वेदैः सर्वाणि कर्माण्यफलपरतया वर्णितानीति बुद्ध्वा
तानि त्वय्यर्पितान्येव हि समनुचरन्यानि नैष्कर्म्यमीश ।
मा भूद्वेदैर्निषिद्धे कुहचिदपि मनःकर्मवाचां प्रवृत्ति -
र्दुर्वर्जं चेदवाप्तं तदपि खलु भवत्पर्पये चित्प्रकाशे ॥१॥
यस्त्वन्यः कर्मयोगस्तव भजनमयस्तत्र चाभीष्टमूर्ति
हृद्यां सत्त्वैकरूपां दृषदि हृदि मृदि क्वापि वा भावयित्वा ।
पुष्पैर्गन्धैर्निवेद्यैरपि च विरचितैः शक्तितो भक्तिपूतै -
र्नित्यं वर्यां सपर्यां विदधदयि विभो त्वत्प्रसादं भजेयम् ॥२॥
स्त्रीशूद्रास्त्वत्कथादिश्रवणविरहिता आसतां ते दयार्हा -
स्त्वत्पादासन्नयातान् द्विजकुलजनुषो हन्त शोचाम्यशान्तान् ।
वृत्त्यर्थं ते यजन्तो बहुकथितमपि त्वामनाकर्णयन्तो
दृप्ता विद्याभिजात्यैः किमु न विदधते तादृशं मा कृथा माम् ॥३॥
पापोऽयं कृष्ण रामेत्यभिलपति निजं गूहितुं दुश्र्चरित्रं
निर्लज्जस्यास्य वाचा बहुतरकथनीयानि मे विघ्नितानि ।
भ्राता मे वन्ध्यशीलो भजति किल सदा विष्णुमित्थं बुधांस्ते
निन्दन्त्युच्चैर्हसन्ति त्वयि निहितमतींस्तादृशं मा कृथा माम् ॥४॥
श्र्वेतच्छायं कृते त्वां मुनिवरवपुषं प्रीणयन्ते तपोभि -
स्त्रेतायां स्त्रुक्स्त्रुवाद्यङ्कितमरुणतनुं यज्ञरूपं यजन्ते ।
सेवन्ते तन्त्रमार्गैर्विलसदरिगदं द्वापरे श्यामलाङ्गं
नीलं संकीर्तनाद्यैरिह कलिसमये मानुषास्त्वां भजन्ते ॥५॥
सोऽयं कालेयकालो जयति मुररिपो यत्र संकीर्तनाद्यै -
र्निर्यत्नैरैव मार्गैरखिलद नचिरात् त्वत्प्रसादं भजन्ते ।
जातास्त्रेताकृतादावपि हि किल कलौ सम्भवं कामयन्ते
दैवात् तत्रैव जातान् विषयविषरसैर्मा विभो वञ्चयास्मान् ॥६॥
भक्तास्तावत्कलौ स्युर्द्रमिलभुवि ततो भूरिशस्तत्र चोच्चैः
कावेरीं ताम्रपर्णीमनु किल कृतमालां च पुण्यां प्रतीचीम् ।
हा मामप्येतदन्तभर्वमपि च विभो किंचिदञ्चद्रसं त्व -
य्याशापाशैर्निबध्य भ्रमय न भगवन् पूरय त्वन्निषेवाम् ॥७॥
दृष्ट्वा धर्मद्रुहं तं कलिमपकरुणं प्राङ् महीक्षित् परीक्षिद्धन्तुं व्याकृष्टखङ्गोऽपि न विनिहतवान् सारवेदी गुणांशात् ।
त्वत्सेवाद्याशु सिध्येदसदिह न तथा त्वत्परे चैष भीरु -
र्यत्तु प्रागेव रोगादिभिरपहरते तत्र हा शिक्षयैनम् ॥८॥
गङ्गा गीता च गायत्र्यपि च तुलसिका गोपिकाचन्दनं तत्
शालग्रामाभिपूजा परपुरुष तथैकादशी नामवर्णाः ।
एतान्यष्टप्ययत्नान्ययि कलिसमये त्वत्प्रसादप्रसिध्या
क्षिप्रं मुक्तिप्रदानीत्यभिदधुभिदधुर्ऋषयस्तेषु मां सज्जयेथाः ॥९॥
देवर्षीणां पितॄणामापि न पुरर्ऋणी किङ्करो वा स भूमन्
