ठाकुर प्रसाद - दशम स्कन्ध (पूर्वार्ध)

ठाकुर प्रसाद म्हणजे समाजाला केलेला उपदेश.


मैंने मेंहदी रचाई रे, कृष्ण नाम की ।
मैंने बिंदिया सजाई रे, कृष्ण नाम की ।
मेरी चुडियों पै कृष्ण, मेरी चुनरी पै कृष्ण,
मैंने नथनी गढाई रे, कृष्ण नाम की - मैंने

मेरे नयनों में गोकुल वृन्दावन,
मेरे प्राणों में मोहन मनभावन
मेरे होठों पै कृष्ण, मेरे ह्रदथ में कृष्ण,
मैंने ज्योति जगायी रे, कृष्ण नाम की - मैंने

अब छाया है कृष्ण अंग - अंग में,
मेरा तन - मन रंगा है कृष्ण रंग में,
मेरा प्रीतम है कृष्ण, मेरा जीवन है कृष्ण,
मैंने माला बनाई रे कृष्ण नाम की - मैंने

साकर शेरडीनो रस त्यजीने कडवो ते लीमडी घोल मा, राधाकृष्ण बिना बीजुं बोल मा ।

ए रसनो स्वाद शंकर जाणे के जाणे शुक्र जोगी रे ।
कई एक जाणे व्रजनी रे गोपी, भणे नरसैंयो भोगी रे ॥

गोपी कहती है :---
लाली मेरे लालकी, जित देखूं तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी, मैं मी हो गयी लाल ॥

धूर - भरि अति सोभित स्यामजू, तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी ।
खेलत - खात फिरै अंगना, पगपैजनी बाजति, पीरी कछोटी ॥
वा छविकों रसखानि बिलोकत, वारत काम कलानिधि कोटी ।
काग के भाग कहा कहिये, हरि हाथ सो लै गयौ माखन रोटी ॥

युगलप्रियाजी का पद

(राग : मेघरंजनी; ताल : झप)

स्याम स्वरूप बस्यो हिय में, फिर और नहीं जग भावैं री ।
कहा कहूँ को माने मेरी, सिर बीती सो जानै री ॥
रसना रसना सब रस फीके, द्दगनि न और रंग लागै री ।
स्रवननि दूजी कथा न भावै, सुरत सदा प्रिय की जागै री ॥
बढऽयो बिरत अनुराग अनोखो, लगन लागी मन नहीं लागै री ।
जुगल प्रिय के रोम -रोम तें, स्याम ध्यान नहिं पल त्यागै री ॥

मुकुट लटक अटकी मन माही ॥
नृत्यत नटवर मदन मनोहर, कुंडल फलक अलक बिशुराई ॥
नाक बुलाक हलत मुक्ताहल, होठ मटक गति भौंड चलाई ।
ठुमुक ठुमुक पग धरत धरनि पर, बांह उठाइ करत चतुराई ॥
झुनक झुनक नूपुर फनकारत तत्ता थेई थेई रीफ रिफाई ।
चरनदास सहजोहित अन्तर, भवन करो जित रहो सदाई ॥

यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र माधव: ।

वैयासकि: स भगवान् (भवतासह)

जो जागत हैं, वह पावत है ।
जो सोवत हैं, वह खोवत है ॥

सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवै ।
दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रोवै ॥

नंद घर आनंद भयो, जय कन्हैयालालकी ॥

नंदयति सर्वजनान् स नंद: ।

धातुषु क्षीयमाणेषु शम कस्य न जायते ।

गोभि: दिवति इति गोपी

भलुं थयुं भांगी जंजाल ।
सुखे भजीशुं श्रीगोपाल ॥

न हि ज्ञानेन सद्दशं पवित्रमिह विद्यते ।

मो सम कौन कुटिल खल कामी ।
जिनु तनु दियो ताहि बिसरायो ऐसो नमकहरामी ॥

और

सूर कहैं श्याम सुनो, शरण हैं तिहारे, अबकी बार पार करो, नन्द के दुलारे ॥

सनमुख होय जीव मोहि जबहों ।
जन्मकोटि अघ नाशहुँ तबहीं ॥

गीता में भी कहा गया हैं :---
न मे भक्त: प्रणश्यति ।

मातृदेवो भव । पितृदेवो भव ।
आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव ।

