एकादशस्कन्धपरिछेदः - एकनवतितमदशकम्

श्रीनारायणके दूसरे रूप भगवान् ‍ श्रीकृष्णकी इस ग्रंथमे स्तुति की गयी है ।


श्रीकृष्ण त्वत्पदोपासनमभयतमं बद्धमिथ्यार्थदृष्टे -

र्मर्त्यस्यार्तस्य मन्ये व्यपसरति भयं येन सर्वात्मनैव ।

यत्तावत् त्वत्प्रणीतानिह भजनविधीनास्थितो मोहमार्ग

धावान्नप्यावृताक्षः स्खलित न कुहचिद् देवदेवाखिलात्मन् ॥१॥

भूमन् कायेन वाचा मुहुरपि मनसा त्वद्बलप्रेरितात्मा

यद्यत् कुर्वे समस्तं तदिह परतरे त्वय्यसावर्पयामि ।

जात्यापीह श्र्वपाकस्त्वयि निहितमनःकर्मवागिन्द्रियार्थ -

प्राणो विश्र्वं पुनीते न तु विमुखमनास्त्वपदाद्विप्रवर्यः ॥२॥

भीतिर्नाम द्वितीयाद् भवति ननु मनःकल्पितं च द्वितीयं

तेनैक्याभ्यासशीलो हृदयमिह यथाशक्ति बुद्ध्य़ा निरुन्ध्याम् ।

मायाविद्धे तु तस्मिन् पुनरपि न तथा भाति मायाधिनाथं

तं त्वां भक्त्या महत्या सततमनुभजन्नीश भीति विजह्याम् ॥३॥

भक्तेरूत्पत्तिवृद्धी तव चरणजुषां सङ्गमेनैव पुंसामासाद्ये पुण्यभाजां

श्रिय इव जगति श्रीमतां सङ्गमेन । तत्सङ्गो देव भूयान्मम खलु सततं तन्मुखादुन्मिषद्भि -

स्त्वन्माहात्म्यप्रकारैर्भवति च सुदृढा भक्तिरुद्धूतपापा ॥४॥

श्रेयोमार्गेषु भक्तावधिकबहुमतिर्जन्मकर्माणि भूयो

गायन क्षेमाणि नामान्यपि तदुभयतः प्रदुतं प्रदुतात्मा ।

उद्यद्धासः कदाचित् कुहचिदपि रुदन् क्वापि गर्जन् प्रगाय -

न्नुन्मादीव प्रनृत्यन्नयि कुरु करुणां लोकबाह्यश्र्चरेयम् ॥५॥

भूतान्येतानि भूतात्मकमपि सकलं पक्षिमत्स्यान्मृगादीन्

मर्त्यान् मित्राणि शत्रुनापि यमितमतिस्त्वन्मयान्यानमानि ।

त्वत्सेवायां हि सिध्येन्मम तव कृपया भक्तिदार्ढ्यं विरागस्त्वत्तत्त्वस्यावबोधोऽपि च भुवनपते यत्नभेदं विनैव ॥६॥