योऽसौ सर्वात्मना त्वां शरणमुपगतः सर्वकृत्यानि हित्वा ।
तस्योत्पन्नं विकर्माप्यखिलमपनुदस्येव चित्तस्थितस्त्वं
तन्मे पापोत्थतापान् पवनपुरपते रुन्धि भक्ति प्रणीयाः ॥१०॥
॥ इति कर्ममिश्रभक्तिस्वरूपवर्णनं द्विनवतितमदशकं समाप्तम् ॥
वेदोंने समस्त कर्मोंका नैष्कर्म्यके उद्देश्यसे ही वर्णन किया है —— ऐसा जानकर मैंने उन कर्मोंको आपके ही अर्पित कर दिया और जो कर्मनिवृत्ति -साध्य हैं , उनका अनुष्ठान करने लगा । ईश ! अब वेदनिषिद्ध किसी भी कर्ममें मेरे मन , कर्म (शरीर ), वचनकी प्रवृत्ति न हो । यदि संयोगवश मुझे किसी निषिद्ध कर्मकी प्राप्ति हो तो उसे भी मैं चित्प्रकाशस्वरूप आपको ही अर्पित करता हूँ ॥१॥
अयि विभो ! सकाम अनुष्ठानसे भिन्न जो दूसरा आपका भजनयम कर्मयोग है , उस मार्गमें मैं पत्थर , मिट्टी , अथवा हृदय ——कहीं भी अपने इष्टदेवकी शुद्ध सत्त्वमयी मनोहर मूर्तिकी कल्पना करके भक्तिभावपूर्वक यथाशक्ति सम्पादित पुष्प -गन्ध -नैवेद्य आदि सामग्रियोंद्वारा नित्य उत्तम पूजाका अनुष्ठान करता हुआ आपके कृपा -प्रसादका भगी बनूँ ॥२॥
भगवन् ! स्त्री और शूद्र , जो आपकी कथा आदिके श्रवणसे हीन है , वे तो दयाके पात्र हैं ही , उनकी बात छोड़िये । मुझे सोच तो उन लोगोंका है , जो द्विजकुलमें जन्म लेकर आपके चरणोंके निकट पहुँचनेके अधिकारी होकर भी अशान्त —— विषयपरायण हो रहे है । वे जीविकानिर्वाहके निमित्त (हिंसापूर्ण ) यज्ञोंका अनुष्ठान कराते हैं ।
श्रुतियोंमें अनेकों प्रकारसे आपका वर्णन होनेपर भी उसे वे अनसुनी कर रहे हैं । विद्या और उत्तम कुलके अभिमानसे उन्मत्त होकर वे क्या नहीं करते हैं । अतः प्रभो ! मुझे वैसा आत्मघाती मत बनाइये ॥३॥
‘‘ यह पापी अपने दुष्कर्मको छिपानेके लिये ‘ हरे कृष्ण ! हरे राम !’ इत्यादि व्यर्थ ही बकता रहता है । इस निर्लज्जके कोलाहलपूर्ण वचनसे मेरे बहुत - से वक्तव्योंमें विघ्न पड़ गया मेरा भाई निरर्थक ही सदा विष्णुका भजन करता है । ’’—— यों कहते हुए वे अशान्त जन विद्वानोंकी निन्दा करते हैं और आपसे प्रेम करनेवालोंका खुलकर परिहास करते हैं । प्रभो ! मुझे वैसा दुष्कर्मी मत बनाना ॥४॥
त्रेतामें आप अरुणवर्णके हो जाते हैं और स्रुक् -स्रुवा आदिसे सुशोभित आप यज्ञेशका लोग यज्ञोंद्वारा यजन करते है । द्वापरमें आपकी अङ्गकान्ति अतसी -कुसुम -सदृश श्यामल होती है और अप चक्र -गदा आदि आयुधोंसे विभूषित रहते है । उस समय मानव तन्त्र -मार्गोंद्वारा आपकी उपासना करते है । कलियुगमें आप कृष्णवर्णके हो जाते हैं , उस समय लोग नामसंकीर्तन आदि उपायोंद्वारा आपका भजन करते हैं ॥५॥
