तृतीय पटल - शिवचक्र

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


हे महाकाल ! हे कुलेश्वर ! अब शिवचक्र कह्ती हूँ । जिस शिवचक्र के प्रभाव से साधक निश्चित रुप से सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥८५॥

बुद्धिमान् ‍ साधक षट्‍चक्र कोण के मध्य में चतुरस्त्र ( चौकोर चतुर्भुज ) निर्माण करे । फिर उसके मध्य में वर्णों के सहित मनोहर चतुरस्त्र इस प्रकार लिखे । ऊपर मस्तक स्थान पर स्थित त्रिकोण में शिव संस्थान के मन्त्र को लिखे । फिर दक्षिण दिशा के क्रम से सभी मन्त्रों की गणना करे ॥८६ - ८७॥

इसके बाद द्वितीय त्रिकोण में , जहाँ विष्णु का स्थान है , वहाँ अपना मन्त्र लिखे । इसके बाद तृतीय त्रिकोण में ब्रह्मसंस्थान के मन्त्रों को लिखे । तदनन्तर त्रिकोण के अधोमुख में शक्ति मन्त्रादि संस्थान लिखे । फिर वहीं नायिकामन्त्र संस्थान भी लिखे ॥८८ - ८९॥

ऐसे तो दुर्लभ नायिका मन्त्र का संस्थान बायें लिखे तो शुभ होता है । इसके बाद ऊपर वाले त्रिकोण में भूत संस्थान मन्त्र लिखे । शिव के अधोभाग में यक्ष के मन्त्र का संस्थान लिखे जो अत्यन्त दुर्लभ है । विष्णु तथा ब्रह्म के सन्धि प्रदेश में महाविद्या के मन्त्र के पदों को अवश्य लिखना चाहिए ॥९० - ९१॥

हे महाप्रभो ! अब स्वरस्थान तथा वर्ण स्थानों के स्थापन का प्रकार सुनिए । शिव कोण में अ आ दो स्वर तथा बिन्दु सहित क वर्ग ( कं खं गं घं ङं ) स्थापित करे । विष्णु के कोण में नेत्र ( इकार ) तथा च वर्ग एवं ट वर्ग लिखे । ब्रह्मकोण में त वर्ग तथा अनुनासिक लिखे , जो सभी मन्त्रों में चेतना प्रदान करने वाले हैं ॥९२ - ९३॥

नायिका वाले मन्त्र के कोण में प वर्ग लिखे तथा दो न लिखें - ऐसा कहा गया है । भूतमन्त्र वाले कोण में य र ल व वर्णों को उ ऊ ओष्ठाक्षरों के साथ लिखे । यक्ष मन्त्र वाले कोण में प्रणव ( ॐ ) तथा शकार लिखे । पिशाच वाले मन्त्र में अधोदन्त मूल और ष जो बिन्दु से भूषित हों ( लं षं ) लिखे ॥९४ - ९५॥

देव मन्त्र में शिवबीज ( ॐ ? ) तथा सकार जो बिन्दु से विभूषित हो , उसे लिखे । इसके बाद महा विद्यादि संस्थान में ल और क्ष वर्ण लिखे , ऐसा कहा गया है । हे शम्भो ! इस प्रकार मैंने स्वर वर्ण स्थापन की विधि कही । अब अङ्क के स्थापन प्रकार को सुनिए । शिव ( गृह ) में २१ संख्या तथा विष्णु के गृह में ३२ संख्या स्थापित करे ॥९६ - ९७॥

ब्रह्मसंस्थान में १६ का आद्य अर्थात् ‍ १५ , शक्तिकूट में ८ का दुगुना अर्थात् ‍ १६ , नायिका में ८ तथा भूत संस्थान में ७ अङ्क स्थापित करे । यक्ष में ५ और पिशाच में ८ तथा सभी देवी के संस्थान में ९ और कृत्या में १२ अङ्क स्थापित करे ॥९८ - ९९॥

इसके बाद कल्याणकारी महाविद्या के छठें गृह में ३ अङ्क स्थापित करे । साध्य मन्दिर में साधक तथा साध्य के एक एक अङ्क स्थापित करें ।

विमर्श --- १ . शिव २१

२ . विष्णु ३२

३ . ब्रह्म १५

४ . शक्ति १६

५ . नायिका ८

६ . भूत ७

७ . यक्ष में ५

८ . पिशाच में ८

९ . देवी संस्थान ९ , कृत्या १२

१० . महाविद्या के छठे गृह में ३

११ . साध्य मन्दिर में १

१२ . साधक मन्दिर में १

फिर ऊर्ध्वदिशा में साधक के अङ्क तथा नीचे साध्य के अङ्क की गणना करे । शिव चक्र में भुजयुग्म की तथा विष्णु चक्र में वामाष्टक की गणना करे ॥१०० - १०१॥

ब्रह्मचक्र में ऋषि चन्द्र ( १ , ७ ), की , शक्ति में रामाष्टक ( ८ , ३ ) की नायिका चक्र में वेदवाण ( ४ , ५ ) की तथा भूतचक्र में अष्टम नवम नवम की गणना करे । यक्ष में दो तथा चौथे की , पिशाच में वज्रक ( १ ) तथा अष्टक की , शक्ति में और कृत्या में मुनि

( ७ ) एवं षष्ठ को गणना करे ॥१०२ - १०३॥

गणना की प्रक्रिया --- जिस जिस घर में स्थित रहने वाले देवता हों वे वहाँ महाफलदायी हैं । अकार नाम वाले अक्षर तथा देहस्थ अक्षर को द्विगुणित करें । फिर उसे साध्य अङ्क से जोड़कर षष्ठ तथा पञ्चम से पूर्ण कर देवे । उस गेह के अक्षर को तथा देवता के आद्य अक्षर को प्रयत्नपूर्वक ग्रहण करे । यदि शेष १ बचे तो फिर विवेचना की आवश्यकता नहीं है । उसे सर्वथा शुद्ध समझे ॥१०४ - १०५॥

षष्ठ अङ्क से वेदाङ्क ४ को तथा देवता के वर्ण को चन्द्रमा से मिला देवे । इसके पश्चात ‍ देवता वर्ण को द्विगुणित करे । फिर हे वल्लभ ! उसमें ३ का भाग देवे । यदि साध्य का अङ्क अधिक आवे तब उसे शुभ फल वाला नहीं समझना चाहिए । यदि उस घर में साधक का अङ्क अधिक आवे तब वह मन्त्र सर्व कुलेश होता है ॥१०६ - १०६॥

देवतावर्ण को द्विगुणित कर साधक के अङ्क से मिला देना चाहिए । फिर उन दोनों के वर्ण संख्या का अङ्क लिख कर उत्तम , साधक गणना करे ॥१०९॥

उसमें ( रस ) ६ एवं ( बाण ) ५ संख्या मिलाकर ६ से भाग देवे । फिर उसमें अपने नाम का अङ्क मिश्रित करें । यदि कुछ भी शेष न रहे तो अपने नाम के अङ्क का द्विगुणित कर उसे जोड़ देवे । इसके बाद अनल ( ३ ) संख्या से सौख्य अर्थ तथा भुक्ति के लिए भाग देवे । यदि अङ्क ( लब्धि ) बहुतर प्राप्त हो तो वह साधक को सुख प्राप्त कराने वाला होता है । किन्तु यदिअ साध्य से अङ्कलब्धि विस्तीर्ण हो तो उसे न ग्रहण करे - ऐसा शास्त्र के अर्थ का निश्चय है ॥११० - ११२॥

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Last Updated : July 28, 2011

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