दोहा
तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु।
आपु चढ़ेउ स्पंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु ॥३०१॥
चौपाला
सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें । सुर गुर संग पुरंदर जैसें ॥
करि कुल रीति बेद बिधि राऊ । देखि सबहि सब भाँति बनाऊ ॥
सुमिरि रामु गुर आयसु पाई । चले महीपति संख बजाई ॥
हरषे बिबुध बिलोकि बराता । बरषहिं सुमन सुमंगल दाता ॥
भयउ कोलाहल हय गय गाजे । ब्योम बरात बाजने बाजे ॥
सुर नर नारि सुमंगल गाई । सरस राग बाजहिं सहनाई ॥
घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं । सरव करहिं पाइक फहराहीं ॥
करहिं बिदूषक कौतुक नाना । हास कुसल कल गान सुजाना ।
दोहा
तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान ॥
नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान ॥३०२॥
चौपाला
बनइ न बरनत बनी बराता । होहिं सगुन सुंदर सुभदाता ॥
चारा चाषु बाम दिसि लेई । मनहुँ सकल मंगल कहि देई ॥
दाहिन काग सुखेत सुहावा । नकुल दरसु सब काहूँ पावा ॥
सानुकूल बह त्रिबिध बयारी । सघट सवाल आव बर नारी ॥
लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा । सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा ॥
मृगमाला फिरि दाहिनि आई । मंगल गन जनु दीन्हि देखाई ॥
छेमकरी कह छेम बिसेषी । स्यामा बाम सुतरु पर देखी ॥
सनमुख आयउ दधि अरु मीना । कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना ॥
दोहा
मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार ॥३०३॥
चौपाला
मंगल सगुन सुगम सब ताकें । सगुन ब्रह्म सुंदर सुत जाकें ॥
राम सरिस बरु दुलहिनि सीता । समधी दसरथु जनकु पुनीता ॥
सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे । अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे ॥
एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना । हय गय गाजहिं हने निसाना ॥
आवत जानि भानुकुल केतू । सरितन्हि जनक बँधाए सेतू ॥
बीच बीच बर बास बनाए । सुरपुर सरिस संपदा छाए ॥
असन सयन बर बसन सुहाए । पावहिं सब निज निज मन भाए ॥
नित नूतन सुख लखि अनुकूले । सकल बरातिन्ह मंदिर भूले ॥
दोहा
आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान ॥३०४॥
मासपारायण ,दसवाँ विश्राम
चौपाला
कनक कलस भरि कोपर थारा । भाजन ललित अनेक प्रकारा ॥
भरे सुधासम सब पकवाने । नाना भाँति न जाहिं बखाने ॥
फल अनेक बर बस्तु सुहाईं । हरषि भेंट हित भूप पठाईं ॥
भूषन बसन महामनि नाना । खग मृग हय गय बहुबिधि जाना ॥
मंगल सगुन सुगंध सुहाए । बहुत भाँति महिपाल पठाए ॥
दधि चिउरा उपहार अपारा । भरि भरि काँवरि चले कहारा ॥
अगवानन्ह जब दीखि बराता।उर आनंदु पुलक भर गाता ॥
देखि बनाव सहित अगवाना । मुदित बरातिन्ह हने निसाना ॥
दोहा
हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल ॥३०५॥
चौपाला
बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं । मुदित देव दुंदुभीं बजावहिं ॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें । बिनय कीन्ह तिन्ह अति अनुरागें ॥
प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा । भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा ॥
करि पूजा मान्यता बड़ाई । जनवासे कहुँ चले लवाई ॥
बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं । देखि धनहु धन मदु परिहरहीं ॥
अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा । जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा ॥
जानी सियँ बरात पुर आई । कछु निज महिमा प्रगटि जनाई ॥
हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई । भूप पहुनई करन पठाई ॥
दोहा
सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास ॥३०६॥
चौपाला
निज निज बास बिलोकि बराती । सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना । सकल जनक कर करहिं बखाना ॥
सिय महिमा रघुनायक जानी । हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी ॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई । हृदयँ न अति आनंदु अमाई ॥
सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं । पितु दरसन लालचु मन माहीं ॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी । उपजा उर संतोषु बिसेषी ॥
हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए । पुलक अंग अंबक जल छाए ॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे । मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे ॥
दोहा
भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत ॥३०७॥
चौपाला
मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा । बार बार पद रज धरि सीसा ॥
कौसिक राउ लिये उर लाई । कहि असीस पूछी कुसलाई ॥
पुनि दंडवत करत दोउ भाई । देखि नृपति उर सुखु न समाई ॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे । मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे ॥
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए । प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए ॥
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं । मन भावती असीसें पाईं ॥
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा । लिए उठाइ लाइ उर रामा ॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता । मिले प्रेम परिपूरित गाता ॥
दोहा
पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत।
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत ॥३०८॥
चौपाला
रामहि देखि बरात जुड़ानी । प्रीति कि रीति न जाति बखानी ॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी । जनु धन धरमादिक तनुधारी ॥
सुतन्ह समेत दसरथहि देखी । मुदित नगर नर नारि बिसेषी ॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना । नाकनटीं नाचहिं करि गाना ॥
सतानंद अरु बिप्र सचिव गन । मागध सूत बिदुष बंदीजन ॥
सहित बरात राउ सनमाना । आयसु मागि फिरे अगवाना ॥
प्रथम बरात लगन तें आई । तातें पुर प्रमोदु अधिकाई ॥
ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं । बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं ॥
दोहा
रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
जहँ जहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज ॥।३०९॥
चौपाला
जनक सुकृत मूरति बैदेही । दसरथ सुकृत रामु धरें देही ॥
इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे । काहिँ न इन्ह समान फल लाधे ॥
इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं । है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं ॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी । भए जग जनमि जनकपुर बासी ॥
जिन्ह जानकी राम छबि देखी । को सुकृती हम सरिस बिसेषी ॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू । लेब भली बिधि लोचन लाहू ॥
कहहिं परसपर कोकिलबयनीं । एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं ॥
बड़ें भाग बिधि बात बनाई । नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई ॥
दोहा
बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय ॥३१०॥
चौपाला
बिबिध भाँति होइहि पहुनाई । प्रिय न काहि अस सासुर माई ॥
तब तब राम लखनहि निहारी । होइहहिं सब पुर लोग सुखारी ॥
सखि जस राम लखनकर जोटा । तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा ॥
स्याम गौर सब अंग सुहाए । ते सब कहहिं देखि जे आए ॥
कहा एक मैं आजु निहारे । जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे ॥
भरतु रामही की अनुहारी । सहसा लखि न सकहिं नर नारी ॥
लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा । नख सिख ते सब अंग अनूपा ॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं । उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं ॥
छंद
उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं ॥
पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहि बचन सुनावहीं ॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावहीं ॥