द्वितीय पटल - शिष्यलक्षण

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


स्वर्ण विक्रयी , चोर , मूर्ख , अत्यन्त तुच्छ , काले दाँत वाले , कुलाचार से रहित तथा शान्तिवर्जित एवं चञ्चल पुरुष को गुरु न बनावे । पाणी , नेत्ररोग से पीड़ित , परदारगामी , संस्कार रहित वाणी बोलने वाला , स्त्री के वश में रहने वाला एवं ( छः अंगुली आदि अधिक अङ्र वाले को गुरु न बनावे ॥६० - ६१॥

कपटात्मा , हिंसक , बहुत एवं व्यर्थ बोलने वाले , बहुत भोजन करने वाले , कृपण तथा झूठ बोलने वाले को गुरु नहीं बनावे । अशान्त , भावहीन , पञ्चाचार विवर्जित एवं दोषों से परिपूर्ण अङ्ग वाले गुरु की पूजा न करे ( किन्तु पिता की पूजा करे ) ॥६२ - ६३॥

गुरु में मनुष्य बुद्धि , मन्त्र में लिपि की भावना तथा प्रतिमा में पत्थर की भावना करने वाला साधक रौरव नरक में जाता है । यतः माता पिता जन्म देने में हेतु है , अतः प्रयत्नपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए । गुरु की विशेष रूप से इसलिए पूजा करनी चाहिए क्योंकि वे धर्म और अर्धम के प्रदर्शक हैं ॥६४ - ६५॥

गुरु पिता है , गुरु माता हैं , गुरु देवता हैं , गुरु ही गति हैं । शिव के रुष्ट होने पर गुरु रक्षा कर सकते हैं । किन्तु गुरु के रुष्ट होने पर कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है । शिष्य को वाणी , मन , काय तथा कर्म के द्वारा अपने गुरु का हित संपादन करना चाहिए । गुरु का अहित करने से शिष्य को विष्टा का कृमि बनना पड़ता है ॥६६ - ६७॥

मन्त्र के त्याग से मृत्यु होती है , गुरु के त्याग से दरिद्रता आती है , गुरु और मन्त्र दोनों के त्याग से रौरव नरक में जाना पड़ता है । गुरु के सन्निहित रहने पर जो अन्य देवता का पूजन करता है , उसकी पूजा निष्फल होती है और उसे घोर नरक में जाना पड़ता है ॥६८ - ६९॥

गुरुपुत्र में गुरुवद् ‍ बुद्धि रखे । इसी प्रकार उनकी कन्याओं में भी गुरु के समान् ‍ बुद्धि रखनी चाहिए । गुरु चाहे विद्या रहित हो अथवा सविद्य हो गुरु ही देवता है ऐसा समझना चाहिए । गुरु चाहे विमार्गगामी हो , चाहे मार्गगामी हो , गुरु में देवता बुद्धि रखनी चाहिए । जन्म देने वाले पिता तथा वेदज्ञान का उपदेश करने वाले पिता इन दोनों में ज्ञान देने वाले पिता रुप गुरु सर्वश्रेष्ठ कहे गए हैं ॥७० - ७१॥

इसलिए गुरु को अपने पिता से भी अधिक सम्मान देना चाहिए । शिष्य को यह सोंचना चाहिए कि शास्त्र में , मन्त्र में तथा कुलाकुल ( कुण्डलिनी के उत्थान ) में मैं सर्वदा अपने गुरुदेव के वश में हूँ ॥७२॥

भैरवी ने कहा --- हे नाथ ! गुरु के चरण कमलों की सेवा करने वाला मनुष्य विद्या का अधिकारी होता है , क्योंकि गुरु , माता , पिता , स्वामी , बान्धव , सुहृद् ‍ एवं शिव स्वरूप हैं । इस प्रकार का विचार कर शिष्य को चाहिए कि वह सर्वात्मना अपने गुरु की सेवा करे और उसे सोंचना चाहिए कि स्थूल एवं शुक्ल मणि की प्रभा वाले गुरु ही एकमात्र परब्रह्म हैं ॥७३ - ७४॥

सभी कर्मों के नियन्ता गुरु को अपनी आत्मा में स्थान देना चाहिए । सभी भावों में गुरु विषयक भावना सर्वश्रेष्ठ भावना है - इसमें संशय नहीं । गुरु की आज्ञा में संशय नहीं करना चाहिए । उसमें संशय करने वाला विनष्ट हो जाता है । जो गुरु की आज्ञा का पालन संशय रहित हो कर करता है वह सर्वत्यागी पद तक पहुँच जाता हैं ॥७५ - ७६॥

