आज हरि आये विदुर-घर पावणा ॥टेक॥
विदुर नहीं घर थी विदुरानी, आवत देखे सारंग पाणी ।
फूली अंग समावे न चिन्त्या, भोजन कहाँ जिमावणा ॥१॥
केला भोत प्रेमसों ल्याई, गिरी-गिरी सब देत गिराई ।
छिलका देत श्याम-मुख माही, लागे भोत सुहावणा ॥२॥
इतने माँय विदुरजी आये, खारे-खोटे वचन सुनाये ।
छिलका देत श्याम-मुख माँही, कहाँ गमाई भावना ॥३॥
केला लिया विदुर कर माँही, गिरी देत गिरधर मुख माँही ।
कहे कृष्णजी सुनो विदुरजी ! वो स्वाद नहीं आवणा ॥४॥
बासी-कूसी, रुखे-सूखे, हम तो विदुर जी ! प्रमके भूखे ।
शम्भु सखी धन-धन विदुरानी, भक्तन मान बढ़ावणा ॥५॥