परस्परदेवो भव ।

बिबुध्य तों बालकमारिकाग्रहं, चराचरात्माऽस निमीलिते क्षण: ॥

खुदा नजर दे तो सब सूरत खुदा की है ।

सो मुञ्च मुञ्चालमिति प्रभाषिणी ।

गौमूत्रेण स्नान यत्वा ।

बाजारी साबुन से नहीं, गौमूत्र से स्नान कराया गया ।
जीवन को सादगीपूर्ण बनाओ ।

गोविंदे लभते रतिम् ।

गोपी कहती हैं :---
मुरली बजाय मेरी मन हर लीन्हों ।
एक गोपी प्रेम - भरा उलाहना देती है - मुरहर ! रन्धनसमये मा कुरु मुरलीरवं मधुरम् ।

अद्वैतवीथीपथिकैरुपास्या: स्वराज्यसिंहासन लब्धदीक्षा: ।
शठेन केनापि वयं हठेन दासोकृता गोपवविटेन ॥

या लकुटी अरु कामरिया पर, राज तिहूँ पुरको तजि डारौं ।
आठहु सिद्धि नवो निधिको सुख, नंदकी गाय चराइ बिसारौं ॥

सशंखचक्रं सकिरीट कुंडलं सपीतबस्त्र सरसीरुहेक्षणम् ।
सहारवक्ष: स्थल कौस्तुभश्रियं नमामि विष्णुं शिरसा चतुभुर्जम् ॥

त्वदीयं वस्तु गोविन्द. ।

जशोदा  तारा कानकुंवरने साद करीने वार रे;
आवडी धूम मचावे व्रजमों, नहीं कोई पूछणहार रे जशोदा.
शीकुं तीदयुं गोरस ढोलयुं, उघाडोने बार रे;
माखण खाधुं, ढोली नाख्यु, जान कीधुं आवार रे जशोदा.
खोंखां खोलां करतो हींडे, बीहे नहीं लगार रे;
यही मथवानी गोली फोडी, आ शाँ कहीए लाड रे जशोदा.
मारो  कानजी घर हुतो, क्यारे दीठो बहार रे;
दही दूधना माट भर्या छे, बीजे चाखे न लगार रे जशोदा.
शाने काजे मलीने आवी, टोली बली दशबार रे;
नरसैंयानो स्वामी साचो, भूठी व्रजनी नार रे जशोदा.
वत्सान् मुञ्चन् क्वचिदसमये ।
क्वचिद् असमये वत्सान् जीवान् मुञ्चन् ॥

प्रेम को लगन लगो है उसको, क्या मथुरा क्या काशी रे ।
गोविंद के गुन गाते फिरते, वृंदावन के वासो रे ॥

नाहं भक्षितावानम्ब सर्वे मिथ्याभिशंसिन: ।

वैष्णवीं व्यतनोन्मायां पुत्रस्नेमयीं विभ: ।

गीता में कहा हैं  :---
मन:  षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ।
अधिष्ठाय मनश्वायं विषयानुपसेवते ॥

मना सज्जना भक्तिपंथेचा जावे, तरी श्रीहरि पाविजेतो स्वभावे ।
जनो निंद्य ते कर्म सोडोनी द्यावे, जनो वंद्य ते सर्व भावे करावे ॥

भवसुखे दोषानसंधीयताम् ।

आत्मात्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राण: शरीर गृहं ।
पूजा ते विषयोपभोग रचना निद्रा समाधि स्थिति: ॥
सञ्चार: पदयो: प्रदक्षिर्णवधि स्तोत्राणि सर्वागिरो ।
यद्यतकर्म करोमि तत्तदखिलं शंभो तवार: धनम् ॥

