संस्कारप्रकरणम्‌ - श्लोक १३ ते २२

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ नक्षत्रगंडांतम्‌ । पौष्ण्याश्विन्यो : सर्पपित्र्पक्षयोश्व यच्च ज्येष्ठामूलयोरंतरालम्‌ । तद्रंडांतं स्याच्चतुर्नाडिकं हि यात्राजन्मोद्वाहकालेष्वनिष्टम्‌ ॥१३॥

क्षेपक -[ अथ गंडांतफलम्‌ । वत्सरात्पितरं हंति मातर तु त्रिवर्षत : । धनं वर्षद्वयेनैव श्वरूरं नववर्षत : ॥१॥

जातं बालं वत्सरेण वर्षें : पचभिरग्रजम्‌ । श्यालकं चाष्टभिर्वर्षैरनुक्तान्हंति सप्तभि : ॥२॥

तस्माच्छांतिं प्रकुर्वीत प्रयत्नाद्विधिपूर्वकम्‌ । अरिष्ट शतधा याति सुकृते शांतिकर्मणि ॥३॥ ]

अथ मूलजनने पादफलम्‌ । मूलाद्यचाणे तातो द्वितीये जननी तथातृतीये तु धनं नश्येच्चतुर्थोऽपि शुभावह : ॥१४॥

अथ ज्येष्ठायाश्चरणफलम्‌ । आद्ये पादेऽग्रजं हंति ज्येष्ठायां द्वितयेऽनुजम्‌ । तृतीये जननीं जात : स्वात्मान च तुरीयके ॥१५॥

अथाश्लेषजातफलम्‌ सर्षांश प्रथमे राज्यं द्वितीये तु धनक्षय : । तृतीये जननीनाशश्चतुर्थे मरणं पितु : ॥१६॥

( नक्षत्रगण्डान्त ) रेवती अश्चिनी नक्षत्रके आदिकी तथा आश्लेषा मघाके और ज्येष्ठा मूलके आदिकी ४ घडी गंडांत संज्ञाकी हैं सा यात्रा जन्म विवाहमें अशुभ हैं ॥१३॥

( क्षेपक -[ गण्डान्तमें जन्मनेवाला वर्षके भीतर पिताको और तीनवर्षके भीतर माताको मारता है । दो वर्षमें धनका नाश करता . है , नौ वर्षमें श्वशुरको एक वर्षमें अपनेसे पीछे उत्पन्न होनेवालेको , पाँच वर्षमें ज्येष्ठ भाईको , आठ वर्षमें शालाको मारता है । और जिन सम्बन्धियोंका नाम नहीं लिखा है उन्होंको सात वर्षमें मारता है । इसलिये यत्नसे विधिपूर्वक शान्ति करनी चाहिये । उत्तमरीतिसे शान्ति कर नेसे अरिष्ट सौ टुकडा होता है ॥१॥२॥३॥ ]

( मूलमें जन्मका चरणफल ) मुलके पहले पायेमें जन्में तो पिताका नाश और दूसरेमें माताका तीसरेमें धनका नाश होता है और चौथा पाया शुभ है ॥१४॥

( ज्येष्ठाका चरणफल ) ज्येष्ठाका प्रथम चरण ज्येष्ठ भाईको मारता है १ , तथा दूसरा छोटे भाइको २ , तीसरा माताको ३ , चौथा ४ चरण वालकको नष्ट करता है ॥१५॥

( आश्लेषाके जन्मका फल ) आश्लेषाका प्रथम चरण राज्य प्राप्ति करे , दूसरा धननाश करे , तीसग माताको मारे , चौथा पाया पिताको नष्ट करता है ॥१६॥

अथ पूर्वीर्द्धपरार्द्धेन फलम्‌ । अश्विनीमघमूलानां पूर्वाद्धें बाध्यते पिता । पूषा हि शक्रपश्वार्द्धे जननी बाध्यते शिशो : ॥१७॥

अथाऽन्येऽपि जनने दुष्टकाला : । दिनक्षये व्यतीपाते व्याघाते विष्टिवैधृतौ । शूले गंडे च परिघे वज्रे च यमघंटके ॥१८॥

कालगंडे मृत्युयोगे दग्धयोगे सुदारुणे । दर्शे कृष्णचतुर्दश्यां तातसोदरजन्मभे ॥१९॥

तस्मिन्‌ गंडदिने प्राप्ते प्रसूतिर्यदि जायतं । तद्दोषपरिहाराय शांति कुर्याद्यथाविधि ॥२०॥

सर्वेषां गंडजातानाम परित्यागो विधीयते । वर्जजेद्दर्शनं यावत्तस्य षाण्मासिकं भवे‍त्‌ ॥२१॥

शांति वा तस्य कुर्वींत प्रयत्नाद्विधिपूर्वकम्‌ । सूतकान्ते तद्दक्षे वा तद्दोषस्यापनुत्तये ॥२२॥

( पूर्वार्द्ध - परार्द्धमें फल ) अश्विनी मघा मूल इनका पूर्वार्द्ध पिताको बाधा करता है तथा रेवती ज्येष्ठाका उत्तरार्द्ध माताको नष्ट करता है ॥१७॥

जन्ममें और दुष्टकाल और तिथिक्षय , व्यतिपात . व्याघात , भद्रा , वैधृति , शूल , गंड , परिघ , वज्र , यमघंट , काल , मृत्युयोग , दग्धयोग , कृष्णचतुर्दशी , अमावस्या पिताके तथा भाईके जन्मका नक्षत्र इत्यादिक दुष्टकालोंकी भी गंडसंज्ञा है , सो इनमें जन्म हो जावे तो भी दोषशांतिके अर्थ यथाविधि शांति करनी चाहिये ॥१८॥१९॥२०॥

और सपूर्ण गंडोंमें जन्मे हुए बालकका त्याग करना योग्य है और छ : ६ मासतक बालक देखना भी निषिद्ध है ॥२१॥

यदि त्यागे भी नहीं तथा देखे विना भी नहीं रहा जावे तो विधिपूर्वक सूतकके अंतमें अथवा जन्मके नषत्रमें या बारहवें १२ दिन शांति करनी चाहिये ॥२२॥

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Last Updated : November 11, 2016

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