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ऋश्यशृंग n. काश्यप विभांडक का पुत्र । एकबार जब विभांडक गंगास्नान के लिये गया था तब उर्वशी उसे दृष्टिगोचर हुई । तत्काल कामविकार उत्पन्न हो कर उसका रेत पानी में गिरा । इतने में पानी पीने के लिये शाप से हिरनी बनी हुई एक देवकन्या वहॉं आई तथा पानी के साथ वह रेत उसके पेट में गया । उससे यह उत्पन्न हुआ [म.व.११०] । संपूर्ण आकार मानव के समान परंतु सिरपर ऋश्य नामक मृत के समान सींग था, इसलिये इसे ऋश्यशृंग नाम प्राप्त हुआ [म.व.११०.१७] । इसका जन्म होते ही इसकी माता शापमुक्त हो कर स्वर्ग गई तब अनाथ ऋश्यशृंग का पालन-पोषण विभांडक ने किया तथा इसे वेदवेदांगों में पारंगत किया । मृगयोनि का होने के कारण यह डरर्पोक किया तथा आश्रम के बाहर कहीं भी न जाता था । विभांडक ने भी उसे ऐसी ही आज्ञा दे रखी थी । इससे इसने पिता को छोड अन्य पुरुष न देखा था [म.व.११०.१८] । इसी समय अंगदेश के चित्ररथ नामक राजा की गलती से वहॉं अवर्षण हुआ । चित्ररथ दशरथ का मित्र था । वह ब्राह्मणों से असत्य व्यवहार करता था अतः ब्राह्मणों ने इसका त्याग किया । तब उसके देश में अवर्षण हुआ तथा लोगों को अत्यधिक कष्ट होने लगे । तब इन्द्र को वर्षा के लिये मजबूर करनेवाले बडे बडे तपस्वियों से इसने पूछा । उनमें से एक ने कहा कि, ब्राह्मण तुमसे कुपित हैं, उनके क्रोध का निराकारण करो । तब उसे पता चला कि, ऋश्यशृंग यदि अपने देश में आयेगा तो चारों ओर सुख का साम्राज्य छा जायेगा । ऋश्यशृंग को लाने के लिये जब उसने मंत्रियों से चर्चा की तब वेश्याओं की सहायता छोड अन्य मार्ग ही उन्हें न सूझता था । वेश्याओं से पूछने पर एक वृद्ध वेश्या ने वह कार्य स्वीकार किया तथा कुछ तरुण वेश्याओं को ले कर विभांडक के अनुपस्थिति में उसके आश्रम में जाने का निश्चय किया । इस के लिये एक नौका पर आश्रम तैय्यार कर वह नौका आश्रम के पास खडी कर उसने बडी युक्ति से अपनी लडकियों द्वारा अपने पाश में बांध लिया । ऋश्यशृंग ने उन वेश्याओं को मुनिकुमार समझ कर उनसे व्यवहार किया । दूसरी बार ऋश्यशृंग को लेकर वे वेश्यायें अंग देश में आयी । तब अंग देश में बहुत वर्षी हुई । रोमपाद ने अपनी शान्ता नामक कन्या इसे दी तथा काफी उपहार दिया । विभांडक पुत्र को ढुंढते हुए वहॉं आया तब रोमपाद द्वारा दिये गये उपहार देखकर इसका क्रोध शांत हो गया । इसने एक पुत्र का जन्म होने तक ऋश्यशृंग को वहॉं रहने की अनुमति दी तथा स्वयं वापस गया । ऋश्यशृंग भी एक पुत्र के जन्म के बाद शान्ता के सथ अपने आश्रम वापस गया [म.व.११०.११३] ;[वा.रा.बा.९.१०] । दशरथ के पुत्रकामेष्टि यज्ञ में रोमपाद की मध्यस्थिता से दशरथ ने इसे यज्ञ का अध्वर्यु बनाया । उससे दशरथ को रामलक्ष्मणादि पुत्र हुए [वा.रा.बा.११] । यह ऋश्यंशृंग सावर्णि मन्वन्तरं के सप्तर्षियों में से एक होगा [भा.८.१३] ;[विष्णु.३.२] । कौशिकी नदी के किनारे ऋश्यशृंग देखिये) । इसके द्वारा रचित ग्रंथ १ ऋश्यशृंगसंहिता, २ ऋश्यशृंगस्मृति । ऋश्यशृंगस्मृति का उल्लेख विज्ञानेश्वर, हेमाद्रि, हलायुध आदि ने किया है (C.C) । आचार, अशौच, श्राद्ध तथा प्रायश्चित्त आदि के बारे में इसके विचार मिताक्षर, अपरार्क, स्मृतिचंदिकादि ग्रंथों में प्राप्य हैं । मिताक्षरां में [याज्ञ. २.११९] । शंख का मानकर दिया गया श्लोक अपरार्वने [याज्ञ. ७.२४] ऋश्यशृंग का मानकर दिया है । इस श्लोक में दिया गया है पुनः प्राप्त की तो उसका एक चतुर्थास उसे प्राप्त होता है तथा बाकी बचे हुए में अन्य लोगों का हिस्सा होता है । स्मृतिचन्द्रिका में [स्मृतिचं. १.३२] । इसका एक गद्य परिच्छेद दिया गया है ।
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ऋश्यशृंग (वातरशन) n. मंत्रद्रष्टा [ऋ.१०.१३६.७] ।
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