प्रथम पटल - विविध साधनानि ६

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


रुद्रयामल की फलश्रुति --- इस प्रकार तीस पटलों ( के त्रय अर्थात ‍ ९० ? ) से व्याप्त इस रुद्रयामल को जो निरन्तर पढ़ते हैं उन्हें अवश्य सिद्धि होती है , अतः कर्मणा , मनसा तथा वाचा जो साधक इस लोक मण्डल में सम्पूर्ण तन्त्र से युक्त तथ भगवान ‍ विष्णु के कर कमलों से निवेषित महातन्त्र के साधन को अच्छी प्रकार से जानकर करता है वह इस जगत में समस्त तन्त्रों से युक्त साधक एक मास में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है इसमें संशय नहीं है । अनेकानेक अङ्कमण्डलों से युक्त अनेक चक्रों के माहात्म्य भी इस रुद्रयामल तन्त्र में वर्णित हैं । सर्वज्ञ सैकड़ों सिद्धियों से युक्ता तथा समस्त कालीकुल आलय है ॥१०१ - १०३॥

मध्याहनकालीन प्रखर सूर्य के समान तेजस्वी , वनमाला से विभूषित , कालकूट नामक विष का भक्षण करने वाले , देदीप्यमान परमहंस प्रभु महेश्वर का सर्वप्रथम ध्यान और पूजन कर उन्हें नमस्कार करना चाहिये । उदीयकालीन अरुणके समान , रक्तवर्ण वाले रत्नालङ्कारों से विभूषित वरदाता वारुणी से मत्त मैं उन परहंस को नमस्कार करता हूँ ॥१०३ - १०४॥

भैरव ने कहा --- हे देवि ! यदि कोई साधक सब का कल्याण करने वाले इस यामल तन्त्र का अध्ययन न किया हो तो वह किस प्रकार से सिद्धि का अधिकारी बन सकता है ? अथवा कुछ बुद्धिहीन , मेधाहीन जन हों , मन्दभाग्य , धूर्त्त , मूर्ख एवं सब प्रकार की आपत्तियों से ग्रस्त हों तो वे किस प्रकार सिद्धि प्राप्त करें ? ॥१०५ - १०७॥

हे देवि ! आप उनके ऊपर दया कर मुझसे साधन कहिए । इस प्रकार के मूर्खों को , हीन आचरण वालों को , शास्त्रों के अर्थ की जानकरी न रखने वालों को किस प्रकार द्वैतरहित निर्मल ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है ? आप लोकोपकार के लिये मेरे ऊपर अपना स्नेह प्रदर्शित करते हुये उसका उपाय कहिए ॥१०७ - १०८॥

भैरवी ने कहा --- हे जगन्नाथ ! जो इस शरीर को पाकर प्रतिदिन अपने कर्मसूत्र का उच्छेद कर देता है वह हमारे चरणाम्बुज के दर्शन का अधिकारी हो जाता है । संसार के आवेशों के संस्कार से जितनी बुद्धि भिन्न भिन्न क्रियाओं मे निरन्तर संलग्न है , ऐसे अनेक उत्कट कार्यों के उलझन में फंसे हुये लोग मुझे नहीं जान सकते ॥१०९ - ११०॥

ऐसे ही लोंगो के शरीर को भयानक कालदूत पकड कर ले जाता है । जो त्यागयुक्त सन्यास धर्म का पालन करते हुते महायोग का आचरण करता है वह अभागा मुझे छोड़कर पशुयोनि को प्राप्त करता है । मुझ में भाव ( प्रेम ) रखने वाला , ( और सभी के आँखों का तार ) ऐसा मनुष्य सर्वथा दुर्यभ है ॥१११ - ११२॥

भाव प्रशंसा --- यतः भाव से सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है । भाव से साक्षात् ‍ देव का दर्शन प्राप्त होता है । भाव से ही ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है । इसलिये भाव का सहरा लेना चाहिये ॥११३॥

सभी शास्त्रों का भाव अत्यन्त गूढ़ है । भाव सब के इन्द्रियों में विद्यमान रहता है । जब सभी का मूलभूत ’ देवी ’ भाव ( प्रेम ) हो जाता है , तभी ध्यान में दृढ़ता आती है और तभी सारी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं ॥११४ - ११५॥

जब मेरा भाव प्राप्त होने लगता है तो मनुष्य निष्पाप हो जाता है । आहार रहित हो जाता है और अपने मन में मेरे निवास की कामना को धारण करने लग जाता है । उसमें नित्यस्नान तथा पूजा के सभी अङ्ग अनायास होने लगते हैं वह क्रिया दक्ष , महाशिक्षा में निपुण , जितेद्निय एवं सभी शास्त्रों के निगूढ़ अर्थ का विद्वान ‍ और न्यास से रहित हो जाता हैं --- ऐसे लक्षण वाले लोगों को ही मेरे भाव हस्तगत होते हैं , इस प्रकार समझना चाहिए मानो ये भाव उनके शरीर में ही प्रविष्ट हैं ॥११५ - ११७॥

मेरे जिस भाव के उदय होने से मेरा अनुग्रह प्राप्त होता है उस भाव से बढ़ कर कुछ नहीं है क्योंकि मेरा अनुग्रह होने से जीव सुखी हो जाता है ॥११८॥

सुख प्राप्त होने पर पुण्य का प्रभाव जाना जाता है , पुण्याधिक्य से भगवान् ‍ अच्युत के दर्शन होते हैं । जब पुण्य का साक्षात्कार होता है तब ( विष्णु के मुख रुप ) अम्भोज का दर्शन और मङ्गल की प्राप्ति होने लगती है । वह योगी हो कर भी योगियों से भी अदृश्य रहता है और महाविद्या के परम पवित्र चरणकमलों का दर्शन करता है ॥११९ - १२०॥

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Last Updated : July 28, 2011

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