ममैवोंशौ जीवलोके ।

ईश्वर अंश जीव अविनाशी ।
चेतन अमल सहज सुकराशी ॥
सो माया बस भयु गुसाईं ।
बंध्यो कीट मर्कटकी नाईं ॥

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमैवैष वृणते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूस्याम् ॥

क्षौमं वस: पृत्युकटितटे विभ्रति सूत्रनद्धं ।
पुत्रस्नेहस्नुतकुचयुगं जातकंपं च सुभूत: ॥
रज्ज्वाकर्षश्रमभुजचलत्कंकणै कुंडले च ।
स्विजं वस्त्रं कपरविगलन्मालती निर्ममन्थ ॥

तां स्तन्यकाम आसाद्‌य मथ्नन्तों जननीं हरि: ।
जोना है उसका भला जो इन्सान के लिये जिये, मरना है उसका भला जो अपने लिये जिये ।

हरि ने भजताँ हजी कोई नी लाज जता नथी जाणो रे
जेनी सुरता शामलिया साथ वदे वेद वाणी रे । हरिने.
बहाले उगार्यो प्रहलाद, हिरण, कंस मार्यों रे,
बिभीशणने आप्युं राज, रावण संहायौ रें । हरिने.
बहाले मीरां ते बाईना फेर हलाहल पीधां रे .
पोंचालीनां पूर्वा चीर, पांडव काम कीधाँ रे । हरिने.
आवो हरि भजवानो लहावो, भजन कोई करशे रे,
कर जोडी कहे प्रेंमलदास, भक्तोनाँ दु:ख हरशे रे । हरिने.

त्यक्त्वा यष्टिं ।

तदपि द्वऽयंगुलं न्यूनं यद् यदादत्त बन्धनम् ॥

हाथ छुडाये जात हो, निंबल जानिं के मोहिं ।
जब ह्रदय से जाहुगे, सबल कहौंगो तोहिं ॥

गंगादितीर्थवर्येषु दुष्टरेवावृतेश्विह ।
तिरोहिताधिदैवेषु कृष्ण एव गतिर्मम ॥

देवदत्तमियं लब्ध्वा नृलोकमजितेन्द्रिय: ।
यो नाद्रयेत त्वत्पादौ स शोच्योहयात्मवञ्चक: ॥

श्रीरामचरितमानस में कहा गया हैं :---
आकर चारि लच्छ चौरासी । जोनि भ्रमत यह जीव अविनाशी ॥
कबहूंक करि करुना नर देही । देत ईश बिनु हेतु सनेही ॥
नर तनु भव वारिधि कहुं बेरो । संकुख मरुत अनुग्रह मेरो ॥

जो न तरै भवसागर< नर समाज अस पाइ ।
सो कृत निंदक मंदमति, आत्माहन गति जाइ ।

वाणी गुणनुकथने श्रवणौ कथायां हस्तौ च कर्मसु मनस्तव पादयोर्न: ॥
स्मृत्यां शिरस्तव निवासजगत्प्रणमे द्दष्टि: सतां दर्शनेऽस्तु भवत्तनूनाम् ॥

जाते बेगि द्रवौ मैं भाई । सो मम भगात भगत  सुखदाई ॥
सो सुतंत्र अवलम्ब न आना । तेहि आधीन ग्यान - बिग्याना ॥

कवि रसखान कहते हैं :---
शेष, महेश, गणेश, दिनेश, सुरेशहु जाहि निरंतर गावें ।
जाहि अनादि अनन्त अखंड अछेद अभेद सुवेद बतावैं ॥
नारद से शुक व्यास रटैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं ।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं ॥

पडले इन्द्रिया सकला वलण

यत्करोसि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ॥

प्रारब्धकर्मणम् भोगा देव क्षय: ।

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुष: ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय वलादिव नियोजित: ॥

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्‌भव: ।

विभ्रद वेणुं जठरगट्‌यो: श्रॄंगवेत्रे च कक्षे ।
व मे पाणौ मसृणकवलं तत्फलायन्यंगलीषु ॥
तिष्ठन् मध्ये स्वपारसुह्रदो हास्यन् नर्मभिस्वै: ।
स्वर्गलोके भिषति बुभुजे यज्ञभुग बालकोल: ॥

