दोहा
समन अमित उतपात सब भरतचरित जपजाग ।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग ॥४१॥
चौपाला
कीरति सरित छहूँ रितु रूरी । समय सुहावनि पावनि भूरी ॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू । सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू ॥
बरनब राम बिबाह समाजू । सो मुद मंगलमय रितुराजू ॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू । पंथकथा खर आतप पवनू ॥
बरषा घोर निसाचर रारी । सुरकुल सालि सुमंगलकारी ॥
राम राज सुख बिनय बड़ाई । बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई ॥
सती सिरोमनि सिय गुनगाथा । सोइ गुन अमल अनूपम पाथा ॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई । सदा एकरस बरनि न जाई ॥
दोहा
अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास ।
भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास ॥४२॥
चौपाला
आरति बिनय दीनता मोरी । लघुता ललित सुबारि न थोरी ॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी । आस पिआस मनोमल हारी ॥
राम सुप्रेमहि पोषत पानी । हरत सकल कलि कलुष गलानौ ॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा । समन दुरित दुख दारिद दोषा ॥
काम कोह मद मोह नसावन । बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन ॥
सादर मज्जन पान किए तें । मिटहिं पाप परिताप हिए तें ॥
जिन्ह एहि बारि न मानस धोए । ते कायर कलिकाल बिगोए ॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी । फिरिहहि मृग जिमि जीव दुखारी ॥
दोहा
मति अनुहारि सुबारि गुन गनि मन अन्हवाइ ।
सुमिरि भवानी संकरहि कह कबि कथा सुहाइ ॥४३ (क )॥
अब रघुपति पद पंकरुह हियँ धरि पाइ प्रसाद ।
कहउँ जुगल मुनिबर्ज कर मिलन सुभग संबाद ॥४३ (ख )॥
चौपाला
भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा । तिन्हहि राम पद अति अनुरागा ॥
तापस सम दम दया निधाना । परमारथ पथ परम सुजाना ॥
माघ मकरगत रबि जब होई । तीरथपतिहिं आव सब कोई ॥
देव दनुज किंनर नर श्रेनी । सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं ॥
पूजहि माधव पद जलजाता । परसि अखय बटु हरषहिं गाता ॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन । परम रम्य मुनिबर मन भावन ॥
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा । जाहिं जे मज्जन तीरथराजा ॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा । कहहिं परसपर हरि गुन गाहा ॥
दोहा
ब्रह्म निरूपम धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग ।
कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग ॥४४॥
चौपाला
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥
एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥
जगबालिक मुनि परम बिबेकी । भरव्दाज राखे पद टेकी ॥
सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥
करि पूजा मुनि सुजस बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥
नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्व सबु तोरें ॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥
दोहा
संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥४५॥
चौपाला
अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू । हरहु नाथ करि जन पर छोहू ॥
रास नाम कर अमित प्रभावा । संत पुरान उपनिषद गावा ॥
संतत जपत संभु अबिनासी । सिव भगवान ग्यान गुन रासी ॥
आकर चारि जीव जग अहहीं । कासीं मरत परम पद लहहीं ॥
सोपि राम महिमा मुनिराया । सिव उपदेसु करत करि दाया ॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही । कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही ॥
एक राम अवधेस कुमारा । तिन्ह कर चरित बिदित संसारा ॥
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा । भयहु रोषु रन रावनु मारा ॥
दोहा
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि ।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि ॥४६॥
चौपाला
जैसे मिटै मोर भ्रम भारी । कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी ॥
जागबलिक बोले मुसुकाई । तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई ॥
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी । चतुराई तुम्हारी मैं जानी ॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा । कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा ॥
तात सुनहु सादर मनु लाई । कहउँ राम कै कथा सुहाई ॥
महामोहु महिषेसु बिसाला । रामकथा कालिका कराला ॥
रामकथा ससि किरन समाना । संत चकोर करहिं जेहि पाना ॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी । महादेव तब कहा बखानी ॥
दोहा
कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद ।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद ॥४७॥
चौपाला
एक बार त्रेता जुग माहीं । संभु गए कुंभज रिषि पाहीं ॥
संग सती जगजननि भवानी । पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी ॥
रामकथा मुनीबर्ज बखानी । सुनी महेस परम सुखु मानी ॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई । कही संभु अधिकारी पाई ॥
कहत सुनत रघुपति गुन गाथा । कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा ॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी । चले भवन सँग दच्छकुमारी ॥
तेहि अवसर भंजन महिभारा । हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा ॥
पिता बचन तजि राजु उदासी । दंडक बन बिचरत अबिनासी ॥
दोहा
ह्दयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ ।
गुप्त रुप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ ॥४८ (क )॥
सो
संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ ॥
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची ॥४८ (ख )॥
चौपाला
रावन मरन मनुज कर जाचा । प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा ॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा । करत बिचारु न बनत बनावा ॥
एहि बिधि भए सोचबस ईसा । तेहि समय जाइ दससीसा ॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा । भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा ॥
करि छलु मूढ़ हरी बैदेही । प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही ॥
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए । आश्रमु देखि नयन जल छाए ॥
बिरह बिकल नर इव रघुराई । खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई ॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें । देखा प्रगट बिरह दुख ताकें ॥
दोहा
अति विचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान ।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन ॥४९॥
चौपाला
संभु समय तेहि रामहि देखा । उपजा हियँ अति हरपु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी । कुसमय जानिन कीन्हि चिन्हारी ॥
जय सच्चिदानंद जग पावन । अस कहि चलेउ मनोज नसावन ॥
चले जात सिव सती समेता । पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता ॥
सतीं सो दसा संभु कै देखी । उर उपजा संदेहु बिसेषी ॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा । सुर नर मुनि सब नावत सीसा ॥
तिन्ह नृपसुतहि नह परनामा । कहि सच्चिदानंद परधमा ॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी । अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी ॥
दोहा
ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत वेद ॥५०॥
चौपाला
बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी । सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी ॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी । ग्यानधाम श्रीपति असुरारी ॥
संभुगिरा पुनि मृषा न होई । सिव सर्बग्य जान सबु कोई ॥
अस संसय मन भयउ अपारा । होई न हृदयँ प्रबोध प्रचारा ॥
जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी । हर अंतरजामी सब जानी ॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ । संसय अस न धरिअ उर काऊ ॥
जासु कथा कुभंज रिषि गाई । भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई ॥
सोउ मम इष्टदेव रघुबीरा । सेवत जाहि सदा मुनि धीरा ॥
छंद
मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं ॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनि ॥