चरक n. आयुर्वेदीय ‘चरकसंहिता’ नामक महान् ग्रंथ का कर्ता । यह विशुद्ध नामक ऋषि का पुत्र तथा अनन्त संज्ञक नाग का अवतार था । संभवतः यह नागवंश का होगा । भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश का वर्णन इसके ग्रंथ में अधिक आता है । इससे यह उसी प्रदेश का रहनेवाला होगा (भावप्रकाश) । शतपथब्राह्मण में चरक का निर्देश है । शतपथब्राह्मण, चरकसंहिता एवं याज्ञवल्क्यस्मृति में शारीरविषयक विवेचन प्रायः समान है । चरक तथा याज्ञवल्क्य दोनों ने मानवी अस्थिसंख्या ३६० बताई हैं । याज्ञवक्य तथा चरक दोनों एक ही वैशंपायन के शिष्य थे ।
चरक n. उपलब्ध आयुर्वेदीय संहिताओं में ‘चरकसंहिता’ सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है । सुश्रुतसंहिता शल्यतंत्रप्रधान तथा चरकसंहिता कायाचिकित्साप्रधान ग्रंथ है । इस ग्रंथ में चिकित्सा-विज्ञान के मौलिक तत्त्वों का जितना उत्तम विवेचन किया गया है, उतना अन्यत्र नही है । इसके अतिरिक्त, इस ग्रंथ में सूत्ररुप में सांख्य, योग, न्याय, वैशोषिक, वेदान्त, मीमांसा इन आस्तिक दर्शनों का, चार्वाक आदि नास्तिक दर्शनों का, तथा परिक्ष रुप से व्याकरण आदि वेदांगों का भी संकलन सुन्दरता से किया गया है । इस लिये, इस ग्रंथ को यथार्थता से ‘अखिल शास्त्रविद्याकल्पद्रुम’ कहा जा सकता है । ‘चरक संहिता’ में दी गयीं आयुर्वेदीय विद्यापरंपरा इस प्रकार है । आयुर्वेद सर्वप्रथम ब्रह्मा ने निर्माण किया । ब्रह्मा से प्रजापति ने, प्रजापति से अश्विनीकुमारों ने, उनसे इंद्र ने, तथा इंद्र से भरद्वाज ने आयुर्वेद का अध्ययन किया । फिर भरद्वाज के प्रभाव से दीर्घ, सुखी तथा आरोग्य जीवन प्राप्त कर अन्य ऋषियों में उसका प्रचार किया । तदन्तर पुनर्वसु आत्रेय ने अग्निवेश, भेड, जतूकर्ण, पराशर, हारीत तथा क्षीरपाणि नामक छः शिश्यों को आयुर्वेद का उपदेश किया । इन छः शिष्यों में सब से अधिक बुद्धिमान् अग्निवेश ने सर्वप्रथम ‘अग्निवेशतंत्र’ नामक एक संहिता का निर्माण किया
[च.सू.अ.१] । इसी ग्रंथ का प्रतिसंस्कार बाद में चरक ने किया, तथा उसका नाम ‘चरकसंहिता’ पडा । उपलब्ध चरकसंहिता के चिकित्सास्थान, के १७ अध्याय तथा १२-१२ अध्याय के कल्पस्थान तथा सिद्धिस्थान चरक ने लिखे मूल संहिता में नही थे । उनकी पूर्वि दृढबल ने की
[च. चि. ३०] । बौद्ध त्रिपिटक ग्रंथ में, कुषाणवंशीय राजा कनिष्क का राजवैद्य यों कह कर चरक का निर्देश प्राप्त है । योगसूत्र, कार तथा महाभाष्यकार पतंजलि तथा चरक एक ही थे ऐसी जनश्रुति है । कनिष्क तथा पतंजलि का काल इसापूर्व दूसरी सदी निश्चित है । वह चरक काल होगा । वैशंपायनशिष्यत्व, एवं पाणिनि तथा शतपथ मे निर्देश के कारण चरककाल भारतीययुद्ध से नजदीक होने का संभव है । पाश्चात्य चिकित्सापद्धति के आचार्य हिपोक्रिटीस (इ.पू. ६००) ने भी इसके सिद्धान्तों का भाव लिया है, ऐसा कोई विद्वानों का मत है । ऐसा हो तो, याज्ञवक्यकालीन चरक तथा कनिष्ककालीन चरक ये दो अलग व्यक्तियॉं मानना होगा ।
चरक II. n. कृष्णयजुर्वेद का एक शाखाप्रवर्तक । इसका सही नाम कपिष्ठल-चरक था । प्रवरमाला में इसका नामोल्लेख है ।
चरक III. n. कृष्णयजुर्वेद की एक उपशाखा । कृष्णयजुर्वेद में ‘चरक’ नाम धारण करनेवाली बारह शाखाएँ (भेद) हैं । उनके नामः---चरक, आह्ररक, कुठ, प्राच्यकठ, कपिष्ठलकठ, आरायणीय, आरायणीय, वार्तान्तवेय, श्वेताश्वतर, औपमन्यव, पातण्डनीय, तथा मैत्रायणीय । इनमेसे मैत्रायणीय शाखा में मानवादि छः भेद हैं । चरक वाराहसूत्रानुयायी तथा मैत्रायणीय मानवसूत्रानुयायी है (चरणव्यूह) । कृष्णयजुर्वेद की एक शाखा, कृष्णयजुर्वेद की सामान्य संज्ञा, तथा कृष्णयजुर्वेद पढनेवाले लोग, ये तीन ही अर्थ से ‘चरक’ नाम का निर्देश उपलब्ध है
[श. ब्रा.३.८.२.२४, ४.१.२.१९, २.३.१५, ४.१.१०, ६.२.२.१-१०, ८.१.२.७, ७.१.१४.२४] । कृष्ण यजुर्वेद की सर्व शाखाओं के लिये चरक यह नाम प्रयुक्त होता है । तथापि महाराष्ट्र मे कृष्णयजुर्वेद की चरक नामक ब्राह्मणज्ञाति उपलब्ध है । वह ज्ञाति मैत्रायणी शाखा की है । उनका सूत्र मानव एवं वाराह है। चरक ब्राह्मणग्रंथ का निर्देश ऋग्वेद के सायणभाष्य में भी आया है
[ऋ.८.६६.१०] । ‘चरक’ नाम का शब्दशः अर्थ, ‘प्रायश्चित्त करने वाले’ ऐसा है । वैशंपायन के लिये जिन्होंने प्रायश्चित्त किया, वे सब वैशंपायनशिष्य चरक नाम से प्रसिद्ध हुए । वैशंपायन को ‘चरकाध्वर्यु’ कहा गया है (वैशंपायन देखिये) । पुरुषमेध में, चरक (आचार्य) को बलिप्राणियों में समाविष्ट किया गया है
[वा.सं.३०.१८] । शुल्क तथा कृष्णयजुर्वेद का परस्परविद्वेष इससे प्रकट होता है । याज्ञवल्क्य के अनुयायियों के लिये यह नाम प्रयुक्त नहीं होता था । क्यो कि, उन्होंने वैशंपायन के लिये प्रायश्चित नही किया (वैशंपायन तथा व्यास देखिये) । शामायनि (उदीच्य), आसुरि (मध्य) तथा आलंबि (प्राच्य) ये चरकाध्वर्यु तथा तैत्तिरीयों के मुख्य है । वपा तथा पृषदाच्य में प्रथम अभिधार किसे किया जावे, इस विषय में चरकाध्वर्यु का याज्ञवल्क्य से मतभेद है
[श. ब्रा.३.६.३.२४] ।