नो मुह्यन् क्षतुद्यैर्भवसरणिभवैस्त्वन्निलीनाशयत्वा -

च्चिन्तासातत्यशाली निमिषलवमपि त्वत्पदादप्रकम्पः ।

इष्टानिष्टेषु तुष्टिव्यसनविरहितो मायिकत्वावबोधा -

ज्ज्योत्स्नाभिस्त्वन्नखेन्दोरधिकशिशिरितेनात्मना संचरेयम् ॥७॥

भूतेष्वेषु त्वदैक्यस्मृतिसमधिगतौ नाधिकारोऽधुना चेत्

त्वत्प्रेम त्वक्कमैत्री जडमतिषु कृपा द्विट्सु भूयादुपेक्षा ।

अर्चायां वा समर्चाकुतुकमरुरुतरश्रद्धया वर्धतां मे

त्वत्संसेवी तथापि द्रुतमुपलभते भक्तलोकोत्तमत्वम् ॥८॥

आवृत्य त्वत्स्वरूपं क्षितिजलमरुदाद्यात्मना विक्षिपन्ती

जीवान् भूयिष्ठकर्मावलिविवशगतीन् दुःखजाले क्षिपन्ती ।

त्वन्माया माभिभून्मामयि भुवनपते कल्पते तत्प्रशान्त्यै

त्वपादे भक्तिरेवेत्यवददयि विभो सिद्धयोगी प्रबुद्धः ॥९॥

दुःखान्यालोक्य जन्तुष्वलमुदितविवेकोऽहमाचार्यवर्या -

ल्लब्ध्वा त्वद्रूपतत्त्वं गुणचरितकथाद्युद्भवद्भक्तिभूमा ।

मायामेनां तरित्वा परमसुखमये त्वत्पदे मोदिताहे

तस्यायं पूर्वरङ्गः पवनपुरपते । नाशयाशेषरोगान् ॥१०॥

॥ इति भक्तिस्वरूपवर्णनम् एकनवतितमदशकं समाप्तम्॥

समस्त प्राणियोंके आत्मस्वरूप देवदेवेश्र्वर श्रीकृष्ण ! जिसकी दृष्टि मिथ्या अर्थ -शरीरादिमें आबाद्ध है , उस जनन -मरणधर्मा आर्त प्राणीके लिये आपके चरणोंकी उपासना ही सर्वश्रेष्ठ अभयस्थान है —— ऐसी मेरी मान्यता है ; क्योंकि उससे भयका सर्वथा ही मूलोच्छेद हो जाता है । आपका चरणोपासक जगत्में आपके द्वारा विहित भागवत -धर्मोंका आश्रय लेकर मोहमार्गमें आँख मूँदकर दौड़ता हुआ भी कहीं लड़खड़ाता या गिरता नहीं है ॥१॥

भूमन् ! आपके बलसे प्रेरित हुआ में इस जन्ममें शरीर , वचन , मन और इन्द्रियोंसे बारंबार जो कुछ भी कर्म करता हूँ , वह सारा -का -सारा आप परमात्मामें समर्पित कर देता हूँ ; क्योंकि इस जगत्में जिसके मन , कर्म , वचन , इन्द्रिय , इन्द्रियोंके विषय तथा प्राण आपमें निहित हैं , वह जन्मसे चाण्डाल होते हुए भी सारे विश्र्वको पावन बना देता है , किंतु आपके चरणोंसे विमुख मनवाला कुलीन ब्राह्मण ऐसा नहीं कर सकता (वह तो विश्र्वको कौन कहे , अपनेको भी शुद्ध करनेमें असमर्थ है ॥२॥

ईश ! यह तो प्रसिद्ध ही है कि भय दूसरेसे ही होता है और वह दूसरी वस्तु मनके द्वारा कल्पित होती है । इसलिये मैं ‘ब्रह्मैवेदं सर्वम् ’— यों ऐक्यका अभ्यासी होकर बुद्धिद्वारा अपने हृदयका यथाशक्ति निरोध करूँगा । परंतु उस हृदयके मायाग्रस्त हो जानेपर पुनः वह ऐक्य प्रतिभासित नहीं होता , इस कारण महती भक्तिद्वारा आप मायापतिका अनवरत भजन करता हुआ मैं संसार -भयका विनाश कर डालूँ ॥३॥

इस जगत्में जैसे धनवानोंकी संगतिसे धन -धान्यादि सम्पत्तिकी उत्पत्ति और वृद्धि सुलभ हो जाती है , उसी प्रकार पुण्यशाली पुरुषोंकी भक्तिकी उत्पत्ति और वृद्धि आपके चरण -सेवी भक्तोंके सङ्गसे ही हो सकती है ; इसलिये देव ! ऐसे भक्तोंका सत्सङ्ग मुझे निरन्तर प्राप्त होता रहे , जिनके मुखसे निकले हुए आपके विभिन्न प्रकारके माहात्म्य श्रवणसे आपमें पापविनाशिनी सुदृढ़ भक्ति उत्पन्न होती है ॥४॥

अयि भगवन् ! ऐसी कृपा कीजिये कि मैं श्रेयः -प्राप्तिके साधनोंमें एकमात्र भक्तिमार्गमें ही अधिक श्रद्धालु होकर बारंबार आपके अवतारों , तज्जन्य लीलाओं , नामों तथा पुरुषार्थपूर्ण कार्योंका गा करता रहूँ और इस प्रकार आपके जन्म -कर्मके कीर्तन तथा मङ्गलमय नामोंके कीर्तन ——दोनोंके प्रभावसे शीघ्र ही द्रवीभूत होकर कभी खिलखिलाकर हँसता , कभी रोता , कभी उच्च स्वरसे गरजता , कभी गाता और कभी उन्मादीकी तरह नृत्य करता हुआ लोकातीत स्थितिमें पहुँचकर विचरण करूँ ॥५॥

