अथ चिरपटजी की सबदी
सिद्धसिद्धान्तपद्धतिः हा ग्रंथ गोरक्षनाथांनी हठ योगावर लिहीला आहे.
The Siddha Siddhanta Paddhati is a very early extant Hatha Yoga Sanskrit text attributed to Gorakshanath.
काया तरवर माकड चित । डालै पातै भरमै नित ।
कलपै झलपै दहदिस जाइ । तिस कारणि कोई सिध न भाई ॥१॥
ढील कछोटी मनभंग फिरै । घरि घरि नैन पसारा करे ।
षाया झरै न बाचा फुरै । ता कारणि मूहू झरि झरि मरै ॥२॥
मन चंचल पवनां चंचल । चंचल बाई धारा ।
या घटि मधि तीनूं चंचल । क्यूं राषिब्य झरता पिंडका द्वार ॥३॥
नाथ कहां बै सकै न नाथ । चेला पंच चलावै साथि ।
मांगै भिष्या भरि भरि षाइ । नाथ कहां वै मरि मरि जाई ॥४॥
दरसण पहरै नाथ कहावै । मुषि बोलै चतुराई ।
आलै काष्ट जूं घुन लागै । डाल मूल घडिं षाई ॥५॥
टीका हामां टमकली । बोलत मधुरी बांनी ।
चरपट कहै सुनिहो नागा अरजन । यास्यौरां की सहनांवी ॥६॥
रंगाचंगा बहौ दीदारी । जैसे षोटी मूंहर पलमांधारी ।
चरपट कहै सुणै रे लोई । बरतण छै पणि ओग न होई ॥७॥
ऐक सेत पटा ऐक सील पटा । ऐक टसर कैटी कालंबजटा ।
ऐक पंथ छाडि मन उबट बटा । चरपट कहै ऐ पेट नटा ॥८॥
राती कंथा रापट रोल । पगां पावडी मुषां तं बोलै ।
षांजै पीजै कीजै भोग । चरपटं कहै बिगाड्या जोग ॥९॥
पहरि मूदडीं कंकण हाथि । नकटी बूची जोगणि साथि ।
उठत बैठत का झनकार । तजि सक्या नमाया जंजार ॥१०॥
जंजाल आगै जंजाल पीछै । जंजाल क्युं मांर कै मांडै ।
सो जंजाल तजि फिरि जोगी हूवा । सो जंजाल फिरिमांडै ॥११॥
षाकर कूकर कीगर हाथि । बोली भोली तरणी साथि ।
दिनकर भिष्या रात्पूं भोग । चरपट कहै बिगोवै जोग ॥१२॥
गंग बिगंधा मूता षांड । पसवा पडि पडि तौडे हाड ।
ज्याहन बंची आंगुलच्यारि । चरपट कहै ते माथै मारि ॥१३॥
जलकी भीत पिवनका थंमा । देवल देष्यर भया अचंमा ।
बाहरि भीतरि गंधम गंधा । काहे मूलोरे पसवा अंधा ॥१४॥
आंषि की टगटगी नाककी डांडी । चांमकी चंद्री यारुघ्रसू मांडी ।
मल प्रसेद सुरति जहां सूदा । अहार की कोथली नरक का कूंडा ॥१५॥
मनका बासा जहां मासकालूचा । सिष्टिकाद्वारजहां केसका कूचा ।
गंधविगंधा जहां चार विचारी । चरपट चाल्यौ मात जुहारी ॥१६॥
चामकी कोथली चामका सूवा । तास की प्रीति करि जगत सबमूवा
देव गंध्रप मानव जेता । उबरचा ऐकको गुरमुखचेता ॥१७॥
फोकट फोकट कथै गयान । कूटै चमडी धरै ध्ययान ।
सिध पुरषां सूंकरै उपाधी । चरपट कहै ऐ कलियुगके बादी ॥१८॥
सिध कहै वै भुगतैं भग । ताका काला मुष अर पीला पग ।
