रोमहर्षण (सूत) n. एक सूतकुलोत्पन्न मुनि, जो समस्त पुराणग्रंथों का आद्य कथनकर्ता माना जाता है । पुराणों में प्राप्त परंपरा के अनुसार, यह कृष्ण द्वैपायन व्यास के पाँच शिष्यों में से एक था । समस्त वेदों की चार शाखाओं में पुनर्रचना करने के पश्चात्, व्यास ने तत्कालीन समाज में पाप्त कथा, आख्यायिका, एवं गीत (गाथा) एकत्रित कर, आद्य पुराणग्रंथों की रचना की, जो उसने सूतकुल में उत्पन्न हुए रोमहर्षण को सिखाई । रोमहर्षण ने इसी पुराणग्रन्थ के आधार पर आद्य पुराणसंहिता की रचना की, एवं यह पुराणों का आद्य कथनकर्ता बन गया । भांडरकर संहिता में इसके नाम के लिए ‘लोमहर्षण’ पाठभेद प्राप्त है
[म. आ. १.१] । पुराण ग्रन्थों में इसका निर्देश कई बार केवल ‘सूत’ नाम से ही प्राप्त है, जो वास्तव में इसका व्यक्तिगत नाम न हो कर, जतिवाचक नाम था ।
रोमहर्षण (सूत) n. पुराणों में प्राप्त जानक्रारी के अनुसार, सूतकुल में उत्पन्न लोग प्राचीनकाल से ही देव, ऋषि, राजा आदि के चरित्र एवं वंशावलि का कथन एवं गायन का काम करते थे, जो कथा, आख्यायिका, गीत आदि में समाविष्ट थी । इसी प्राचीन लोकसाहित्य को एकत्रित कर, व्यास ने अपने आद्य पुराण ग्रंथ की रचना की । रोमहर्षण स्वयं सूतकुल में ही उत्पन्न हुआ था, एवं इसका पिता क्षत्रिय तथा माता बाह्मणकन्या थी । इसे रोमहर्षण अथवा लोमहर्षण नाम प्राप्त होने का कारण भी इसकी अमोघ वक्त्तृत्वशक्ति ही थी :--- लोमानि हर्षयांचले, श्रोतृणां यत् सुभाषितै: । कर्मणा प्रथितस्तेन लोकेऽस्मिन् लोमहर्षण: ।
[वायु. १.१६] ।(अपने अमोघ वक्त्तृत्वशैली के बल पर, यह लोंगों को इतना मंत्रमुख कर लेता था कि, लोग रोमांचित हो उठते थे, इसीलिए इसे लोमहर्षण वा रोमहर्षण नाम प्राप्त हुआ)
रोमहर्षण (सूत) n. व्यास के द्वारा संपूर्ण इतिहास, एवं पुराणों का ज्ञान इसे प्राप्त हुआ, एवं यह समाज में ‘पुराणिक’
[म. आ. १.१] ; ‘पौराणिकोत्तम’
[वायु. १.१५] ;
[लिंग. १.७१, ९९] ; ‘पराणज्ञ’ आदि उपाधियों से विभूषित किया गया था । व्यास के द्वारा प्राप्त हुआ पुराणों का ज्ञान इसने अच्छी प्रकार संवर्धित किया, एवं इन्हीं ग्रन्थों का प्रसार समाज में करने का काम प्रारंभ किया
[भा. १.४.२२] ;
[विष्णुअ. ३.४.१०] ;
[वायु. ६०.१६] ;
[पद्म. सृ. १] ;
[अग्नि. २७१] ;
[ब्रह्मांड २.३४] ;
[कूर्म. १.५२] ।
रोमहर्षण (सूत) n. व्यास के द्वारा प्राप्त आद्य पुराण ग्रंथों की इसने छ: पुराणसंहिताएँ बनायीं, एवं उन्हें अपने निम्नलिखित शिष्यों में बाँट दी:---१. आत्रेय सुमति; २. काश्यय अकृतवर्ण; भारद्वाज अग्निवर्चस् ४. वसिष्ठ मित्रयु; ५. सावर्णि सोंदत्ति; ६. शांशापायन सुशर्मन्
