अब सिद्धि के लक्षण वाले उत्तम राशि चक्र को कहती हूँ - पूर्व से पश्चिम की ओर दो रेखा तथा पर में दक्षिण से उत्तर को दो रेखा खीचें , फिर उनके मध्य से दो दो रेखा अग्निकोण से दक्षिण कोणा तक खीचे । तदनन्तर अग्निकोण से वायव्य कोण तथा नैऋत्य कोण से ईशान कोण पर्यन्त दो रेखा खीचें ॥६२ - ६३॥
इसके बाद मेष से लेकर मीन पर्यन्त राशि तथा उसमें होने वाले सभी वर्णों को भी लिखे । फिर कन्या राशि में स्थित शकारादि वर्णों को भी यत्नपूर्वक लिखे । तदनन्तर श्रेष्ठ साधक लग्न के आदि से लेकरा आय व्यय पर्यन्त कोष्ठों में अपने नाम के आद्य अक्षर की राशि से गणना करें । यदि मन्त्र स्वराशि में हो अथवा देवतात्मक हो तो उसे ग्रहण करे ।
विमर्श --- क्रमेण विलिखेद् वीर राशिचक्रे च साधक । वेदरामं रामहस्तं भज लोचनमेव च ॥ पञ्चभूतं पञ्चभूतं पञ्चवेदादिवर्णकान् इति वा पाठः ॥६४ - ६५॥
शुद्ध राशि वाला मन्त्र ग्रहण करे । परन्तु शत्रु स्थान ( छठाँ ) मृत्यु स्थान ( आठवाँ ) और व्यय स्थान ( १२ वें ) में पड़ने वाले मन्त्र का त्याग कर देना चाहिए । विद्वान् पुरुष को अपनी राशि से मन्त्र की पर्यन्त गणना करनी चाहिए ॥६६॥
साधक ( दीक्षा लेने वाले ) के अक्षर की राशि से साध्य ( मन्त्र ) की राशि पर्यन्त गणना करनी चाहिए । साधक की राशि से यदि मन्त्र की राशि एक , पाँच और नव स्थान में पडे़ तो वह मन्त्र बान्धव के समान ’ रक्षक ’ होता है । २ , ६ , और १० वें स्थान में पड़े तो ’ सेवक ’ कहा जाता है । ३ , ७ , ११ , स्थान में पड़े तो ’ पोषक ’ कहा जाता है ॥६७ - ६८॥
चौथे , आठवें , और बारहवें स्थान में पड़े तो संपूर्ण दोष उत्पन्न करता है और घातक कहा जाता है । हे महादेव ! शक्ति आदि का मन्त्र ग्रहण करने में कुल शास्त्र का विद्वान् यति ही श्रेष्ठ होता है ॥६९॥
शक्ति मन्त्र के ग्रहण में छवावाँ , और आठवाँ स्थान वर्जित है । १ . लग्न में शरीर , २ . धन , ३ . भाई , ४ . बन्धु , ५ . पुत्र , ६ . शत्रु , ७ . भार्या , ८ . मृत्यु , ९ . धर्म , १० . कर्म , ११ . आय , १२ . व्यया का विचार द्वादश राशियों से किया जाता है । नाम के अनुसार इनके शुभाशुभ फलों का निर्देश करना चाहिए ॥७० - ७१॥
वैष्णव मन्त्र की दीक्षा में महाशत्रु के स्थान में बन्धु का विचार करना चाहिए ॥७२॥