थे तो पलक उघाड़ो दीनानाथ-
मैं हाजिर-नाजिर कदकी खड़ी ॥ टेर॥
साजनियाँ दुसमण होय बैठ्या,
सबने लगूँ कड़ी ।
तुम बिन साजन कोई नहीं है,
डिगी नाव मेरी समँद अड़ी ॥१॥
दिन नहीं चैन रैण नहिं निंदरा,
सूखूँ खड़ी खड़ी ।
बाण बिरहका लग्या हियेमें,
भूलूँ न एक घड़ी ॥२॥
पत्थरकी तो अहिल्या तारी,
बनके बीच पड़ी ।
कहा बोझ मीरामें कहिये,
सौ पर एक धड़ी ॥३॥