भैरवी उवाच
भैरवी ने कहा --- हे सर्वज्ञ ! हे परमानन्द ! हे दयामय ! हे भयङ्कर ! अब मैं इसके बाद सर्वदर्शन की विद्या से युक्त कुलाचार की विधि कहती हूँ । हे शम्भो ! उसे सावधान चित्त हो कर श्रवण कीजिए । हे प्रभो ! सर्वप्रथम पशुभाव के व्रत में विघ्न पड़ने पर जिस विधान का पालन करना चाहिए उसे सुनिए ॥१ - २॥
कुलाचारविधि --- नियम के भङ्ग में , नित्यकर्म में तथा नित्य पूजा में बाधा पड़ने पर मन्त्रज्ञ साधक को व्रत दोष की शान्ति के लिए एक सहस्त्र जप करना चाहिए ऐसे नित्य श्राद्ध सन्ध्यावन्दत पितृ तर्पण देवता दर्शन पीठदर्शन , तीर्थदर्शन , गुरु की अज्ञा का पालन , इष्टदेव का नित्य पूजन करने वाला पशुभाव में स्थित मनुष्य निश्चय ही महासिद्धि प्राप्त करता है ॥३ - ५॥
पशुओं के लिए प्रथम पशुभाव , वीरों के लिए वीरभाव तथा दिव्य साधकों के लिए दिव्यभाव इस प्रकार तीन भाव कहे गए हैं । जो साधक स्वकुलाचार से हीन किन्तु स्थिर चित्त है वह शीघ्र ही कुलाचार के प्रभाव से निष्फल अर्थ वाला हो जाता है ॥६ - ७॥
भैरव ने कहा --- हे कमलमुखि ! हे कुलकामिनि ! पशुभाव में स्थित मनुष्य को किस प्रकार भगवती के चरण कमलों का दर्शन प्राप्त होता है ? यदि आपके प्रति मेरी दृढ़ भक्ति तथा मेरे प्रति आपका स्नेह है तो उसका प्रकार अर्थात् उसकी विधि विस्तारपूर्वक मुझसे कहिए ॥८ - ९॥
पशुभाव --- महाभैरवी ने कहा --- प्रातः काल में उठने पर अरुणोदयकाल से पूर्व ८ दण्ड रात्रिपर्यन्त पशुभाव का समय कहा गया है । प्रातःकालिक नित्य क्रिया के पश्चात् पशुभाव में संस्थित साधक पुनः शय्या पर बैठकर अपने शिरःकमल में स्थित सहस्त्रार दल में अपने गुरु का इस प्रकार ध्यान करे ॥१० - ११॥
गुरुध्यान --- मध्याहन कालीन सूर्य के समान तेजो बिम्ब वाले , महा महिमा के सागर , अपने मस्तक पर चन्द्रमा को धारण किए हुए महागुरु शङ्कर का ध्यान करे । अत्यन्त स्वच्छ , देदीप्यमान अङ्र वाले , दो नेत्र तथा दो भुजाओं वाले , सर्वव्यापक , आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करने में अद्वितीय , महातेजस्वी शुक्लाम्बर विभूषित गुरु का ध्यान करे ॥१२ - १३॥
आज्ञाचक्र से ऊपर विराजमान , जगत् के मुख्य कारण , धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष इस प्रकार पुरुषार्थ चतुष्टय रुप अङ्ग वाले , हाथ में वर और अभयमुद्रा धारण करने वाले श्री गुरु का ध्यान करे ॥१४॥
विकसित कमल पर आरूढ़ , सर्वज्ञ , जगदीश्वर , अन्तः प्रकाश से देदीप्यमान वनमाला से विभूषित , रत्ननिर्मित अलङ्कार से भूषित इस प्रकार के देवाधिदेव गुरु का सदा भजन करे । तदनन्तर अन्तर्याग क्रम ( मानसोपचारों ) से कमल पुष्पों द्वारा उनकी अर्चना करे ॥१५ - १६॥
फिर अपने आयु और आरोग्य़ की वृद्धि के लिए एकमना भक्ति युक्त हो कर उन्हें प्रणाम करे । इसके बाद आद्यन्त प्रणत लगाकर मध्य में वाग्भव ( ऐं ), फिर गुरु का नाम , फिर आनन्दनाथ शब्द के अन्त में गुरु शब्द की चतुर्थी , तदनन्तर ’ नमः ’ शब्द लगाकर सर्वसिद्धि प्रणव का उच्चाराण करे । इस प्रकार महान सिद्धि देने वाले गुरु मन्त्र का जप करने से साधक संपूर्ण सिद्धियों का स्वामी बन जाता है ॥१७ - १९॥
इस गुरुमन्त्र के जप के प्रभाव से साधक के मुख कमल में वाक्सिद्धि हो जाती है । उसकी विधि इस प्रकार है , नित्य १०८ बार अथवा १००८ बार इस मन्त्र का जप कर गुरु को जप निनेदित कर । फिर वाग्भव ( ऐं ) मन्त्र से प्राणायाम में कही गई विधि के अनुसार तीन प्राणायाम करे । तदानन्तर इस प्रकार प्रार्थना करे -
चराचर में व्याप्त रहने वाले और अखण्ड मण्डल स्वरूप वाले ( जो ब्रह्म है उस ) तत्पद ( ब्रह्म ) के स्थान का जिसने दर्शन कराया उन श्री गुरु को हमारा नमस्कार है ॥२० - २२॥
जिन्होने अपनी ज्ञानाञ्जन की शलाका से अज्ञान रुपी अन्धकार से अन्धे लोगों के चक्षु में प्रकाश दे कर उसे खोल दिया है उन गुरु को नमस्कार है । जो देवता के दर्शन में एक मात्र कारण तथा करुणा के निधान हैं , सब प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाले उन श्री गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ ॥२३ - २४॥
अपने हाथों में वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए , श्वेत पद्मासन पर आसीन तथा महाभय ( अहङ्कार ) का विनाश करने वाले एवं नित्य ऐसे गुरुदेव लो मैं नमस्कार करता हूँ । जिनका एक एक श्री अङ्ग महान् ज्ञान से आच्छादित है , जो मात्र आकृति से ही मनुष्य हैं , न केवल वरदाता किन्तु चतुवर्ग के भी प्रदाता हैं ॥२५ - २६॥
स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारों में विद्यमान , सदानन्दमय , नित्यानन्द , निरञ्जन , शुद्ध सत्त्व गुण से युक्त साधकों के लिए सर्वत्र और नित्य काल अर्थात् कुलेश्वर हैं । ब्रह्मरन्ध्र महामद्म में योगियों के द्वारा ध्यानगम्य , अत्यन्त निराकुल , तेजोबिम्ब स्वरूप श्वेताकार महा पद्मरूप शुक्ल चक्र जिसमें सहस्त्रदल है उसकी कर्णिका के मध्य भाग में विराजित महाशुक्ल , भासमान , करोड़ों सूर्य के समान प्रभा वाले , स्वच्छ पीठ पर आसीन , परात्पर वेदोद्धारकर्ता , नित्यस्वरूप , काम्य कर्मों का फल देने वाले , परमहंस स्वरूप , जिनके दोनों चरण कमल मन की शक्ति तथा माया के विलय के स्थान हैं तथा जिनका मुख शरच्चन्द्रिका के रशिमजाल समूहों वाले करोडों चन्द्रविम्बों के समान हैं ॥२६ - ३१॥