[ब्रह्मांड. २.३५.६३-७०] ;
[वायु. ६१.५५-६२] । इनमें से काश्यप, सावर्णि एवं शांशापायन ने आद्य पुराणसंहिता से तीन स्वतंत्र संहिताएँ बनायी जो. उन्हीके नाम से प्रसिद्ध हुयीं । इस प्रकार रोमहर्षण की स्वयं की एक संहिता, एवं इसके उपर्युक्त्त तीन शिष्यों की तीन संहिताएँ इन चार संहिताओं को ‘मूलसंहिता’ सामूहिक नाम प्राप्त हुआ । इन संहिताओं में से प्रत्येक संहिता निम्नलिखित चार पादों (भागों) में विभाजित थी:-प्रक्रिया, अनुषंग, उपोदूघात एवं उससंहार । इन सारी संहिताओं का पाठ एक ही था. जिनमें विभेद केवल उच्चारों का ही था । शांशापायन की संहिता के अतिरिक्त्त बाकी सारे संहिताओं की श्लोकसंख्या प्रत्येकी चार हजार थी ।
रोमहर्षण (सूत) n. इन संहिताओं का मूल संस्करण आज उपलब्ध नही है । फिर भी आज उपलब्ध वायु, ब्रह्मांड जैसे प्राचीन पुराणों में रोमहर्षण, सावर्णि, काश्यपेय, शांशापायन आदि का निर्देश इन पुराणों के निवेदक के नाते प्राप्त है । इन आचायों का निर्देश पुराणों में जहाँ आता है, वह भाग आद्य पुराणसंहिताओं के उपलब्ध अवशेष कहे जा सकते हैं । उपलब्ध पुराणों में से चार पादों में विभाजित ब्रह्मांड एवं वायु ये दो ही पुराण आज उलब्ध हैं । उदाहरणार्थं वायु पुराण का विभाजन इस प्रकार है :---प्रथम पाद,-अ. १-६; द्वितीय पाद.-अ. ७-६४; तृतीय पाद.-अ. ६५-९९; चतुर्थ पाद.-अ. १००-११२ । अन्य पुराणों में आद्य पुराण संहिता का यह विभाजन अप्राप्य है । रोमहर्षण के छ: शिष्यों में से पाँच आचार्य ब्राह्मण थे, जिस कारण पुराणकथन की सूतजाति में चलती आयी परंपरा नष्ट हो गई, एवं यह सारी विद्या ब्राह्मणों के हाथों में चली गई । इसी कारण उत्तरकालीन इतिहास में उत्पन्न हुए बहुत सारे पुराणज्ञ एवं पौराणिक ब्राह्मण जति के प्रतीत होते हैं । इन प्रकार वैदिक साहित्यज्ञ ब्राह्मण, एवं पुराणज्ञ ब्राह्मण ऐसी दो शाखाएँ ब्राह्मणों में निर्माण हुयीं गयीं । इसके पुत्र का नाम उग्रश्रवस था, जिसे इसने व्यास के द्वारा विरचित ‘आदि पुराण’ की शिक्षा प्रदान की थी (व्यास, एवं सौति देखिये) । कई अभ्यासकों के अनुसार, आदि पुराण का केवल आरंभ ही व्यास के द्वारा किया गया था, जो ग्रंथ बाद में रोमहर्षण तथा इसके शिष्यों के द्वारा पूरा किया गया । युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय, यह अपने पुत्र उग्रश्रवस् के साथ उपस्थित था, एवं इसने उसे पुराणों का कथन किया था
[म. स. ४.१०] । उत्तरकालीन पुराण ग्रंथों में इसका एवं इसके पुत्र उग्रश्रवस् का नामनिर्देश कमश; ‘महामुनि’ एवं ‘जगदगुरु’ नाम से प्राप्त है
