कृष्णैकादशी ( नानापुराणस्मृति ) -
यह व्रत चैत्रादि सभी महीनोंके शुक्ल और कृष्ण दोनों पक्षोंमें किया जाता है । फल दोनोंका ही समान है । शुक्ल और कृष्णमें कोई विशेषता नहीं है । जिस प्रकार शिव और विष्णु दोनों आराध्य हैं, उसी प्रकार कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षोंकी एकादशी उपोष्य है । विशेषता यह है कि पुत्रवान् गृहस्थ शुक्ल एकादशी और वानप्रस्थ, संन्यासी तथा विधवा दोनोंका व्रत करें तो उत्तम होता है । इसमें शैव और वैष्णवका भेद भी आवश्यक नहीं; क्योकि जो जीवमात्रको समान समझे, निजाचारमें रत रहे और अपने प्रत्येक कार्यको विष्णु और शिवके अर्पण करता रहे, वही शैव और वैष्णव होता है । अतः दोनोके श्रेष्ठ बर्ताव एक होनेसे शैव और वैष्णवोंमें अपने - आप ही अभेद हो जाता हैं । इस सवोंत्कृष्ट प्रभावके कारण ही शास्त्रोंमें एकादशीका महत्त्व अधिक माना गया है ।........ इसके शुद्धा और विद्धा - ये दो भेद हैं । दशमी आदिसे विद्ध हो, वह ' विद्धा ' और अविद्ध हो वह ' शुद्धा ' होती है । इस व्रतको शैव, वैष्णव और सौर - सब करते हैं । वेधके विषयमें बहुतोंके विभिन्न मत हैं । उनको शैव, वैष्णव और सौर पृथक् - पृथक् ग्रहण करते हैं ।
( १ ) सिद्धान्तरुपसे उदयव्यापिनी ली जाती है । परंतु उसकी उपलब्धि सदैव नहीं होती । इस कारण
( २ ) कोई पहले दिनकी ४५ घड़ी द्शमीको त्यागते हैं ।
( ३ ) कोई ५५ घड़ीका वेध निषिद्ध मानते हैं ।
( ४ ) कई दशमी और द्वादशीके योगकी एकादशीको त्यागकर द्वादशीका व्रत करते है ।
( ५ ) कई एकादशीको ही उपोष्य बतलाते हैं ।
( ६ ) मत्स्यपुराणके मतानुसार क्षय एकादशी निषिद्ध होती है ।
( ७ ) जिस दिन दशमी अनुमान १।१.५, एकादशी ५७।२२ और द्वादशी ४५ से जितनी ज्यादा हो उतना ही ज्यादा बुरा वेध होता है । यथा ४५ का ' कपाल'. ५२ का ' छाया ', ५३ का ' ग्रासाख्य ', ५४ का ' सम्पूर्ण ', ५५ का ' सुप्रसिद्ध ', ५६ का ' महावेध ', ५७ ' राक्षससाख्य ' वेध होता है । ये सब साम्प्रदायिक वेध हैं । और
( ९ ) वैष्णवोंमें ४५ तथा ५५ का वेध त्याज्य होता है..........एकादशीके
१ उन्मीलिनी, २ वञ्जुली, ३ त्रिस्पृशा, ४ पक्षवर्धिनी, ५ जया, ६ विजया, ७ जयन्ती और ८ पापनाशिनी - ये आठ भेद और हैं । इनमें त्रिस्पृशा ( तीनोंको स्पर्श करनेवाली ) एकादशी ( यथा सूर्योदयमें एकादशी, तत्पश्चात् द्वादशी और दूसरे सूर्योदयमें त्रयोदशी हो वह ) महाफल देनेवाली मानी गयी है । ........ एकादशीके नित्य और काम्य दो भेद हैं । निष्काम की जाय, वह ' नित्य ' और धन - पुत्रादिकी प्राप्ति अथवा रोग - दोषादिकी निवृत्तिके निमित्त की जाय, वह ' काम्य ' होती है । नित्यमें मलमास या शुक्रास्तादिकी मनाही नहीं; किंतु काम्यमें शुभ समय होनेकी आवश्यकता है । व्रतविधि सकाम और निष्काम दोनोंकी एक है । यदि असामर्थ्य अथवा आपत्ति आदि अमिट कारणोंसे नित्य व्रत न किया जा सके तो एकभक्त, नक्तव्रत, अयाचित अथवा दूसरेके द्वारा व्रत हो जाय तो कोई दोष नहीं । यद्यपि दिनक्षय, सूर्यसंक्रान्ति और चन्द्रादित्यके ग्रहणमें व्रत करना वर्जित है; किंतु एकादशीके नित्य व्रतके लिये ऐसे अवसरमें भी फल - मूलादिसे परिहार कर लेनेकी आज्ञा है । यदि एकादशीके नित्य - व्रतके दिन ( माता - पिता आदिका ) नैमित्तिक श्राद्ध आ जाय तो श्राद्ध और उपवास दोनों करे; किंतु श्राद्धीय भोजनको ( जिस पुत्रको भी करना चाहिये ) दाहिने हाथमें लेकर सूँघ ले और गौको खिलाकर स्वयं उपवास रखे ।..... व्रतके दूसरे दिन पारण किया जाता है । उस दिन यदि द्वादशी बहुत कम हो और नित्य - कर्मके पूर्ण करनेमें देर लगे तो प्रातःकाल और मध्याह्लकालके दोनों काम उषःकालमें कर ले । यदि संकटवश पारण न हो सके तो केवल जल पीकर पारण करे । इनके अतिरिक्त अन्य विधान आगे वैशाखादिके व्रतोंमें यथास्थान दिये गये हैं ।....... एकादशीका व्रत करनेवालको चाहिये कि वह प्रथमारम्भका व्रत मलमासादिमें न करे । गुरु - शुक्रके उदयके चैत्र, वैशाख, माघ या मार्गशीर्षकी एकादशीसे आरम्भ करके श्रद्धा, भक्ति और सदाचारसहित सदैव करता रहे । व्रतके ( दशमी, एकादशी और द्वादशी - इन ) तीन दिनोंमें कांस्यपात्र, मसूर, चने, मिथ्याभाषण, शाक, शहद, तेल, मैथुन, द्यूत और अत्यम्बुपान - इनका सेवन न करे । ..........व्रतके पहले दिन ( दशमीको ) और दूसरे दिन ( द्वादशीको ) हविष्यान्न ( जौ, गेहूँ, मूँग, सेंधा नमक, काली मिर्च, शर्करा और गोघृत आदि ) का एक बार भोजन करे । दशमीकी रातमें एकादशीके व्रतका स्मरण रखे और एकादशीको प्रातःस्त्रानादि नित्यकर्मसे निवृत्त होकर ' मम कायिकवाचिकमानसिकसांसर्गिकपातकोपपातकदुरितक्षयपूर्वकश्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्तये श्रीपरमेश्वरप्रीतिकामनय विजयैकादशीव्रतमहं करिष्ये ' यह संकल्प करके जितेन्द्रिय होकर श्रद्धा, भक्ति और विधिसहित भगवानका पूजर करे । उत्तम प्रकारके गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदि अर्पण करके नीराजन करे । तत्पश्चात् जप, हवन, स्तोत्रपाठ और मनोहर गायन - वादन और नृत्य करके प्रदक्षिणा और दण्डवत् करे । इस प्रकार भगवानकी सेवा और स्मरणमेम दिन व्यतीत करके रात्रिमें कथा, वार्ता, स्तोत्रपाठ अथवा भजन आदिके साथ जागरण करे । फिर द्वादशीको पुनः पूजन करनेके पश्चात् पारण करे । .......