वारुणीयोग - ( वाचस्पति - निबन्ध ) -
यह पुण्यप्रद महायोग तीन प्रकारका होता है । पहला चैत्र कृष्ण त्रयोदशीको वारुण नक्षत्र ( शतभिषा ) हो तो ' वारुणी', दूसरा उसी दिन शतभिषा और शनिवार हो तो ' महावारुणी ' होता है । इस योगमें गङ्गदि तीर्थस्थानोंमें स्त्रान, दान और उपवासादि करनेसे शतशः सूर्यग्रहणोंके समान फल होता है । उस दिनका पुण्यकाल पञ्चाङ्से ज्ञात हो सकता है । ( उदाहरणार्थ तीनों योग इस प्रकार हैं । चैत्र कृष्ण त्रयोदशी १३।७, शतभिषा १७।५ - इस दिन प्रातः १३।७ तक ' वारुणी '; चैत्र कृष्ण १३ शनिवार ५।१५, शतभिषा ३०।३२ - इस दिन ५।१५ तक महावारुणी; और चैत्र कृष्ण १३ शनिवार ५०।५५, शतभिषा २२।२० और शुभयोग १३।७ - इस दिन पूर्वाह्नमें १३ घड़ी ७ पलतक महामहावारुणी मानना चाहिये । त्रयोदशीमें नक्षत्रादि जितनी देर रहें उतनी घड़ीतक वारुनी आदि रहते हैं । )
चैत्रासिते वारुणऋक्षयुक्ता त्रयोदशी सुर्यसुतस्य वारे ।
योगे शुभे सा महती महत्या गङ्गजलेऽर्कग्रहाकोटितुल्या ॥ ( त्रिस्थलीसेतु )