[विष्णु. ३.४.१०] ;
[पद्म, उ. २१९.१४-२१] ।
रोमहर्षण (सूत) n. एक बार नैमिषारण्य में द्दषद्वती नदी के तट पर एक द्वादशवर्षीय सत्र का आयोजन किया गया । शौनक आदि ऋषि इस सत्र के नियंता थे, एवं नैमिषारण्य के साठ हजार ऋषि इस सत्र में उपस्थित थे । एवं शौनक आदि ऋषियों ने व्यास के प्रमुख शिष्य के नाते रोमहर्षण को इस सत्र के लिए अत्यंत आदर से निमंत्रण दिया, एवं इसका काफी गौरव किया
[वायु. ८.२. ब्रह्मांड १.३३. नारद. १.१] । इस सत्र में शौनक आदि ऋषियों के द्वारा प्रार्थना किये जाने पर रोमहर्षण ने साठ हजार ऋषियों के उपस्थिति में निम्नलिखित पुराणों का कथन किया---१.ब्रह्मपुराण
[ब्रह्म. १] ; २.वायुपुराण
[वायु. १.१५] . ३.ब्रह्मांडपुराण
[ब्रह्मांड. १.१.१७] ; ४.ब्रह्मवैवर्तपुराण
[ब्रह्मवै. १.१.३८] ; ५.गरुडपुराण
[गरुड. १.१] ; ६.नारदपुराण
[नारद. १. १-२] ; ७.भागवतपुराण
[भा. १.३-११] इत्यादि ।
रोमहर्षण (सूत) n. इस प्रकार दस पुराणों का कथन समाप्त कर, यह ग्यारहवें पुराण का कथन कर ही रहा था कि, इतने में सत्रमंडप में बलराम का आगमन हुआ । उसे आता हुआ देख कर, सत्र में भाग लेने बाकी सारे ऋषियों ने उसे उत्थापन दिया । किन्तु व्रतस्थ होने के कारण, यह उत्थापन न दे सका । फिर क्रोध में आ कर बलराम ने इसका वध किया (बलराम देखिये) । इसकी मृत्यु के पश्चात, पुराणकथन का इसका कार्य इसके पुत्र उग्रश्रवस् ने आगे चलाया । अपने मृत्यु के पूर्व, इसने साढेदस पुराणों का कथन किया था, बाकी बचे हुए साडेसात पुराणों के कथन का कार्य इसके पुत्र उग्रश्रवस् ने पूरा किया ।
रोमहर्षण (सूत) n. पद्म में इसका वध किये जाने की तिथि आषाढ शुक्ल १२ बताई गई है
[पद्म. उ. १९८] । इस दिन के इसी दुःखद स्मृति के कारण, हरएक द्वादशी के दिन आज भी पुराणकथन का कार्यक्रम बंद रक्खा जाता है । महाभारत में प्राप्त कालनिर्देश से बलराम भारतीय युद्ध के समय तीर्थयात्रा करने निकल पडा था, उसी समय सूत का द्वाद्वशवर्षीय सत्र चल रहा था । इससे प्रतीत होता है कि, भारतीय युद्ध, नैमिषारण्य का द्वादशवर्षीय सत्र, एवं रोमहर्षण का पुराणकथन एक ही वर्ष में संपन्न हुये थे । यह जानकारी विभिन्न पुराणों में प्राप्त उनके रचनाकाल से काफी विभिन्न प्रतीत होती है । पुराणों में प्राप्त जानकारी के अनुसार, प्रमुख पुराणों की रचना निम्नलिखित राजाओं के राज्यकाल में हुयीं थी :--१.वायुपुराण-पूरुराजा असीमकृष्ण; २.ब्रह्मांड पुराणइक्ष्वाकुवंशीय राजा दिवाकर; ३. मत्स्यपुराण-मगधदेश का राजा सेनजित् (व्यास देखिये) ।
