संस्कारप्रकरणम्‌ - श्लोक ७९ ते ९६

अनुष्ठानप्रकाश , गौडियश्राद्धप्रकाश , जलाशयोत्सर्गप्रकाश , नित्यकर्मप्रयोगमाला , व्रतोद्यानप्रकाश , संस्कारप्रकाश हे सुद्धां ग्रंथ मुहूर्तासाठी अभासता येतात .


अथ विवाहार्थं कन्यावरयोर्गुणमेलनम्‌ । तत्र तवाद्‌ विवाहोपयोगिकन्यालक्षणानि । मृद्वंगी गूढगुल्फा समकुचनयना वृत्तनाभोरुवक्रा कृष्णभ्रूनेत्रकेशा स्थिरतरसुनखा दीर्घनेत्रा विलोमा । चारुक्ति : स्वल्पभाला लघुललितगमा पाणिपादौष्ठरक्ता सा कन्योद्वाहिता चेत्सुतधन . विपुलान्नऽऽयुरारोग्यदा स्यात्‌ ॥७९॥

अथ कन्यादोषा : । निर्गुणा शुल्कसंभाषी क्रोधयुक्ता सरोगिणी । विषयोगा वंध्ययोगा कुलविघ्वसयोगिका ॥८०॥

दरिद्रजारयीगा च हीनाचरणसंयुता । एभिदोंषैश्व या युक्ता तां कन्यां न प्रतिग्रहेत ॥८१॥

अथ वरगुणा : । विद्यावंतं सुरूपं उभयकुलशुचिं ज्ञातशीलं द्दढांगं निर्व्याधिं शांतियुक्तं द्विजसुरप्रणतावल्पदाढर्यप्रयुक्तम्‌ । सम्यक्‌पुष्ठोच्चपृच्छं प्रचुरतरधियं मूत्रधारं सुलिंगमेतद्रूपं वरिष्ठं वरमिह वरयेत्कन्यकाया : सुवेशम्‌ ॥८२॥

कुलं च शीलं च वयश्व रूपं विद्यां च वित्तं च सनाथतां च । एतान्‌ गुणान्सप्त परीक्ष्य देया कन्या बुधै : शेषमचिन्तनीयम्‌ ॥८३॥

अथ वरदोषा : । मूकोंऽवो बधिर : कुब्ज : स्तब्ध : पंगुर्नपुंसक : । कुष्ठी रोगी ह्यपस्मारो दश दोषा : प्रकीर्तिता : ॥८४॥

आचारहीनो मूर्खश्व कुरूपश्वौरजारक : । पाखण्डी च तथोन्मत्तो गूह्क : कुलदूषक : ॥८५॥

द्यूत कर्मरतश्वैव दश दोषा : प्रकीर्त्तिता : । एतद्दोषप्रयुक्त ये तेषु कन्या न दीयते ॥८६॥

( अथ विवाहके योग्य कन्या वरके गुण लिखते हैं ) कन्या कोमल अंगवाली , गडे हुए ( गुल्फ ) टकणेवाली हो और समान कुच नेत्र , गोल नाभि पिंडी मुख होवें और भ्रूकुटी , नेत्र , केश काले होवें , मजवूत सुन्दर नख होवें , बडे नेत्र हो शरीरपर वाल होवें , नहीं , कोमल वाणी हो और ललाट छोटा हो , गति सुन्दर , मंद हो , बाहुतल , हाथ , तलुआ और ओठ लाल हो , तो ऐसी स्त्री विवाह होनेसे पुत्र धन , अन्न , आयु आरोग्यताके देनेवाली होती है ॥७९॥

( कन्याके दोष ) और गुणरहितवाली , मोल लेनेवाली , क्रोधिनी , रोगिणी , विषयोगवाली , वन्ध्यायोगकी , कुलनाशयोगकी , दरिद्र तथा जारयोगकी , नीच आचरण करनेवाली इन दोषोंसे युक्त कन्याको कदापि नहीं विवाहनी चाहिये ॥८०॥८१॥

( वरके गुण ) विद्यावान्‌ हो , सूरुप हो , पिताका तथा नानेका कुल शुद्ध हो , शीलस्वभाव हो , द्दढ अंग हो रोगरहित हो , शांतियुक्त हो , ब्राह्मणोंको तथा देवताओंको प्रणाम करनेवाला हो अर्थात्‌ नास्तिक नहीं हो अच्छी वार्त्ता करनेवाला हो , बुद्धिमान्‌ हो मूत्रकी धार पूर्ण हो , सुन्दर ध्वजवाला हो , रूपवान्‌ हो , गुणी हो तथा श्रेष्ठ वस्त्र धारे हुए हो तो ऐसा वर कन्याके योग्य कहना चाहिये ॥८२॥

और कुल , स्वभाव , अवस्था , रूप , विद्या धन , पिता , माता यह सात गुण देखके कन्या देनी चाहिये ॥८३॥

( वरके दोष ) परन्तु गूङ्गा , अन्धा , बहिरा , कूबडा , अभिमानी पंगुला , नपुंसक , कुष्ठी , रोगी , मृगीरोगवाला यह दश दोष हैं ॥८४॥

