आहारशुद्धौ सत्वशुद्धि, सत्त्बशुद्धौ ध्रुवा स्मृति: ।
रथारूढो गच्छन पथि मिलितभूदेवपटलै: स्तुतिप्रादुर्भावं प्रतिंपदमुपाकर्ण्य सदय: ।
दयासिंधुर्बधु: सकलजगतां सिंधु - सदयो जगन्नाथ: स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां ह्रदये न च ।
मद्बक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥
अत: लोग आज भी गाते हैं :---
सबसे ऊँची प्रेम सगाई ॥
दुर्योधन को मेवा त्यागो साग विदुर घर पाई ॥
जूठे फल शबरी के खाए बहुविधि प्रेम लगाई ।
प्रेम के बस नृप सेवा कीन्हीं आप बने हरि नाई ॥
राजसुयज्ञ युधिष्ठिर कीन्हों तामें जूठ उठाई ।
प्रेम के बस अर्जुन - रथ हाक्यो भूल गए ठकुराई ॥
ऐसी प्रीत बढी वृन्दावन गोपिन नाच नचाई ।
सूर क्रूर इसलायक नाहीं कहँअ लगि करौं बडाई ॥
स: निर्गत: कौरवपुण्यलब्धो
गां पर्यटन् मेध्यविविक्तवृत्ति: सदाऽऽप्लुतोऽघ शयनोऽवधूत ॥
अलक्षित: स्वैरवधुतवेषो व्रतानि चेरे हरितोषणनि ॥
विश्वेशं माधवं ढुंढिं दंडपणिं च भैरवम् ॥
मरणं मंगलं अत्र ।
सफलं जीवनं अत्र ॥
संतों का मिलन भी कैसा मधुर होता है :---
चार मिले चौंसठ खिले, बीस रहे कर जोद ।
हरिजन से हरिजन मिले, बिहसे सात करोड ॥
कृष्ण तवाऽस्मि न चास्मि परस्य ।
तुलसी कुत्ता राम का, मोतिया मेरा नाम,
कण्ठे डोरी प्रेम की, जित खींचो उत जान ।
आत्मानं च कुरुश्रेष्ठ कृष्णेन मनंसेक्षितम् ।
ध्यायन् गते भागवते रुरोद प्रेमविवहल ॥
कायेन वाचा मनसेन्द्रियैर्वा बुद्धयाऽऽत्मना वा प्रकृते: स्वभावात् ।
करोमि यत् यत् सकलं परस्मै नारायनयेति समर्पयामि ॥
वल्लभाचार्यजी ने इस चरित्र की समाप्ति में कहा है :---
कामेन कर्मनाश: स्यात् क्रोधेन ज्ञाननाशनम् ।
लोभेन भक्तिनाशा: स्यात् तस्मात् एतत त्रयं त्यजेत् ॥
इसी कारण से गीता जी में काम, क्रोध, लोभ को नरक - द्वार कहा है :---
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नासनमात्मन ।
कामक्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥
अगर खुदा नजर दे तो सब खुदा कीं है ।
किंतु देवहूति भी असाधारण थी ।
शुकदेवजी वर्णन कर रहे हैं ।
काम्यानां कर्मणं न्यासं संन्यासं कवयो विदु: ।
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वाम् प्रपन्नम् ।
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणमे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥
चेत: खल्वस्य बंधाय मुक्तये चात्मनो मतम् ।
गुणेषु सुक्तं बंधाय रतं वा पुंसि मुक्तये ॥
संसार पर वैराग्य लाने का एक ही उपाय है :---
जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम्
पैसो मारो परमेश्वर ने, पत्नी मारी गुरु, ।
छैयां छोकरां मारा शालिग्राम, पूजा कोनी करूं ? ॥
जानिय तबहि जीव जग जागा ।
जब सब विषय विलास विरागा ॥
भूखे मारुं, भूखे सुवाडुनं, ।
तननी पाडुं छाल, पछी करीश न्याल ।
सोइ जानइ जेहि देहु जनाई ।
जानत तुम्हहि तुम्हहि होई जाई ॥
सालोक्यसाष्टिंसामीप्यसारूप्यैकत्वमप्युत ।
दीयमानं न गृहणन्ति बिना मत्सेवनं जना: ॥
नरसिंह मेहता ने कहा है :---
हरिना जन तो मुक्ति न माँगे, माँगे जनम - जनम अवतार रे;
नित सेवा, नित कीर्तन, ओच्छव, निरखवा नन्दकुमर रे;
धन्य वृन्दावन, धन्य ए लीला, धन्य ए व्रजनां वासि रे :
अष्ट महासिद्धि आंगणीये ऊभी, मुक्ति छ ऐमनी दासी रे;
भूतल भक्ति पदरथ मोट, ब्रहमलोकमाँ नाहीं रे ।
मृत्यु के बाद पूर्वजन्म याद नहीं आता ।
हरे आम हरे राम, राम राम हरे हरे ।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे ॥