तृतीय पटल - दीक्षा चक्रविचार

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


भैरवी उवाच

श्रीभैरवी ने कहा --- अब काल और अकाल के विचार वाले चक्रों को कहूँगी जिसका आश्रय लेने से वीर , दिव्य अथवा पशुभाव की सिद्धि होती है । चक्रराज का विचार कंर प्रबल , प्रचण्ड और प्रसाद गुण महामन्त्र के सिद्ध मन्त्र को इधर उधर नहीं करना चाहिए ॥१ - २॥

शक्ति कूटादि मन्त्रों को सिद्धादि प्रक्रिया से शोधन नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार वराह , सूर्य , नृसिंह तथा पञ्चाक्षर ( नमः शिवाय ) चन्द्रचूड काल का महामन्त्र ( महामृत्युञ्जय मन्त्र ) का तथा नपुंसक मन्त्रों ( जिसके अन्त में ’ हुं ’ तथा ’ नमः ’ पद का प्रयोग हो वह नपुंसक मन्त्र है ) के भी सिद्धादि प्रक्रिया द्वारा शोधन की आवश्यकता नहीं है ॥३ - ४॥

२० अक्षरों से अधिक अक्षर वाले मन्त्र माला मन्त्र कहे जाते हैं । उन मन्त्रों का , सूर्य के मन्त्र का , योग के मन्त्र का , कृत्या मन्त्रों का , शिव के बीजमन्त्र का तथा देव ( श्रीविष्णु ) के मन्त्र का सिद्धादि प्रक्रिया से शोधन नहीं करना चाहिए । चक्रेश्वर , चन्द्रमा , वरुण के महामन्त्र का तथा काली और तारा के मन्त्रों का भी सिद्धादि प्रक्रिया से शोधन नहीं करना चाहिए । फिर भी यदि इन मन्त्रों का शोधन किया जाय तो वह प्रशंसा की बात है ॥५ - ७॥

जो मन्त्र शोधन करने पर प्रशंसास्पद हों उस कार्य को करने की बात तो दूर उसे किसी से करवाना भी नहीं चाहिए । अत्यन्त फल देने वाला मन्त्र ग्रहण करना चाहिए कारण कि उससे कुल की रक्षा होती है , धनी , मन्त्र ग्रहण नहीं करना चाहिए । इसी प्रकार अकुल मन्त्र भी ग्रहण न करे ॥८ - ९॥

इन मन्त्रों के ग्रहण करने से मनुष्य की मृत्यु होती है , और करोड़ों की संख्या में जप करने से उसकी सिद्धि होती है । ’ मन्त्र ’ शब्द में म का अर्थ ’ मनन ’ है , जिसका अर्थ विश्व विज्ञान है और ’ त्र ’ का अर्थ संसार रुप बन्धन से त्राण है । क्योंकि मन्त्र सिद्ध हो जाने पर संसार का ज्ञान कराता है तथा संसार बन्धन से रक्षा करता है इस कारण उसे मन्त्र कहा जाता है ॥१० - ११॥

जिस मन्त्र के आदि में प्रणव ( ॐ ) हो वह मन्त्र शूद्र को कदापि प्रदान न करे । आत्म मन्त्र , गुरुमन्त्र , अपसंज्ञा से विहीन अर्थात् ‍ शुद्धमन्त्र , पितृमन्त्र और मातृमन्त्र सिद्धि प्रदान करता है और कल्याणकारी भी है ॥११ - १२॥

दीक्षा --- बिना दीक्षा लिए ही जो मनुष्य जप - पूजादि अनुष्ठान करते हैं , उनमें अदीक्षित शूद्र को नरक की प्राप्ति होती है और अदीक्षित ब्राह्मण की अधोगति होती है । बिना दीक्षा लिए मन्त्र का प्रयोग जो लोग करते हैं वे मन्त्र उन्हें कोई फल नहीं देते जिस प्रकार शिला पर बोया गया बीज फलदायी नहीं होता । देवी की दीक्षा से विहीन पुरुष को न सिद्धि प्राप्त होती है और न उसकी सद्‍गति ही होती है ॥१३ - १४॥

इसलिए हर संभव प्रयासों से साधक को गुरु से दीक्षा लेनी चाहिए । दीक्षा लेने के समय दीक्षा वाले मन्त्र का ( अकडमादि ) चक्रसार द्वारा आवश्यक विचार कर लेना चाहिए । जो दीक्षा नहीं ग्रहण करता , मर जाने पर उसे रौरव नरक की प्राप्ति होती है । इसलिए प्रयत्नपूर्वक तान्त्रिक द्वारा दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए ॥१५ - १६॥

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Last Updated : July 28, 2011

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