मुरारे ! वही यह कलियुग सभी युगोंसे उत्कृष्ट हो रहा है ; क्योंकि इस कलियुगमें लोग आयासरहित संकीर्तन आदि उपयोंद्वारा शीघ्र ही आपके कृपा -प्रसादको प्राप्त कर लेते है । सर्वस्व -दानी ! इसीलिये कृतयुग और त्रेतामें उत्पन्न हुए लोग भी कलियुगमें जन्मकी कामना करते हैं । विभो ! उसी कलियुगमें दैववश उत्पन्न हुए हमलोगोंकी विषयरूपी विष -रसद्वारा प्रवञ्चना मत कीजिये (अपनी प्राप्ति कराकर कृतार्थ कर दीजिये ॥६॥
पहले भी कलियुगमें द्रमिल -प्रदेश (द्रविड़ देश )- में बहुत -से भक्त हो गये है । उस द्रमिल -प्रदेशमें भी पुण्यवती कावेरी , ताम्रपर्णी , कृतमाला और पश्र्चिमवाहिनी (नर्मदा )-के तटपर तो उनसे भी उच्चकोटिके भगवद्भक्त हो गये हैं । विभो ! हाय ! मेरा भी जन्म उस द्रमिल -प्रदेशके अन्तर्गत ही है और मैं आपकी भक्तिका भी कुछ रस ले रहा हूँ ; अतः भगवन् ! मुझे आशापाशसे निगडित करके भवाटवीमें भ्रमण मत कराइये , बल्कि मुझमें अपनी भक्तिकी पूर्ण कर दीजिये ॥७॥
पूर्वकालमें भूपाल परीक्षित्ने इस धर्मद्रोही निर्दय कलियुगको देखकर उसे मार डालनेके लिये तलवार खींच ली थी ; परंतु वे तो गुणके सारअंशको जाननेवाले थे , अतः उन्होंने उसका नहीं किया । इस कलियुगमें आपकी भक्ति शीघ्र ही सिद्ध हो जाती है , परंतु दुष्कर्म उतनी जल्दी सिद्ध नहीं होता । साथ ही यह कलियुग भगवद्भक्तोंसे भय भी खाता है । यह भजनारम्भसे पूर्व ही रोगादिद्वारा लोगोंको भजनसे निवारण करनेकी चेष्टा करता है । हाय ! उसी रोगने मुझे आ घेरा है , अतः भगवन् ! उसका अपहरण करनेके लिये आप इस कलियुगको शिक्षा दीजिये ॥८॥
अयि परमपुरुष ! गङ्गा , गीता , गायत्री , तुलसी , गोपीचन्दन , शालग्रामपूजन , एकादशी -व्रत और नाम -जप -ये आठों पदार्थ कलियुगमें अनायास ही उपलब्ध होनेवाले हैं और आपकी कृपाके प्रभावसे ये शीघ्र ही मुक्ति प्रदान करनेवाले भी हैं —— ऐसा ऋषियोंका कथन है । अतः भगवन् ! मेरे मनको उन्हीमें संलग्न कर दीजिये ॥९॥
भूमन् ! जो पुरुष समस्त कर्मोंका परित्याग करके सर्वभावसे आपके शरणापन्न हो गया है , वह पुनः न तो देव , ऋषि और पितरोंका ऋणी ही होती है और न किंकर ही ; क्योंकि उसके चित्तमें स्थित आप उसके द्वारा संघटित हुए सम्पूर्ण निषिद्ध कर्मोंका विनाश ही कर देते है । इसीलिये हे पवनपुरपते ! मेरे पापजनित संतापको दूर कर दीजिये और अपनी अनपायिनी भक्ति प्रदान कीजिये ॥१०॥