निरगुन रूप सुलभ अति, सगुन न जाने कोई ।

नरसिंह मेहता ने भी गाया हैं :---
‘ब्रम्हा लटकां करे ब्रम्हा पासे ।’
सर्व विष्णुमयं गिरोऽङ्गवदज: सर्व स्वरूपो बभौ ॥

उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयो: किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।

श्रुमुमुचुस्तरवो यथा‍र्या: ।

धन्या: हरिण्य आकर्ष्य वेणुरणितं सहकृष्णसारा: ।

ऐ श्याम  तेरी बंसरी ने क्या सितम किया ?
तन का रहा न होश मेरे मन को हर लिया - ऐ श्याम
बंसरी की मधुर टेर सुनी प्रेम रस भरी,
व्रजनारी लोकलाज कामकाज तज दिया - ऐ श्याम
नम में चढे विमान, खडे देवगण सुनें,
मुनियों का छुटा ध्यान, पोम भक्तिरस पिया - ऐश्याम
पशुओं ने तजी घास, पक्षी मौन हो रहे,
यमुना का रुका नीर, पवन थिर हो गया- ऐ श्याम
ऐसी बजाई बंसरी, सव लोक वश किया,
ब्रम्हानन्द दरश दीजिए, अभी देर क्यों - ऐ श्याम
वर्णयन्त्यो मिथो गोप्य: क्रीडास्तन्मयतां ययु ।

भक्ताभिलाषी चरितानुसारी दुग्धादि चौर्त्येंण यशोविसारी ।
कुमारतानन्दित घोषनारी मम प्रभु: श्री गिरिराजधारी ॥

वृन्दावने गोधनवृन्दचारा, मम प्रमु: श्री गिरिराजधारी ।

न  मयावशितधियां काम: कामोय कल्पते ।
भर्जिता: क्वथिता धानो:  प्रायोवीजाय नेष्यते ॥

भगवानपि ता रात्रि: शरदोत्फुल्लमल्लिका ।

ब्रम्हादि जय संरूढ दर्प कन्दर्प दर्पहा ।
जयति श्रीपतिर्गोंपो रासमण्डलमंडित: ॥

लिम्पन्त्य: प्रकृजन्त्यो‍ऽन्या: ।

मोहन मन मोहि लियो ललित बेनु बजाई री ।
मुरली धुनि श्नवन सुतन बिबस भई माई री ॥
लोक लाज, कुल की मरजादा बिसराई री ।
घर - घर उपहास सुनत नेकु ना लजाई री ॥
जप तप वेद अरु पुरीन, कुछ ना सुहाई री ।
सूरदास प्रभु की लीला निगम नेति गाई री ॥

गोपी के ह्र्दय का यह शुद्ध भाव है ।
गोभि: इन्द्रियै: भक्तिरसम् पिबति इति गोपी ।

कामात् क्रोधोऽभिजायते । क्रोधात् भवति संमोह: ॥

स्वागतं वो महाभागा: ।

यथा ब्रजगोपिकानाम् ।

सन्त्यज्य सर्वविषयाँस्तवपादमूलम् ।

सच्च त्याग कबीर का, मन से दिया उतार ।

को देवो य: मन: साक्षी ।

पादौ पदं न चलतस्तव पादमूलाद् ।
याम: कथं व्रजमयो करवाम किं वा ॥

पृथ्वीका एक नाम है धरा ।
धरति  इति धरा ।
धराया: अमृतं धरामृतं ।
धरामृतं न भवति इति अधरामृतं ।

तासाँ वाचो जयन्ति हि ।

तन्नौ निधेहि क पङ्कजमार्तबन्धो शिरस्सु च किकरीणम् ।

पुरुष तो एक पुरुषोत्तम, और सब व्रजनारी हैं ।

यहर्यम्बुजाक्ष न लमेय भवत्प्रसादं जहयामसून् व्रतकृशाञ्छतेजन्मभि: स्यात् ।

आधी केला सत्संग, तुका झाला पांडुरंगा ।
त्यांचे भजन राही ना, भूल स्वभाव जाई ना ।

लाली मेरे लाला की जित देखूं तित लाल ।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल ॥

