स्वस्थ , अहङ्काररहित , ( कामक्रोधादि ) विकारों से सर्वथा दूर रहने वाला , महान , पण्डित , वाणी की कला में दक्ष , श्रीसंपन्न , सर्वथा यज्ञ - विधानवेत्ता , पुरश्चरण करने वाला , सिद्ध , हित एवं अहित से विवर्जित , सर्वलक्षण युक्त , महाजनों से आदृत , प्राणायामादि का सिद्धान्ती , ज्ञानी , मौनी , वैराग्ययुक्त , तपस्वी , सत्यवादी , सर्वथा धानपरायण , आगमार्थ का विशेष रूप से ज्ञान रखने वाला , अपने धर्म में परायण , लिङ्ग तथा चिन्ह से अपने को अव्यक्त रखने वाला , होनहार , उत्तम दान देने वाला , लक्ष्मीवान , धैर्यशाली और प्रभुतासम्पन्न लक्षणों वाला गुरु होना चाहिए ॥५३ - ५७॥
शिष्य के लक्षण --- शिष्य भी इन्ही उपरोक्त लक्षणों से युक्त हो कर सदगुरु की सेवा में संलग्न रहे । श्रेष्ठ शिष्य परानन्दरहित , कुरुप , कुष्ठी , क्रूरकर्मा , निन्दित तथा रोगी को गुरु न बनावे । आठ प्रकार के कुष्ठों से ग्रस्त , गलित्कुष्ठी , श्वित्ररोग ( सफेद कोढ़ ) से संयुक्त , हिंसा करने वाला तथा सदैव धन चाहने वाले को गुरु न बनावे ॥५७ - ५९॥