रोमहर्षण (सूत) n. इसके नाम पर निम्नलिखित ग्रंथ उपलब्ध हैं:--- १. सूतसंहिता---रोमहर्षण के द्वारा लिखित सूत संहिता स्कंद पुराण का ही एक भाग मानी जाती हैं । स्कंद पुराण की कुल छ: संहिताओं की रचना की गई थी, जिनके नाम निम्न थे:--- १.सनत्कुमार; २.सूत; ३. शांकरी; ४.वैष्णवी; ५.ब्राह्मी; ६.सौरी । इन छ; संहिताओं में मिल कर कुल पचास खण्ड थे । इनमें से सूत के द्वारा लिखित ‘सूतसंहिता’, आनंदाश्रम पूना के द्वारा प्रकाशित हो चुकी है, जो निम्नलिखित खण्डों में विभाजित है:--- १. शिवमाहात्म्यखण्ड; २.ज्ञानयोगखण्ड; ३. मुक्त्तिखण्ड; ४.यज्ञवैभवखण्ड; (अधोभाग एवं उपरिभाग) । इस ग्रंथ में शैवसांप्रदायान्तर्गत अद्वैत तत्वज्ञान का प्रतिपादन किया गया है । इस ग्रंथ पर माधवाचार्य के द्वारा लिखित एक टीका प्राप्त है । सूत के द्वारा लिखित ‘ब्रह्मगीता’ एवं ‘सूतगीता’ नामक दो ग्रंथ भी सूत संहिता में समाविष्ट हैं । २. ब्रह्मगीता---उपनिषदों के अर्थ का विवरण करनेवाला यह ग्रंथ सूतसंहिता के यज्ञवैभवकाण्ड में समाविष्ट है । इस ग्रंथ के कुल बारह अध्याय है, एवं उसमें शैवसांप्रदाय के तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया है । ३. सूतगीता---सूत-व्याससंवादात्मक यह ग्रंथ सूत संहिता के यज्ञवैभवकाण्ड में अंतर्भूत है । इस ग्रंथ के कुल आठ अध्याय हैं, एवं उसमें शैवसांप्रदाय के मतों का प्रतिपादन किया गया है । इस ग्रंथ पर भी माधवाचार्य की टीका उपलब्ध है ।
रोमहर्षण (सूत) n. जैसे पहले ही कहा गया है, रोमहर्षण का निर्देश अनेकानेक प्राचीन ग्रंथों में ‘सूत’ नाम से प्राप्त है, जो वास्तव में इसके जाति का नाम था । इस जाति के उत्पत्ति के संबंध में एक कथा वायु में प्राप्त है । पृथु वैन्य राजा के द्वारा किये गये यज्ञ में, यज्ञीय ऋत्विजों के हाथों एक दोषार्ह कृति हो गई । सोम निकालने के लिए नियुक्त किये गये दिन (सुत्या), ऐन्द्र हविर्भाव में बृहस्पति का हविर्भाग गलती से एकत्र किया गया, एवं उसे इंद्र को अर्पन किया गया । इस प्रकार, शिष्य इंद्र के हविर्भाग में गुरु बृहस्पति का हविर्भाग संमिश्र करने के दोषार्ह कर्म के कारण, मिश्रजाति के सूत लोगों की उत्पत्ति हो गई । क्षत्रिय पिता एवं ब्राह्मण माता से उत्पन्न संतान को प्रायः ‘सूत’ कहते थे । किन्तु कौटिलीय अर्थशास्त्र में मिश्रजाति के सूत लोग सूतवंशीय लोगों से अलग बताये गये हैं । पुराणों में इन लोगों के कर्तव्य निम्नप्रकार बतायें गयें है :--- स्वधर्म एवं सूतस्य सद्भिर्द्दष्ट: पुरातनै: । देवतानमृषीणां च राज्ञां चामिततेजसाम् ॥ वंशानां धारणं कार्यं श्रुतानां च महात्मनाम् । इतिहासपुराणेषु दिष्टा ये ब्रह्मवादिभि: ॥
[वायु. १.२६-२८] ;