कृष्णोऽहम् पश्यत गति ।

मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवन्त ।

प्यारे दर्शन दीज्यो आय, तुम बिन रहयो न जाय ।
जल बिन कमल, चंदबिन रजनी, ऐसे तुम देख्याँ बिना सजनी आकुल व्याकुल फिरूं रैनदिन विरह कलेजो खाय दिवस न भूख, नोंद नहीं रैना, मुख सूं कहात न आवै बैना, कहा कहूँ कछु कहत न आवे, मिलकर तपन बुफाय ।
क्यूं तरसाओ अन्तरयामी, आय मिलो किरपाकर स्वामी, मोरा दासी जनम जनम की, पडी तुम्हारे पाय ।

जयति तेऽधिकं जन्मषा व्रज: ।

ब्रजति भगवत् समीपं स व्रज ।
ते जन्मना ब्रज: अधिकं जयति ॥

ययति तेऽधिकं जन्मना ब्रज: श्रयत इन्दिरा शश्वदत्र हि ।
दयित द्दश्यतां दिक्ष तावकास्त्वयि धृतासवस्त्वांविचिन्वते ॥
शरदुदाशये साधुजातसत्सरसिजाददर श्रीमुषा द्दशा ।
सुरतनाथ तेऽशुल्कदासिका वरदनिन्धता नेह कि वध: ॥

त्वों विचिन्वते ।

त्वाम् श्रीकृष्ण सर्वत्र विचिन्वते ।

न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मद्दक् विखनसार्थितो विश्वगुप्तये सख उदेयिवान् सात्त्वतांकुले ॥

मंत्रहीनं क्रियाहीनं

जलरुहावनं चारु दर्शय ।

न कृन्धि ह्रच्छयम् ।

प्रणतदेहिनां पापाक्तर्शनं ।

ऽधरसीधुना ऽउणययस्व ।

राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम ।
तनु परिहरि रघुवर विरहं, राउ गयौ सुरधाम ॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङगलं श्रीमदाततं भुविगुणति ते मूरिदा जना: ॥

नाम पाहरू दिवस निसि घ्यान तुम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जन्त्रित  जाहिं प्रान केहि बाट ॥

भई छोडा, बन्धु छोडा, छोडा सगा सोई ।
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरा न कोई ॥
पति सुतान्वय भ्रातृबाँधवान ति विलघय तेऽन्त्यच्युता गता: ।
गतिविदस्तवोदगीत मोहिता:

कोई वस्तु में क्षण चित्त नव चोंटे, अलबेली आवी बेठो हैये जी रे;
दयाना प्रीतमजीने एटलुँ जै कहेजो, क्याँ सुधी आवाँ दु:ख सहीये जी रे ॥
सो हमें शीघ्र ही दर्शन देने की कृपा करें ।
मुझे दो दर्शन गिर्धारी, तोरी साँवरी सुरत पर वारी रे ।

ऐसी लगन लगाय कहाँ तूं जासी, कहाँ तूँ जासी ऐसी लगन लगाय ।
तुम देखे बिन कल न परत है, पडप तडप जिव जासी ॥

दरस बिन दूखन लागे नैन ॥
जब से तुम बिछुडे पिव प्यारे, कबहुँ न पायो चैन ।
शब्द सुनत मेरी छतियाँ काँपै, मीठे लागें बैन ।
एकटक ठाडीपंथ निहारूँ, भई छमासी रैना ॥
विरह विथा कासो कहूँ सजनी, वह गई करवत ऐन ।
मीराँ के प्रभु कब रे मिलोगे, दु:ख मेटन सुख दैन ।

