अथ वर्गवैरम् । वैरी गरुडसर्पौ च वैरें तु श्वानमेषयो : । वैरी मूषक मार्जारौ वैरं च मृगसिंहयो : ॥१३९॥
अथ द्वितीय : प्रकार : । स्ववर्गात्पञ्चम : शत्रुश्वतुर्थो मित्रसंज्ञक : । उदासीनस्तृतीयस्तु वर्गभेदस्त्रिधोच्यते ॥१४०॥
अथ वर्गफलम् । स्ववर्गे परमा प्रीतिर्मित्रे प्रीतिश्व कथ्यते उदासीने प्रीतिरल्पा शत्रुवर्गे मृतिर्भवेत् ॥१४१॥
अथ युंगी ( नक्षत्र ) प्रीति : । पौष्णादिर्क षट्कमुशंति पूर्वमार्द्रादिकं द्वादश १२ मध्यभागम् । पौरंदाराद्यं नवकं ९ भचकं परं च भागं गणका विदग्धा : ॥१४२॥
अथ फलम् । पूर्वभागे पति : श्रेष्ठो मध्यभागेच कन्यका । परभागे च नक्षर्व द्वयो : प्रीतिर्महीयसी ॥१४३॥
इति वधूवरयोर्मेलापनम् । अथ वाग्दानं वरवरणं च । पूर्वात्रितयमाग्नेयमुत्तरात्रितयं तथा । रोहिणी तत्र वरणे भगण : शस्यते तदा ॥१४४॥
उपवीतं फलं पुष्पं वासांसि विविधानि च । देयं वराय वरणे कन्याभ्रात्रा द्विजेन वा ॥१४५॥
गरुडसर्पका वैर है श्वानमेषका वैर है , मूसोबिलावका वैर है , मृगसिंहका वैर जानना ॥१३९॥
अथवा अपने वर्गसे पांचवां वर्ग वैरी है , और चौथा मित्रसंज्ञक है , तीसरा सम है इस प्रकार तीन भेद जानने ॥१४०॥
स्त्रीपुरुषका एक वर्ग होवे तो पूर्णप्रीति होवे , मित्रसंज्ञके वर्गमें भी प्रीति होवे और उदासीनमें साधारण प्रीति तथा शत्रुवर्ग हो तो मृत्यु होवे ॥१४१॥
( युंजीप्रीति ) रे . अ . भ . कृ . रो . मृ . यह ६ नक्षत्र पूर्वभागके हैं आ . पु . पु . आश्ले . म . पू . उ . ह . चि . स्वा . वि . अनु . यह १२ मध्यभागके हैं और ज्ये . मृ . पू . उ . श्र . ध . पू . उ . यह ९ परभागके जानने ॥१४२॥
( अथ फल ) पूर्वभागमें पति श्रेष्ठ होता है , मध्यभागमें कन्या श्रेष्ठ होती है और परभागमें दोनों स्त्रीपुरुष शुभ हैं ॥१४३॥
( सगाईका मुहूर्त्त . ) पू . ३ , कृ . उ . ३ रो यह नक्षत्र वरके वरनेमें श्रेष्ठ हैं ॥१४४॥
यज्ञोपवीत , फल , पुष्प , वस्त्र , वरणके अर्थ कन्याके भ्राता या ब्राह्मणद्वारा वरको देना चाहिये ॥१४५॥
अथ कुमारीवरणम् । जन्मतो गर्भाधानाद्वा पंचमाब्दात्परं शुभम् । कुमारीवरणं दानं मेखलाबन्धनं तथा ॥१४६॥
पचाङ्गशु द्धदिवसें चन्द्रताराबलान्विते । विवाहोक्तेषु ऋक्षेषु कुजवर्जितवासरे ॥१४७॥
मासाद्यदिवसं १ रिक्ता ४ । १४ मष्टमीं ८ नवमीं ९ तिथिम् । त्यक्तान्यदिवसे गन्धस्त्रकूतांबूलफलान्वितै : ॥१४८॥
सहवृद्धद्विजगणैर्वरयेत्कन्यकां सतीम् । अरोगिणीं भ्रातृमतीमसमानार्षगोत्रजाम् ॥१४०॥
अथ कार्यविशेषे जन्मर्क्षनामर्क्षयो : प्राधान्यम् । देशे ग्रामे गृहे युद्धे सेवायां व्यवहारके । नामराशे : प्रधानत्वं जन्मराशिं न चिन्तयेत् ॥१५०॥
काकिण्यां वर्गशुद्धौ च दाने द्यूते ज्वरोदये । मंत्रे पुनर्भूवरणे नामराशे : प्रधानता ॥१५१॥
विवाहे सर्वमांगल्ये यात्रादौ ग्रहगोचरे । जन्मराशे : प्रधानत्वं नामराशिं न चिंतयेत् ॥१५२॥
( कुमारीका वरण ) जन्मसे या गर्भसे पांच ५ वरसके उपरांत कन्याकी सगाई तथा मेखलाबंधन करना योग्य है ॥१४६॥
