मन्त्रदीक्षा विचार --- भैरवी ने कहा --- हे प्रभो ! यदि भाग्यवश महाविद्या का अथवा त्रिशक्ति का सिद्ध मन्त्र कहीं से मिल जाय तो उस कुल से निश्चित रूप से उस मन्त्र को ग्रहण कर लेना चाहिए । पिता और मातामह को छोड़कर सर्वत्र गुरु का विचार करना चाहिए । प्रमाद से अथवा अज्ञान से बिना विचारे गुरु से मन्त्र लेने वाला प्रायश्चित्त कर पुनः दीक्षा ग्रहण करें ॥९४ - ९६॥
सावित्री मन्त्र का एक लाख जप करे , अथवा जगत्पति विष्णु के मन्त्र का १ लाख जप करे अथवा प्रणव का १ लाख जप करे । यही उसका प्रायश्चित्त हैं । हे महादेव ! यदि इतने जप करने की सामर्थ्य न हो तो १० हजार मन्त्र गायत्री का जप कर लेवे । क्योंकि दश सहस्त्र मात्र जपी गई गायत्री सभी कल्मषों को नष्ट कर देने वाली है ॥९६ - ९७॥
गायत्री सभी छन्दों की जननी हैं । यह पापराशिरूपी रुई को जलाने के लिए अग्नि हैं । किं बहुना , मेरी देदीप्यमान मूर्ति हैं , उनमें पशुभाव ( जीवभाव ) नहीं हैं । फलोदभव प्रकरण रुप निशा में ब्रह्मदेव गायत्री का पाठ करते हैं । हे देव ! यदि भाग्यवश सिद्धमन्त्र और गुरु मिल जावें तो उसी समय अष्ट ऐश्वैर्य की प्राप्ति के लिए उनसे गायत्री की दीक्षा ले लेनी चाहिए ॥९७ - १००॥
ऐसे तो पिता के द्वारा प्रदत्त मन्त्र निर्बीज होता है , किन्तु शिव मन्त्र और शाक्त मन्त्र में वह दोषप्रद नहीं होता । अतः कुलीन तथा कुलपण्डितों को ज्येष्ठ पुत्रा के लिए उसे देने में कोई बाधा नहीं है । कुलीन इन्द्रियों का दमन करने वाले शिष्य को कुलेश्वर महामन्त्र देने से उसी समय मुक्ति प्राप्त हो जाती है यह सत्य है यह सत्य है इसमें संशय नहीं ॥१०१ - १०२॥
कनिष्ठ पुत्र , शत्रु - सहोदर , बैरी के पक्ष में रहने वाला , मातामह ( नाना ), पिता , यति , वनवासी , आश्रमधर्मरहित , दुष्ट का साथ करने वाले , अपने कुल ( शाक्त सम्प्रदाय ) का त्याग करने वाले इतने को छोड़कर अन्य शिष्यों को दीक्षा प्रदान करना चाहिए ॥१०३ - १०४॥
अन्यथा विरोधी को मन्त्र देने से कामना और भोग दोनों का ही नाश होता है । हे भैरव ! मेरा तो विचार है कि सिद्धमन्त्र दुष्कुल में उत्पन्न लोगों से भी ग्रहण कर लेना चाहिए । ( भक्ति ) भावना वाले , प्रच्छन्नरूप वाले अथवा माङ्रलिक रुप धारण करने वाले सदगुरु से दीक्षा लेने वाला अष्टैश्वर्य पर विजय प्राप्त कर लेता है ॥१०५ - १०६॥
स्वप्न में मन्त्र की प्राप्ति होने पर गुरु और शिष्य का कोई नियम नहीं रहता । स्वप्न में अथवा स्त्री के द्वारा प्राप्त मन्त्र संस्कार से ही शुद्ध हो जाते हैं ॥१०७॥