आचाररहित , मूर्ख , कुरूप , चोर , रंडीबाज , बावला ( दिवाना ), कपटी , नीचकुलका ॥८५॥

जुवारी , यह दश दोष होवें उसको कन्या नहीं देनी चाहिये ॥८६॥

अथ जन्मलग्नतो भौमफलम्‌ ॥ लग्ने १ व्यये च १२ पाताले ४ जामित्रे ७ चाष्टमे ८ कुजे । कन्या भर्तुर्विनाशाय भर्त्ता कन्याविनाशद : ॥८७॥

एवंविधे कुजेसंस्थे विवाहो न कदाचन । कार्यो वा गुणबाहुल्ये कुजे वा ताद्दशे द्वयो : ॥८८॥

अथ भौमपरिहार : । जामित्रे ७ च यदा सौरिर्लग्ने १ वाहिबुके ४ ऽथवा । अष्टमे ८ द्वादशे १२ चैव भौमदोषो न विद्यते ॥८९॥

अथ वन्ध्यादियोग : । त्यक्ता धवेनोष्णकरेऽस्त ७ संस्थे बाल्येऽपि भौमे विधवा प्रदिष्ट । पापग्रहालोकनवर्गयाते कन्यैव वन्ध्या भवतीत्यवश्यम्‌ ॥९०॥

( चूनडी मोलीये मंगलका विचार ) लग्नमें १ , बारहवें १२ , चौथे ४ , सातवें ७ आठवें . ८ जन्मलग्नसे मंगल हो तो कन्या भर्त्ताका नाश करनेवाली और भर्त्ता कन्याको मारता है ॥८७॥

इस तरह तरह मंगल हो तो विवाह नहीं करना चाहिये ; परंतु गुण अधिक मिलते होवें या मंगल कन्यावरके एकसा हो तो विवाह कर्ना श्रेष्ठ है ॥८८॥

( मंगलपरिहार ) यदि शनश्वैर जन्मलग्नसे ७ । १ । ४ । १२ इन स्थानोंमें हो तो मंगलका दोष नहीं है ॥८९॥

( वंध्यादियोग ) जन्मलग्नसे कन्याके सातवें सूर्य हो तो पति करके त्यागी जावे और मंगल हो तो बालविधवा हो या सातवें घरमें पापग्रहकी द्दष्टि हो तो वंध्या हो ॥९०॥

अथ विषकन्यालक्षणम्‌ । सूर्यभौमार्किवारेषु तिथिमद्रा २ । ७ । १२ शताभिघम्‌ । आश्लेषा कृत्तिका चेत्स्यात्तत्र जाता विषांगना ॥९१॥

अथ विषकन्यादोषपरिहार : । सवित्र्यादिव्रतं कृत्वा वैधव्यविनिवृत्तये । अश्वत्थादिभिरुद्वाह्य दद्यात्तां चिरजीविने ॥९२॥

अथ जन्मकालिकदुष्टनक्षत्रफलम्‌ । मूलजा श्वशुरं हंति व्यालजा कुलटांगना । विशाखजा देवरघ्नी ज्येष्ठजा ज्येष्ठनाशिका ॥९३॥

अथास्यापवाद : । आश्लेषाप्रथम : पाद : पादो मूलांतिमस्तथा । विशाखाज्येष्ठयोराद्यास्त्रय : पादा : शुभावहा : ॥९४॥

अथ वधूवरयोर्मेलनम्‌ । वर्णो वश्यं तथा तारा योनिश्व ग्रहमैत्रकम्‌ । गणकूट भकूटं च नाडी चैते गुणाधिका : ॥९५॥

अथोत्तरबलाश्वेइ विज्ञेयास्तु परस्परम्‌ । गुणाधिके वरे कार्यो विवाहो वरकन्ययो : ॥९६॥

( विषकन्याक लक्षण ) सूर्य , मंगल , शनिवारको भद्रा तिथि २ । ७ । १२ हो और आश्लेषा कृत्तिका नक्षत्र हो तव जन्मी हुई कन्या विषकन्या कहाती है ॥९१॥

( विषकन्याके दोषका उपाय ) ज्येष्ठ शुदी चौदश १४ को सावित्रीका व्रत करे और पीपलके साथ कन्याका विवाह करके बहुत आयुवाले बरको विवाह दे तो दोष नहीं है ॥९२॥

( जन्मकालिक दुष्ट नक्षत्रफल ) मूल नक्षत्रमें जन्मने वाली कन्या ससुरेको मारती है और आश्लेषाकी वेश्या हो जाती है तथा विशाखाकी देवरको और ज्येष्ठामें जन्मनेवाली जेठको मारती है ॥९३॥

( इसका अपवाद ) आश्लेषाका प्रथम चरण , मूलके अन्तका चरण और विशाखा ज्येष्ठाके तीन चरण शुभ . हैं ॥९४॥

( कन्यावरके मिलानेका विचार ) वर्ण १ , वश्य २ तारा ३ , योनि ४ , ग्रहमैत्री ५ , गणकूट ६ , राशिकूट ७ , नाडी ८ यह गुण हैं सो उत्तरोत्तर गुणी समझना चाहिये और वरका अधिक गुण मिलनेसे विवाह करना श्रेष्ठ है ॥९५॥९६॥

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Last Updated : November 11, 2016

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