गुरु की सेवा में निरत रहने वाला शिष्य एक मास के भीतर ( गुरु कृपा से ) खेचरत्व को प्राप्त कर लेता है , इसमें संशय नहीं । गुरु को चाहिए कि एक वर्ष पर्यन्त शिष्य को अपने आश्रय में रखकर उसकी परीक्षा करें । फिर उसके गुण और दोषों के लक्षण का एवं उसके शुभाशुभ का विचार कर उसे मन्त्र प्रदान करें ॥७७ - ७८॥

ऐसा न करने से विशिष्ट दोषों के कारण साधक की सिद्धि और पूजा का फल दोनों ही विनष्ट हो जाता है । कामी , कुटिल , लोकनिन्दित , झूठ बोलने वाले , उच्छृखंल स्वभाव वाले , सामर्थ्यहीन , बुद्धिहीन , शत्रुप्रिय , सदा पापप्रिय , विद्याशून्य , जडात्मक , कलियुग के कलह आदि के दोष से भरे हुए , वेद क्रिया से हीन , आश्रमाचार से वर्जित , अशुद्ध अन्तःकरण वाले , सर्वदा श्रद्धा से रहित , धैर्यहीन , क्रोधी , भ्रमयुक्त , असच्चरित्र , गुणरहित , परदारगामी , दिन रात बुरे विचारों में निरत , अभक्त , इधर की बात उधर एवं उधर की बात इधर करके कहने वाले और अनेक प्रकार की निन्दा से भरे हुए मनुष्य को कभी शिष्य न बनावे ॥७९ - ८३॥

हे सदाशिव ! गुरु यदि धन दान आदि के कारण ऐसे शिष्य का त्याग नहीं करता तो वह गुरु भी शिष्य ही के समान नारकी अथवा उससे भी विशिष्ट नरक का भागी होता है । इसा प्रकार के गुरु में शिष्य का पाप संक्रान्त हो जाता है जिससे उसकी सिद्धि क्षणमात्र में ही विनष्ट हो जाती है और अकस्मात् ‍ उसे नरक की प्राप्ति हो कर उसके किए गए सारे कार्य नष्ट हो जाते हैं ॥८४ - ८५॥

इसलिए गुरु चाहिए कि अच्छी तरहसे विचार कर शिष्य का संग्रह करे । अन्यथा शिष्य के दोष से गुरु को भी नरकगामी होना पड़ता है । पति अपनी स्त्री को दीक्षा न देवे । पिता अपनी कन्या को दीक्षित न करे और न पुत्र को ही दीक्षा दे । इसी प्रकार भाई भी भाई को दीक्षा न देवे ॥८६ - ८७॥

यदि पति सिद्धिमन्त्र वाला है तो वह पत्नी को दीक्षित कर सकता है । मन्त्र की शक्ति विद्यमान रहने के कारण वह भैरव है । इस कारण उस सिद्धि की पत्नी पुत्री नहीं हो सकती । मन्त्र के अक्षरों को देवता समझना चाहिए और देवता गुरु रूप हैं । इसलिए यदि अपना कल्याण चाहे तो मन्त्र , देवता और गुरु में भेद बुद्धि नहीं करनी चाहिए ॥८८ - ८९॥

यदि एक ग्राम में शिष्य और गुरु दोनों निवास करते हों तो शिष्य को चाहिए कि वह तीनों सन्ध्या में जा कर अपने गुरु को प्रणाम करें । यदि दोनों के निवास में १ क्रोश का अन्तर हो तो शिष्य को शक्ति के साथ नित्य प्रतिदिन प्रणाम करना चाहिए ॥८९ - ९०॥

यदि आधे योजन का अन्तर हो तो पाँचो पर्वों में प्रणाम करना चाहिए । यदि एक योजन से द्वादश योजन पर्यन्त दोनों के निवास में अन्तर हो तो दूर देश में रहने वाला शिष्य भक्ति से अपने गुरु के पास जा कर योजन संख्या के अनुसार उतने उतने मास में अपने गुरु को प्रणाम करे ॥९० - ९२॥

गुरु में भावना करने वाला ब्राह्मण एक वर्ष में शिष्यता की योग्यता प्राप्त कर लेता हैं , क्षत्रिय दो वर्ष में , वैश्य तीन वर्ष में और शूद्र चार वर्ष में शिष्यत्व की योग्यता प्राप्त कर लेता है - ऐसा कहा गया है ॥९२ - ९३॥


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Last Updated : July 28, 2011

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