भक्तिविवेचन --- एक बात और यह है कि पशुभाव में स्थित होने पर शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है । गुरु के श्री चरणकमलों में जिसकी दृढ़ भक्ति होती है वही भाव मात्र के उपलक्षण से युक्त हो कर अपनी कामनाओं का त्याग कर सकता है । वीर भाव तो बहुत बडा़ भाव है । यह भाव दुष्टों में नहीं आता । भाव की गति मन्द , है , सूक्ष्म है और रुद्रमूर्त्ति के रुप से लोक में प्रसिद्ध है । यह आचार भ्रष्ट ( नियमपूर्वक पूजा अर्चना न करना ) तथा महागूढ़ है किन्तु त्रैलोक्य का मङ्रल करता है और शुभ है ॥१४० - १४२॥
पञ्चतत्त्वादि की सिद्धि के लिये महामोह के मद से उत्पन्न , सर्वपीठकुलाचार तथा बलात् प्राप्त आनन्दसागर रूप वीरसाधन में केवल भक्ति ही मुख्य साधन है । पशुभाव में ज्ञान प्राप्त होने पर उसके बाद वीराचार का आचरण कहा गया है । वीराचार से साधक रुद्र हो जाता है । अन्यथा कभी नहीं , कभी नहीं ॥१४३ - १४५॥
दिव्यभावविवेचनम् --- दो भाव ( पशुभाव औरा वीरभाव ) में स्थित मन्त्रज्ञ दिव्यभाव पर विचार करे । हे कुलेश्वर ! साधक सदैव पवित्र रह कर बडी़ सावधानी से देवताओं की प्रीति के लिये सम्पूर्ण कर्म करते हुये दिव्यभाव का आचरण करे । इससे शुभ धर्मोदय तो होता ही है , जितनी जितनी सिद्धियाँ हैं वे सभी सिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती हैं । देवता को क्रिया में लगे रहने से देवतुल्य भाव का उदय होता है ॥१४५ - १४७॥
जब देवताभाव का उदय होता है तो वह दिव्यभाव का भाजन हो जाता है , ऐसा जानना चाहिए । सभी भाव समूहों में शक्ति ही मूल है इसमें संशय नहीं । यदि शक्ति न हो तो उत्तम साधक भला किस प्रकार भक्ति प्राप्त कर सकता है । अतः अपने कार्य के अनुशासन से देवशरीर का ज्ञान कर दिव्यभाव प्राप्त करना चाहिए ॥१४८ - १४९॥
आगमसागर से उत्पन्न ज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है -
( १ ) ज्ञान मार्ग से शब्दब्रह्ममय विज्ञान का दर्शन होता है ।
( २ ) स्वकर्म वाले अयनों अर्थात् भागों को तथा समस्त शास्त्रों को पढ़ कर विवेक के सहारे साधक नित्यज्ञानी बन जाता है ।
( ३ ) विवेक से उत्पन्न ज्ञान शिव विषयक ज्ञान को प्रकाशित करता है । वह शिव ज्ञान द्वैत से हीन और बाह्मभाव से रहित है । वह लोक से परे सर्वथा निर्मुक्त है । उसमें काल और अकाल दोनों समाहित हो जाते हैं ऐसा नित्य ज्ञान सर्वश्रेष्ठ समझो क्योंकि वह केवल प्राणवायु से गोचर होता है ॥१५० - १५३॥