भुवनेश्र्वर ! इन पॉंचों भूतोंको , भूतात्मक सकल चराचर जगत्को , पक्षी , मत्स्य , मृग आदि समस्त जल -स्थलनिवासी जीवोंको , मित्रों , शत्रुओं और उदासीनोंको ‘यह सब श्रीहरिके स्वरूप है ’—— यों अनुभव करता हुआ मैं अनन्यभावसे उन्हें नमस्कार करूँ । आपकी ऐसी सेवा सम्पन्न होनेपर आपकी कृपा अवश्य ही प्राप्त होगी । उस कृपाके प्रभावसे मेरी सुदृढ़ भक्ति , विषयविरक्ति तथा आपके तत्त्वका सम्यक् ज्ञान —— ये तीनों बिना विभिन्न प्रयासोंके ही सिद्ध हो जायँगे ॥६॥

भगवन् ! आपमें समाहित -चित्त होनेके कारण संसारमार्गमें होनेवाले भूख -प्यास आदि क्लेशोंसे मोहित न होकर मैं अनवरत आपके ध्यानमें संलग्न रहूँ , आपके पादारविन्दसे निमिष -लव मात्र भी विचलित न होकर , ‘ये सब भोग मायिक है ’—— यों अनुभव करनेके कारण मैं इष्टकी प्राप्तिमें सुख और अनिष्टकी प्राप्तिमें दुःखसे रहित हो जाऊँ तथा आपके चरणोंके नख -चन्द्रकी ज्योत्स्नासे अतिशय शीतल मनवाला होकर सर्वत्र विचरण करूँ ॥७॥

प्रभो !इन प्राणियोंमें आपके ऐक्यानुभवकी प्राप्तिमें यदि अभी मेरा अधिकार न हो तो कम -से -कम आपमें प्रेम , आपके भक्तोंसे मैत्री , जडबुद्धिवालोंपर दया और शत्रुओंके प्रति उपेक्षाका भाव तो मुझे हो ही जाय । यदि मैं इसका भी अभी अधिकारी न होऊँ तो अतिशय श्रद्धापूर्वक आपके अर्चाविग्रहकी समर्चामें मेरा अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ता रहे ; क्योंकि आपका भजन करनेवाला अधम -से -अधम प्राणी भी स्वल्प कालमें ही भक्तोंमें अग्रगण्य हो जाता है ॥८॥

अयि भुवनपते ! आपकी माया आपके ब्रह्म -स्वरूपको आच्छादित करके उसे पृथ्वी , जल , वायु आदिके रूपसे प्रकट करनेवाली है तथा विभिन्न प्रकारके कर्म -समूहोंसे जिनकी गति पराधीन हो गयी है , उन जीवोंको संसार -सागरमें ढकेलनेवाली है । अयि विभो ! वह माया मेरा पराभव न करे । उसकी शान्तिका एकमात्र उपाय आपके चरणोंकी भक्ति ही है —— ऐसा सिद्धयोगी प्रबुद्धने बतलाया है ॥९॥

जीवोंके दुःखोंको देखकर मुझमें प्रभूत विवेक उत्पन्न हो जाये कि ये पुत्र -मित्र , धन आदि दुःख ही देनेवाले हैं । फिर मैं सद्गुरुकी शरण लेकर उनसे आपके स्वरूपका तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लूँ और आपके गुणों एवं चरितोंके कथनसे मुझमें भूरितर भक्ति उत्पन्न हो जाय , जिससे मैं उसके प्रभावसे इस मायाको पार करके आपके परमसुखमय पादपद्मोंके आश्रयमें रहकर परमानन्दका अनुभव करूँगा । उस माया -विजय नाटकका यह पूर्वरङ्ग (प्रारम्भिक नान्दीपाठ ) है । पवनपुरपते ! मेरे सम्पूर्ण रोगोंको नष्ट कर दीजिये ॥१०॥


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Last Updated : November 11, 2016

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