परंतु पंचांगशुद्धि हो और चंद्र तारा बलवान् हों तथा विवाहके नक्षत्रोंमें मंगलके विना वारोंमें और शुक्लपक्षकी प्रतिपदा १ रिक्ता ४ । १४ । ८ । ९ इन तिथियोंको त्यागके शुभ दिनमें गंध माला तांबूल फलसहित वृद्धब्राह्मणोंकरके श्रेष्ठ कन्याका वरण अर्थात् सगाई करे , परंतु कन्या रोगरहित हो , बहुतसे भाईयोंकी बहिन हो अपने गोत्रमें तथा अपने सासन ( जात ) की नहीं हो तब सगाई करना श्रेष्ठ है ॥१४७॥१४९॥
( जन्मराशि तथा नामराशिका विचार ) देशके तथा ग्रामके घरके बसनेमें , युद्धमें , नौकरी करनेमें , व्यवहारमें इतनी जगह नामकी राशि देखना और जन्मकी राशिको नहीं देखना ॥१५०॥
और परस्परकाकिणीके मिलानेमें या वर्गके मिलानेमें , दान देनेमें , जूवेमें ज्वरके चढनेमें , मंत्रमें , नातेमें भी नामराशि प्रधान है ॥१५१॥
और विवाहमें तथा संपूर्ण मांगलिक कार्योंमें , यात्रा , गृहप्रवेश आदि कामोंमें और ग्रहगोचर ( ग्रहोंके फल ) देखनेमें जन्मराशिकी प्रधानता है सो नामगशिसे नहीं देखना ॥१५२॥
अथ जन्मराशेरभावे नामराशिरपि ग्राह्य : विवाहघटनं चैव लग्नजं ग्रहज बलम् । नामभाच्चिंतयेत्सर्वं जन्म न ज्ञायते यदा ॥१५३॥
जन्म न ज्ञायते येषां तेषां नाम गवेष्यते । चक्रेऽवकहडे भांशौ तन्नाडी कैश्चिदग्निमात् ॥१५४॥
जायापत्योर्भकूटाद्य गोचराद्यखिलं तथा । अज्ञाते जनिधिष्ण्ये तु नामभादेव चिंतयेत ॥१५५॥
एकस्यापि च दंपत्योरज्ञाते जन्मभेतथा । जन्मभादूगुरुशुद्धयादिमेलनं नामभात्तयो : ॥१५६॥
( जन्मराशि न मालूम हो तो नाम राशि लेना ) यदि जन्मराशि याद नहीं हो तो विवाह . लग्न और ग्रहोंका फल नामराशिसे ही देखना योग्य है ॥१५३॥
परंतु जन्मराशिका अभाव हो तब नामराशिसे होडाचक्रके अनुसार लेना चाहिये और कई आचार्य कृत्तिका नक्षत्रसे भी राशि मानते हैं ॥१५४॥
स्त्रीपुरुषके राशि आदिका मिलाना और गोचर ग्रह आदिका फल जन्मराशि नहीं होनेसे नामराशिसे देखना चाहिये ॥१५५॥
और यदि दोनोंमेंसे एककी जन्मराशि याद नहीं हो तो भी गुरुशुद्धि आदिका जन्मराशिसे ही देखे और मिलान तो नामराशिसे करे ॥१५६॥
अथ अनेकनामसु विचार : । बहूनि यस्य नामानि नरस्य स्यु : कथंचन । तस्य पश्वाद्भवं नाम ग्राह्यं स्वरविशारदै : ॥१५७॥
अथ स्त्रीणां राशिशुद्धौ विशेष : । स्त्रीणां सर्वक्रिया : कार्या विशुद्धया स्वामिन : सदा । स्वशुद्धया स्वामिशुद्धया च गर्भाधानादिका : क्रिया : ॥१५८॥
विवाहकार्यं कुसुमप्रतिष्ठा गर्भप्रतिष्ठा वनिताविशुद्धौ । अन्यानि कार्य्याणि धवस्य शुद्धौ पत्यौ विहीने प्रमदात्मशुद्धया ॥१५९॥
इति श्रीरत्नगढनगरनिवासिना पंडितगौडश्रीचतुर्थीलालशर्मणा विरचिते
मुहूर्त्तप्रकाशे अद्भुतनिबन्धे पंचमं संस्कारप्रकरणम् ॥५॥
( अनेक नाम होनेपर विचार ) यदि एक मनुष्यके बहुतसे नाम होवें तो पछाडी ( पीछे ) का लेना योग्य है ॥१५७॥
( स्त्रियोंके राशिशुद्धिका विशेष विचार ) स्त्रियोंका सर्व कार्य पतिकी राशिकी शुद्धिसे करना और भर्भाधान आदि जातकसंस्कारतक दोनोंकी राशिशुद्धिसे करना श्रेष्ठ है ॥१५८॥
और विवाह , द्विरागमन , रजोदर्शनशांति , गर्भाधान इत्यादि कार्योंमें स्त्रीकी भी राशिकी अन्य कामोंमें पतिकी राशिसे चन्द्र आदिकी शुद्धि जरूर देखनी योग्य है और पतिके मरनेके अनंतर स्त्रीकी ही राशिसे चंद्रमा आदि देखना चाहिये ॥१५९॥
इति श्रीमुहूर्त्तप्रकाशे पंचमं संस्कारप्रकरणम् ॥५॥