कूटै चमडी धरै ध्ययान । ताप सुवामैं कहा गियांन ॥१९॥
चरपट कहै सुणीरे अवधू । कामणि संग न कीजै ।
झिंद बिंद नव नाडी सोषै । दिनदिन काया छीजै ॥२०॥
जतन करंता जाइ सुजाइ । भग देषि जिन घालै घाव ।
कोटि बरष लूं बाढे आव । सति सति भाषंत श्रीचरपटराव ॥२१॥
चरपट चीरचक्र मनकंथा । चितचमां ऊं करंना ।
जैसीं करनी करौ रे अवधू । ज्यूं बहौर न होई मरनां ॥२२॥
दिढकरि मनवा थिर करि चित । काया पवन पषालै नित ।
अभए भऐ जूं थिर हवै कंध । उडैन हंसा लागै बंध ॥२३॥
अवधू मूल दवारै दीजे बंध । बाई षेलै चोटि संघ ।
जुरा पलटै षंडै रोग । बोलै चरपट धनिधनि जोग ॥२४॥
बंध सबंध विषैय करि बंद । तलि करि रवि उपरिकरिचंद ।
राति द्यौंस रस चरपट पीया । षटैतेलन बूझै दीया ॥२५॥
जौवूं रावल षरा सयानां । हंसि किन बांधे टाटी ।
बारा आंगुल पसि गई है । सोला आंगुल फाटी ॥२६॥
पवना कंथा नलए बास । पिसन न कोई आवै पास ।
मन सू मतौ गुझ ग्यान बिद्रूत । चरपट कहै धनिअवधूत ॥२७॥
निरभै निसंक ते ततबेता । मन मानि विवरजित इंद्रीजिता ।
सेत फटिक मणि ग्यान रता । चरपट कहौ ऐ सिध मता ॥२८॥
साधै मूषर मारै निंद । सुपेन झरिबा देयन बिंद ।
पडै न पिंड न झपै रोग । चरपट बोलै ऐसिध जोग ॥२९॥
भरथर चरपट गोपीचंद । बंद्यौ पूरण प्रेमानंद ।
षीर षांड घृत छाडयौ भोग । राष्यौ आत्म साध्यौ जोग ॥३०॥
तांबा तूंवा दोऊं सूचा । राजा जोगी दोऊं ऊंचा ।
तांबा डूंबै तूंबा तिरै । जीवै जोगी राजा मरे ॥३१॥
ऊजल कंथ बिगेडे बास । कामनि अंग न मेलै पास ।
दिढकरि राषै पांचूं इंद्री । बोलै चरपट ते जोग्यंद्री ॥३२॥
कर प्रभिछया वृषतलि बास । कामनि अंग न मेलै पास ।
बन षंडर है मसाना भूत । चरपट बोलै ते अवधूत ॥३३॥
रूषं वृष गिरकंदनिवास । दोइ जन अंग न मेलै पास
पलटै काया षंडै रोग । चरपट बोलै ते धनि जोग ॥३४॥
रष्या चरपट विवरजित कंथा । पुण्यांपुणि विवरजित पंथा ।
स्वादास्वाद विवरजित तुंड । सुख मानाजावत मुंडै मुंड ॥३५॥
मन नहीं मूडै केस । केसा मूंड्या क्या उपदेस ।
मूडै नहीं मन मरदका मान । चरपट बोलै तत्तगयांन ॥३६॥
धींगा धींगी मुस्ता मुस्ती । बहौत चौर बाजारी ।
आपगुर निंदै पर गुर बंदै । लडबडीया लषच्यारी ॥३७॥
झोली पाई पत्र पाया । पाया पंथ का भेव ।
रीता जाऊं भरीया आऊं । कहा करै गुरदेव ॥३८॥
सहज सुभाइ भिष्या मांगिबा । संजे मे भजन करणा ।
आसण दिढ करि बैसिबा अवधू । मन मुष भटकिन मरणा ॥३९॥
फोकट आवै फोकट जाइ । फोकट बोलै फोकट षाइ ।
फोकट बैठो करै विवांद । चरपट कहै सब उपाधि ॥४०॥
