बेषधारी हरिके उर सालैं ।
लोभी, दंभी, कपटी नट-से, सिस्त्रोदरको पालैं ॥१॥
गुरु भये घर घरमें डोलैं, नाम धनीको बेंचैं ।
परमारथ सपने नहिं जानैं पैसनहीको खैंचैं ॥२॥
कबहुँक बकता ह्वै बनि बैठे, कथा भागवत गावैं ।
अरथ अनरथ कछू नहिं भाषैं, पैसनहीकों धावैं ॥३॥
कबहुँक हरिमंदिरकों सेवैं, करैं निरंतर बासा ।
भाव भगतिकौ लेस न जानैं, पैसनहीकी आसा ॥४॥
नाचैं, गावैं, चित्र बनावैं, करैं काब्य चटकीली ।
साँच बिना हरि हाथ न आवै, सब रहनी है ढीली ॥५॥
बिनु बिबेक-बैरागय भगति बिनु सत्य न एकौ मानौ ।
भगवत बिमुख कपट चतुराई, सो पाखंडै जानौ ॥६॥
इतने गुन जामें सो संत ।
श्रीभागवत मध्य जस गावत, श्रीमुख कमलाकंत ॥
हरिकौ भजन साधुकी सेवा सर्वभूत पर दाया ।
हिंसा, लोभ, दंभ, छल त्यागै, बिषसम देखै माया ॥
सहनसील, आसय उदार अति, धीरजसहित बिबेकी ।
सत्य बचन सबसों सुखदायक, गहि अनन्य ब्रत एकी ॥
इंद्रीजित, अभिमान न जाके, करै जगतकों पावन ।
भगवतरसिक तासुकी संगति तीनहुँ ताप नसावन ॥