[पद्म. सृ. २८] । (देवता. ऋषि एवं राजाओं में से श्रेष्ठ व्यक्तियों के वंशावलि को इतिहास, एवंव पुराण में ग्रथित एवं संरक्षित करना, यह सूत लोगों का प्रमुख कर्तव्य है) । किन्तु सूतों का यह कर्तव्य उच्च श्रेणि के सूतों के लिए ही कहा गया है । इसमें से मध्यम श्रेणि के लोग क्षात्रकर्म करते थे, एवं नीच श्रेणि के लोग रथ, हाथी एवं अश्व का सारथ्यकर्म करते थे । इसी कारण इन लोगों को रथकार नामान्तर भी प्राप्त था । इन तीनो श्रेणियों के सूतवंशीय लोग प्राचीन इतिहास में दिखाई देते है । उनमें से रोमहर्षण एवं इसका पुत्र उग्रश्रवस् उच्चश्रेणि के सूत प्रतीत होते हैं । कीचक, कर्ण आदि राजाओं को भी महाभारत में सूतपुत्र कहा गया है । किन्तु वहाँ उनके उनके सूत जाति पर नहीं, बल्कि उनके हीन जन्म की ओर संकेत प्रतीत होता है । वैदिक साहित्य में राजकर्मचारी के नाते सूतों (रथपालों) का निर्देश प्राप्त है
[पं. ब्रा. १९.१.४] ;
[का सं. १५.४] । भाष्यकार इसमें राजा के सारथि एवं अश्वपालक का आशय देखते हैं । एग्लिंलंग के अनुसार, ये लोग चारण एवं राजकवि थे । महाभारत में भी सूतों का निर्देश राजकीय अग्रदूत एवं चारण के रूप में आता है । यजुर्वेद संहिता में इनके लिए ‘अहन्ति’
[वा. सं. १६,१८] ; अथवा ‘अहन्त्य’
[तै. सं. ४.५.२.१] शब्द प्रयुक्त्त किया गया है, जो एक साथ ही चारण एवं अग्रदूत के इनके कर्तव्य की ओर संकेत करता है । राजसेवकों में इनकी श्रेणि महिषी एवं ग्रामणी इन दोने के बीच मानी जाती थी
[श. ब्रा. ५.३.१.५] । जैमिनि अश्वमेध में सूत जाति का निर्देश सेवक जातियों में किया गया है, एवं सूत, मागध एवं बन्दिन् लोग क्रमश: प्राचीन, मृत, एवं वर्तमान राजाओं के इतिहास एवं वंशावलि सम्हालने का काम करते थे, ऐसा निर्देश प्राप्त है
[जै. अ. ५५.४४.१] । इससे प्रतीत होता है कि, मुगल बादशहाओं के बखरनवीस जिस प्रकार का काम करते थे, वही काम प्राचीन काल में सूत लोगों पर निर्भर था । इनके समवर्ती मागध एवं बन्दिन् लोग राजा के स्तुतिपाठक का काम ही केवल करते थे, जिस कारण वे सूत लोंगों से काफी कनिष्ठ माने जाते थे । सूत, मागध, बन्दिन् एवं चारण लोगोंको कलिंग देश दान में देने का निर्देश प्राप्त है
[पद्म. भू. २९.] । पद्मके अनुसार, सूत लोगों को वेदों का अधिकार प्राप्त था, एवं इनके आचारविचार भी ब्राह्मण जति जैसे थें । मागध लोगों को वेदों का अधिकार प्राप्त न था, जो उनकी कनिष्ठता दर्शाता है ।
रोमहर्षण (सूत) n. इसके पुत्र का नाम उग्रश्रवस् था, जिसे रोमहर्षपुत्र, रोमहर्षणि, एवं सौति आदि नामांतर भी प्राप्त थे
[म. आ. १.१-५] ; सौति देखिये ।