बामै हाथि कमंडल दाहिणै डंड । मोडोचक्र पूजो हो भंड ।
बैठौ तुम आगै रंड । चरपट कहै ऐ सब पाषंड ॥४१॥
भेष लीया सो भेद न पाया । घर छाड्या प्रवजी न माया ।
नाथ विसारि निडर जग जोया । सांग बनाइ सुषीहवै सोया ॥४२॥
ना धरि त्रिया नां धरि बरता । ना धरि धावून जोवर मंता ।
ना धरि पुत्र न धीव कवारी । तातै चरपट नीद पियारी ॥४३॥
दिन उठि घर घर दीन्ही फेरी । अंतरि उलटि न आत्मा हेरी ।
पात्र पूरया पेट फूलाया । मांगी भिष्या गटकाषाया ॥४४॥
गटका षाया मगर सचाया । जैसें सहर का कूता ।
जोग जुगति की - षबरि न पाई । कांन फडाइ बिगूता ॥४५॥
आई न छोडूं लेवान जाऊं । तातै मेरा चरपट नाऊं ।
आई भी छोडी ऐ लेबा भी जाई ऐ । गोरष कहै पूता-व्याचारि विचारी षाइ ऐ ॥४६॥
सति चलणां सुरबाइकथीर । निसदिनकाया गहर गंभीर ।
जत सत सुनिखरत षिमां बहूत । बंदत चरपट ते अवधूत ॥४७॥
हसणां जोगी रगणी सांडि । पुरष कुलछन बेस्या नारी ।
कवि लजालू निलजी नारि । चरपट कहैते मांथै मारि ॥४८॥
कांने मुद्रा गलि रुद्राषि । फिरिफिरि मांगै निपजी माषि ।
चरपट कहै सुणौरे सोई । बरतण है पाणी जो गन होई ॥४९॥
कोरा मांगै काचा मांगै । मांगै सूत कपासा ।
चरपट कहै सुणो रे अवधू । बिन राडी घरबासा ॥५०॥
पगेचमांऊं माथै टोय । गलमैं बागा मन मैं कोय ।
माया देषि पसारा करै । चरपट कहै विन आई मरै ॥५१॥
छज्र कछोटी चाषै पांन । तीरथ जाइ उगा है दान ।
करै बैदगी जिवावै रोगी । चरपट कहै विगूता जोगी ॥५२॥
जटाबिट बन अंगे छार । मोटी कंथा कहौ बिसतार ।
बिचत्र बांनी अंगाचंगा । बटबामी वै बहुविधिरंगा ॥५३॥
मदै मांसै लावै चित्त । ग्यांन विवरजित गावै गित ।
यह निस न्याई भोग बिलास । चरपट बोलै कंधविनास ॥५४॥
कथणी बदणी बलि बलिजाब । बांधि सकै तौ बंधौ बाव ।
चरपट कहै पवन की डोरी । भूंकत गधवा ले गया चोरी ॥५५॥
न जानैं ऊंची झष धरम । ऊंचा मंदिर कूडी करम ।
चरपट कहै सुनौरे लोका । रतन पदारथ गमायौ फोका ॥५६॥
ऐकै पथर ऊपरै पाव । दूजा पार्थर ऊपर भाव ।
चरपट कहै उनीका भेव । यौ क्यूं पाथर यौ क्यूं देव ॥५७॥
पूजि पूजि भाठा सब जग घाठा । निजततर ह्या निनार ।
जोति सरूपी संगिही आछै । तिसका करौ विचार ॥५८॥
पूहिबा तौ आत्मदेव पूजिबा । चढाइवा तौ अनादि पाती ।
चरपट कहै कहूं भटकि न मरना । घटि घटि तीरथ जाती ॥५९॥
॥ इति चरपटजी की सबदी संपूर्ण ॥
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Last Updated : November 25, 2016
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