रुद्रुदु:  सस्वरं राजन् कृष्णदर्शनलालसा: ।

वृन्दावनंपरित्यज्य पादमेकं न ग्च्छति ।

नहि साधनसम्पत्या हरिस्तुष्यति कस्याचत् ।
भक्तामां दैन्यमेवैकं हरितोषणसाधनम् ॥

न पारयेऽहं गिरवधसंयुजाँ स्वसाधुकृत्यं विबुधायुषापि व: ।
या मा भजनदुर्जरगेहश्रृंखला: संवृस्च्य तद् व: पतियातु साधुना ॥

प्रति उपकार करुं का तोरा ।
सन्मुख होइ न सकत मन मोरा ॥

वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकम् न गच्छति ।

ब्रजौकस: स्वान् दारान्
स्वापर्श्वस्थान् मन्थमाना: कृष्णय न आसूयन ।

भक्तिं परां भागवति प्रतिलभ्य काम, हद्रोगमाश्व पहिनो‍त्यचिरेण धीर: ।

विषयाक्रांतचिनाम् नविश: सर्बथा हरे: ।

एको देवो मन:  साक्षी ।

मुझे लागी लगन, मुझे लागी लगन ।
मुझे लागी लगन तेरे दर्शन की ॥
जैसे बन में  पईहा मन में, आश करे नित बरसनकी ॥ मुझे
गले बनमाला मुकट विशाला,
पीतवशन सुन्दर तनकी ॥ मुझे
मणिकटि ऊर चरणन नुपूर,
कर में गदा सुदर्शन की ॥ मुझे
चरण कमल युग परसन की ॥ मुझे

तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु ।

ब्रम्हा तू हौं जीव हौं, तू ठाकुर हौं चेरो ।
तात, मात, गुरु, सखा तू, सब विधि हितू म्रेरो ॥
तोहिं मोहिं नाते आनेक मनैये जो भावै ।
ज्यों त्यों तुलसी कृपालु चरन - सरन पावैं ।

ये यथा माम् प्रपद्यंते तोंस्तथैव भजाम्यहम् ।
जैसी जिसकी भावना होगी, वैसी सिद्धि होगी ।
याद्दशी भावना यस्य सिद्धिर्भर्वात ताद्दशी ।

विसृञ्य लज्जाँ रुरुदु: स्म सस्वरं गोविंद दामोदर माधवेति ।

वृन्दावनं परित्यज्य पादमेकं न गच्छति ।

गोपियों की दशा भी देखिए :---
श्याम बिनु ब्रज सूनो लागे ।
सूनी कुञ्ज, तीर जमुना की सब सूनौ लागै ॥
श्याम बिनु चिअन नहीं आवै ॥

जहाँ काम तहाँ राम नहिं, जहाँ राम, नहि काम ॥
तुलसी कबहुँ न रहि सकैं, रवि - रजनी एक ठाम ॥

मल्वानामसनिर्नृणं नरवर: स्त्रीणं स्मरो मूर्त्तिमान् ।
गोपानां स्वजनऽसतां क्षितिभुजां शास्ता सिपित्रो शिशु: ।
मृत्युर्भोजपतेर्बिराटविदुषां तत्त्वं परं योगिनां ।
वृष्णेनां परमदेवेति विदितोंग गतं साग्रज: ।

जिन्ह की रही भावना जैसी ।
प्रभु मूरति देखी तिन्ह तैसी ॥

जय जय यज हनुमान गुसाईं ।
कृपा करोगुरुदेव की नाईं ॥

वार देव: सर्वमिति ।

ऊधो मोहि व्रज विसरत नाहीं ॥
वृन्दावन गोकुल वन - उपवन, सघन कुञ्ज की छाँही ॥
प्रात समय मात जसुमती अरु नन्द देखि सुख पावत ।
माखन रोटी दहयो सकाय, अति हित साथ खवावत ॥
गो ग्वाल बाल सङ्ग खेलत, सबदिन हँसत सिरात ।
सूरदास धनि - धनि व्रेजवासी, जिन सौ हित जदुतात ॥

