है । इसमें अष्टोत्तरशतनाम तथा अत्यन्त मङ्गलकारी सहस्त्रनाम हैं । इसमें अनेक प्रकार के द्रव्यादिसाधनों एवं नाना प्रकार के अञ्जनों का वर्णन है ॥८७ - ८९॥
इसमें काली का प्रत्यक्ष करने का उपाय कहा गया है । छः ऐश्वर्यमय काली के संपुट से यह युक्त है । यह बहुत बडा़ चमत्कार उत्पन्न करने वाला है तथा जगत् की स्थिति , संहार एवं पालन करने वाला है । इसके अट्ठारह भेद हैं जो छः प्रकारों के ( ऐश्वर्यादि ) का सौख्य प्रदान करने वाले हैं । अतः हे महाकाल ! कलि काल में परमपवित्र इस यामल को जो जानते हैं , निःसन्देह उनके हाथ में ब्रह्म से लेकरा स्तम्बपर्यन्त समस्त ब्रह्माण्ड है ॥९० - ९२॥
अब मैं निगम और आगमशास्त्रों में मङ्गल रूप उस यामल के भेदों को कहता हूँ जिसके करने से साधक साक्षाद् रुद्र रुप हो जाता है तथा नाना प्रकार के तन्त्रों के अर्थों में पारङ्गत हो जाता है ॥९२ - ९३॥
यामल के य , म और ल का अर्थ --- कुल तन्त्राभिसाधनरूप यह कर्म य एवं म अर्थात् यामिनी ( रात्रि ) में विहित है और महावीरों का हितकारी है क्योंकि यह पाँचों तत्त्वों का स्वरुप है । हे नाथ ! इस तन्त्र में अत्यन्त गोपनीय मर्यादा का ल अर्थात् लघंन नहीं हुआ है । इसीलिये हे चन्द्रशेखर ! हे शङ्कर ! इसे यामल कहते है । यह रुद्र का साक्षात् नेत्र है । मन को अत्यन्त संतोष प्रदान करता है अन्ततः यह सैकड़ों यज्ञों के फल को प्रदान करने वाला है , इसीलिये इसे यामल कहते है ॥९३ - ९६॥
विमर्श --- यामिनी का अर्थ है संयमी जैसा कि गीता में कहा है ---‘ या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
इस यामलतन्त्र में रुरु आदि अष्टभैरवों के साधन , ब्राह्मी देवी के साधन , जाम्बूनदसाधन , लताकोटिसाधन , हेमदा साधन , मनसादेवी साधन , लंकालक्ष्मी साधन एवं देवताओं के कवच तथा अनेक देवों के ध्यान और व्रत , कलिकाल में सद्यः फल देने वाले अन्तर्याग का विधान है और ( जहाँ जहाँ भी भ्रान्ति है उसे दूर करने के लिये ) प्रकाश पुञ्ज के समान प्रायश्चित्त के वर्णन से शोभित है ॥९६ - ९९॥