अँखियाँ हरि-दरसन की प्यासी ।
देख्यो चाहत कमल नैनको, निशिदित रहत उदासी ॥१॥
केसर तिलक मोतिनकी माला, बृन्दावनके बासी ।
नेह लगाय त्यागि गये तृन सम, डारि गये गल फाँसी ॥२॥
काहूके मनकी को जानत, लोगनके मन हाँसी ।
’सूरदास’ प्रभु तुम्हारे दरस बिनु लेहों करवत कासी ॥३॥