साध्वी , सदाचार संपन्ना , गुरुभक्ता , इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाली , सभी मन्त्रों के अर्थतत्त्व को जानने वाली , सुशीला , पूजा में निरत , सर्वलक्षण संयुक्त , जप करने वाली , कमलनयना , रत्नालङ्कार संयुक्ता सुन्दरी को भुवमोहिनी , शान्ता , कुलीना , कुलजा , चन्द्रमुखी , सर्ववृद्धि वाली , अनन्तगुणसम्पन्ना , रुद्रत्व प्रदान करने वाली प्रिया , गुरुरुपा , मुक्तिदात्री तथा शिवज्ञान क निरुपण करने वाली स्त्री भी गुरु बनाने के योग्य़ है , किन्तु विधवा परिवर्जित है ॥१०८ - १११॥
स्त्री से ली गई दीक्षा शुभावह होती है । उसके दिये गये मन्त्र में भी आठ गुनी शक्ति आती है । पुत्रिणी विधवा से भी मन्त्रदीक्षा ली जा सकती है । किन्तु पुत्रपतिहीना विधवा की दीक्षा ऋणकारिणी होती है । यदि सिद्धि मन्त्र हो तो विधवा के मुख से भी उसे ले लेना चाहिए । उससे केवल सुफल प्राप्त होता है । किन्तु माता से ली गई मन्त्रदीक्षा आठ गुना फलदायिनी होती है ॥११२ - ११३॥
पुत्रवती और सती सधवा यदि अपनी इच्छा से सिद्धमन्त्र प्रदान करे तो भी अष्टगुण फल होता है । यदि माता ( गुरु परम्परा से प्राप्त ) स्वकीय मन्त्र अपने पुत्र को प्रदान करे तो उस पुत्र को आठों सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । भक्ति मार्ग में संशय नहीं करना चाहिए । हे देव ! माता अपने पुत्र को मन्त्र दीक्षा दे यह समय तो बहुत दुर्लभ है ॥११४ - ११६॥
प्रथम भक्ति उसके बादा मुक्त प्राप्त कर ( इस प्रकार काल के अनुसार वेष बनाने वाला ) साधक सहस्त्र करोड़ विद्या के अर्थ को जान लेता हैं इसमें संशय नहीं । यदि माता स्वप्न में शुद्ध मन्त्र प्रदान करें । ऐसा साधक यदि पुनः किसी अन्य से दीक्षा ग्रहण करे तो वह दानवत्व प्राप्त करता है ॥११६ - ११८॥
यदि भाग्यवश माता ही मन्त्र देने के लिए उद्यत हो तो भी साधक को सिद्धि प्राप्त हो जाती है , उस समय केवल मन्त्र का विचार करना चाहिए । यदि श्री ललिता , काली अथवा महाविद्या के महामन्त्र का कोई स्वयं उपदेश कर दे तो गुरु का विचार नहीं करना चाहिए । ( स्वयं उपदिष्ट ) वह पुरुष सर्व प्रकार की सिद्धियों से युक्त हो कर एक संवत्सर में उनका दर्शन प्राप्त कर लेता है ॥११८ - १२०॥
महाविद्या की साधना में काली कल्पलता की देवी हैं । अतः जिन्हें अपने गुरु के वचन पर विश्वास है , उन्हें उनके मन्त्र में गुरु की चिन्ता नहीं करनी चाहिए । यदि उत्तम साधक विचार कर शीघ्रतापूर्वक मन्त्र ग्रहण करता है तो अनन्त कोटि पुण्य का उसे द्विगुणित फल प्राप्त होता है यह निश्चय है ॥१२१ - १२२॥
जो साधक वक्ष्यमाण चक्रसार का विचार कर मन्त्र ग्रहण करता है , वह सैकड़ों जन्मपर्यन्त श्री वैकुण्ठनगर में निवास करता है ॥१२३॥
महादेव आनन्दभैरव ने महादेवी के द्वारा कहे गए इस वाणी को सुन कर आनन्द से पुलकित एवं उल्लसित शरीर होकर , अपना चक्र एवं वरमुद्रा से संयुक्त हाथ भगवती के सामने बढा़ते हुए धर्म , अर्थ , काम , मोक्षरुप पुरुषार्थ चतुष्टय प्रदान करने वाले तथा अत्यन्त अदभुत फल देने वाले षोडश चक्र का माहात्म्य जानने के लिए भैरवी से कहा ॥१२४ - १२५॥