प्रेम को सन्देसो ऊधो पाति ना पठाय ।

ऊधो इतनी कहियो जाइ ।
हम आवहिंगे दोऊ भैया मैया जनि अकुलाइ ॥
वाको विगल बहुत हम मान्यो जो कहि पठयौ धाइ ।
वह गुन हकमो कहा बिसरिहैं बडे किए पय प्याइ ॥
और जु मिलौ नन्दबाबा सों तौं कहियो समुझाइ ।
तौलौं दु:खी होन नहिं पावै धवरी धूमरि गाइ ॥
जद्यपि यहाँ अनेक भाँति सुख तदपि रहयौ नहिं जाइ ।
सरदास देखौं व्रजवासिन तबहिं हियो हरखाइ ॥

ता मन्मनस्कार मत्प्राण मदर्थे त्यक्तदैहिका: ।

बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजै ॥
तब वे लता लगति अति शीतल,
अब भइँ विषम ज्वाल की पुंजैं ॥
वृथा बहति जमुना, खग बोलत,
वृथा कमल फूलै अलि गुंजै ।
पवन, पानि, घनसार, सजीवनि,
दधि - सुत - किरन भानु भइँ भुंजैं ॥
ये ऊधो कहियो माधवसों,
विरह करद कर मारत लुंजैं ।
सूरदास प्रभु को मग जोवत,
अँखियाँ भई बरन ज्यों गुंजैं ॥

अपि स्मरति न: कृष्ण मातरं सुह्रद: सखीन् ।
गोपान् व्रजं चात्मानाथं गावो वृन्दावनगिरिम् ॥

चितचैन नहीं, चितचोर चुरायो है ।

ऊधो मन न भये दस बीस ।
एक हुतो सो गयो श्याम संग को आराधै ईश ॥
इद्रिय शिथिल भईं केशव बिनु, ज्यों देही बिनु शीश ।
आसा लागि रहित तन स्वासा, जीवहिं कोटि बरीस ॥
तुम सो सखा श्याम  सुन्दर के, सकल जोग के ईश ।
सूर हमारे नन्द नन्दन बिनु और नहीं जगदीस ॥

दुस्त्त्ययजस्तत्कथार्थ: ।

नाहिंन रहयो हिय में ठौर ।
नन्द नन्दन अछत कैसे आनिये उर और ।
चलत चितवन दिव्स जागत, स्वप्न सोवत रात ॥
ह्रदयतें वह श्याम मूरति, छिन न इत उत जात ॥
श्याम गात सरोज आनन, ललित गति मृदु हास ।
सूर ऐसे रूप कारन, मरत लोचन प्यास ॥

सूखकर कांटा हुआ तन, बिकल बेहाल मन ।
बाल बिखरे शुष्क थे मुरझा हुआ था विधु - वदन ॥
वह निकलती आह थी, थी आँख आँसू से भरी ।
वसन अस्तव्यस्त थे, थी दु:खलता पूरी हरी ॥

बिना राधे कृष्ण आधे ।

मनसो वृत्तयो न: स्यु: कृष्णपादाम्बुजाश्रया: ।
वाचोऽभइधायिनीनीर्नाम्नां नायस्तत्मह्रणदिषु ॥
कर्मभिर्म्राम्यमाणनां यत्र क्वापीश्वरेच्छया ।
मङ्गलाचरितैर्दानैरतिर्न: कृष्ण ईश्वरे ॥

मंदारमूले वदनाभिरामं विम्बाधरे पूर्तवेणुनादम् ।
गोगोपगोपीजनमध्यसंस्थं गोविंद दामोदर माधवेति ॥

छुटी कैद सिंहासन पाया । हरि ही तिलक साथ ले आया ॥
श्याम - कृपा सब मंगल साज । उग्रसेन अब यादव राज ॥

राम राम कहि राम कहि, राम राम कहि राम ।
तनु परिहरि रघुवर विरहं, राउ गयु सुरधाम ॥

तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडितं कल्मषापहम् ।
श्रवणमङ्गलं श्रीमदाततं भुविगुणति ते मूरिदा जना: ॥

नाम पाहरू दिवस निसि घ्यान उम्हार कपाट ।
लोचन निज पद जन्त्रित जाहिं प्रान केहि बाट ॥

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Last Updated : November 11, 2016

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