यद्यपि एकादशीका उपवास अस्सी वर्षकी आयु होनेतक करते रहना आवश्यक है किंतु असामर्थ्यादिवश सदैव न बन सके तो उद्यापन करके समाप्त करे । उद्यापनमें सर्वतोभद्रमण्डलपर सुवर्णादिका कलश स्थापन करके उसपर भगवानकी स्वर्णमयी मूर्तिका शास्त्रोक्त - विधिसे पूजन करे । घी, तिल, खीर और मेवा आदिसे हवन करे । दूसरे दिन द्वादशीको प्रातःस्त्रानादिके पीछे गोदान, अन्नदान, शय्यादान, भूयसी आदि देकर और ब्राह्मण - भोजन कराकर स्वयं भोजन करे । ब्राह्मण - भोजनके लिये २६ द्विजदम्पतियोंको सात्त्विक पदार्थोंका भोजन कराके सुपूजित और वस्त्रादिसे भूषित २६ कलश ( प्रत्येकको एक -एक ) दे । ......चैत्र कृष्ण एकादशी ' पापमोचिनी ' है । यह पापोंसे मुक्त करती है । च्यवन ऋषिके उत्कृष्ट तपस्वी पुत्र मेधावीनी मञ्जघोषाके संसर्गसे अपना सम्पूर्ण तज - तेज खो दिया था, किंतु पिताने उससे चैत्र कृष्ण एकादशीका व्रत करवाया । तब उसके प्रभावसे मेधावीके सब पाप नष्ट हो गये और वह यथापूर्व अपने धर्म - कर्म, सदनुष्ठान और तपश्चार्यामें संलग्न हो गया ।
१. संसाराख्यमहाघोरदुःखिनां सर्वदेहिनाम्
एकादश्युपवासोऽयं निर्मितं परमौषधम् ॥ ( वसिष्ठ )
एकारर्शी परित्यज्य योऽन्यद्वतमुपासते ।
स करस्थं महारत्नं त्यक्त्वा लोष्ठं हि याचते ॥ ( स्मृत्यन्तर )
अष्टवर्षाधिको मत्यों ह्नपूर्णाशीतिवत्सरः ।
एकादश्यामुपसेत् पक्षयोरुभयोरपि ॥ ( कात्यायन )
२. वैष्णवो वाथ शैवो वा सौरोऽष्येतत् समाचरेत् । ( सौरपुराण )
३. अरुणोदय आद्या स्याद् द्वादशी सकलं दिनम् ।
अन्ते त्रयोदशी प्रातस्त्रिस्पृशा सा हरेः प्रिया ॥ ( ब्रह्मवैवर्त०)
४. एकभक्तेन नक्तेन तथैवायाचितेन च ।
उपवासेन दानेन न निर्द्वादशिको भवेत् ॥ ( मार्कण्डेय )
५. दिनक्षयेऽर्कसंक्रान्तौ ग्रहणे चन्द्रसूर्ययोः ।
उपवासं न कुर्वीत पुत्रपौत्रसमन्वितः ॥ ( मत्स्यपुराण )
४. उपवासो यदा नित्यः श्राद्धं नैमित्तिकं भवेत् ।
उपवासं तदा कुर्यादाघ्राय पितृसेवितम् ॥ ( कात्यायन )
६. स्त्रात्वा सम्यग् विधानेन सोपवासो जितेन्द्रियः ।
सम्पूज्य विधिवद् विष्णुं श्रद्धया सुसमाहितः ॥
पुष्पैर्गन्धैस्तथा धूपैर्दीपैर्नैवेद्यकैः परैः ।
उपचारैर्बहुविधैर्जपहोमप्रदक्षिणैः ॥
स्तोत्रैर्नानाविधऔर्दिव्यैर्गीतवाद्यमनोहरैः ।
दण्डवत् प्रणिपातैश्च जयशब्दैस्तथोत्तमैः ॥
गीतैर्वाद्येः संस्तवैश्च पुराणश्रवणादिभिः ।
एवं सम्पूज्य विधिवद् रात्रौ कृत्वा प्रजागरम् ॥
याति विष्णोः परं स्थानं नरो नास्त्यत्र संशयः । ( ब्रह्मपुराण )