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बालकाण्ड - दोहा ३४१ से ३५०

गोस्वामी तुलसीदासने रामचरितमानस ग्रन्थकी रचना दो वर्ष , सात महीने , छ्ब्बीस दिनमें पूरी की। संवत्‌ १६३३ के मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में रामविवाहके दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये।


दोहा

नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल ॥३४१॥

चौपाला
सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई । निज जन जानि लीन्ह अपनाई ॥
होहिं सहस दस सारद सेषा । करहिं कलप कोटिक भरि लेखा ॥
मोर भाग्य राउर गुन गाथा । कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा ॥
मै कछु कहउँ एक बल मोरें । तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें ॥
बार बार मागउँ कर जोरें । मनु परिहरै चरन जनि भोरें ॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे । पूरनकाम रामु परितोषे ॥
करि बर बिनय ससुर सनमाने । पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने ॥
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही । मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही ॥

दोहा

मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस ॥३४२॥

चौपाला
बार बार करि बिनय बड़ाई । रघुपति चले संग सब भाई ॥
जनक गहे कौसिक पद जाई । चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई ॥
सुनु मुनीस बर दरसन तोरें । अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें ॥
जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं । करत मनोरथ सकुचत अहहीं ॥
सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी । सब सिधि तव दरसन अनुगामी ॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई । फिरे महीसु आसिषा पाई ॥
चली बरात निसान बजाई । मुदित छोट बड़ सब समुदाई ॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी । पाइ नयन फलु होहिं सुखारी ॥

दोहा

बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत ॥३४३॥

चौपाला
हने निसान पनव बर बाजे । भेरि संख धुनि हय गय गाजे ॥
झाँझि बिरव डिंडमीं सुहाई । सरस राग बाजहिं सहनाई ॥
पुर जन आवत अकनि बराता । मुदित सकल पुलकावलि गाता ॥
निज निज सुंदर सदन सँवारे । हाट बाट चौहट पुर द्वारे ॥
गलीं सकल अरगजाँ सिंचाई । जहँ तहँ चौकें चारु पुराई ॥
बना बजारु न जाइ बखाना । तोरन केतु पताक बिताना ॥
सफल पूगफल कदलि रसाला । रोपे बकुल कदंब तमाला ॥
लगे सुभग तरु परसत धरनी । मनिमय आलबाल कल करनी ॥

दोहा

बिबिध भाँति मंगल कलस गृह गृह रचे सँवारि ।
सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि ॥३४४॥

चौपाला
भूप भवन तेहि अवसर सोहा । रचना देखि मदन मनु मोहा ॥
मंगल सगुन मनोहरताई । रिधि सिधि सुख संपदा सुहाई ॥
जनु उछाह सब सहज सुहाए । तनु धरि धरि दसरथ दसरथ गृहँ छाए ॥
देखन हेतु राम बैदेही । कहहु लालसा होहि न केही ॥
जुथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि । निज छबि निदरहिं मदन बिलासनि ॥
सकल सुमंगल सजें आरती । गावहिं जनु बहु बेष भारती ॥
भूपति भवन कोलाहलु होई । जाइ न बरनि समउ सुखु सोई ॥
कौसल्यादि राम महतारीं । प्रेम बिबस तन दसा बिसारीं ॥

दोहा

दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारी।
प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि ॥३४५॥

चौपाला
मोद प्रमोद बिबस सब माता । चलहिं न चरन सिथिल भए गाता ॥
राम दरस हित अति अनुरागीं । परिछनि साजु सजन सब लागीं ॥
बिबिध बिधान बाजने बाजे । मंगल मुदित सुमित्राँ साजे ॥
हरद दूब दधि पल्लव फूला । पान पूगफल मंगल मूला ॥
अच्छत अंकुर लोचन लाजा । मंजुल मंजरि तुलसि बिराजा ॥
छुहे पुरट घट सहज सुहाए । मदन सकुन जनु नीड़ बनाए ॥
सगुन सुंगध न जाहिं बखानी । मंगल सकल सजहिं सब रानी ॥
रचीं आरतीं बहुत बिधाना । मुदित करहिं कल मंगल गाना ॥

दोहा

कनक थार भरि मंगलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात ।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात ॥३४६॥

चौपाला
धूप धूम नभु मेचक भयऊ । सावन घन घमंडु जनु ठयऊ ॥
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं । मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं ॥
मंजुल मनिमय बंदनिवारे । मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे ॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि । चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि ॥
दुंदुभि धुनि घन गरजनि घोरा । जाचक चातक दादुर मोरा ॥
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी । सुखी सकल ससि पुर नर नारी ॥
समउ जानी गुर आयसु दीन्हा । पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा ॥
सुमिरि संभु गिरजा गनराजा । मुदित महीपति सहित समाजा ॥

दोहा

होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुंदुभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मंजुल मंगल गाइ ॥३४७॥

चौपाला
मागध सूत बंदि नट नागर । गावहिं जसु तिहु लोक उजागर ॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी । दस दिसि सुनिअ सुमंगल सानी ॥
बिपुल बाजने बाजन लागे । नभ सुर नगर लोग अनुरागे ॥
बने बराती बरनि न जाहीं । महा मुदित मन सुख न समाहीं ॥
पुरबासिन्ह तब राय जोहारे । देखत रामहि भए सुखारे ॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा । बारि बिलोचन पुलक सरीरा ॥
आरति करहिं मुदित पुर नारी । हरषहिं निरखि कुँअर बर चारी ॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी । देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी ॥

दोहा

एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
मुदित मातु परुछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार ॥३४८॥

चौपाला
करहिं आरती बारहिं बारा । प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा ॥
भूषन मनि पट नाना जाती । करही निछावरि अगनित भाँती ॥
बधुन्ह समेत देखि सुत चारी । परमानंद मगन महतारी ॥
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी । मुदित सफल जग जीवन लेखी ॥
सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही । गान करहिं निज सुकृत सराही ॥
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा । नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा ॥
देखि मनोहर चारिउ जोरीं । सारद उपमा सकल ढँढोरीं ॥
देत न बनहिं निपट लघु लागी । एकटक रहीं रूप अनुरागीं ॥

दोहा

निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवड़े देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत ॥३४९॥

चौपाला
चारि सिंघासन सहज सुहाए । जनु मनोज निज हाथ बनाए ॥
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे । सादर पाय पुनित पखारे ॥
धूप दीप नैबेद बेद बिधि । पूजे बर दुलहिनि मंगलनिधि ॥
बारहिं बार आरती करहीं । ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं ॥
बस्तु अनेक निछावर होहीं । भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं ॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं । अमृत लहेउ जनु संतत रोगीं ॥
जनम रंक जनु पारस पावा । अंधहि लोचन लाभु सुहावा ॥
मूक बदन जनु सारद छाई । मानहुँ समर सूर जय पाई ॥

दोहा

एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनंदु ॥
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचंदु ॥३५०क॥
लोक रीत जननी करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
मोदु बिनोदु बिलोकि बड़ रामु मनहिं मुसकाहिं ॥३५०ख॥

चौपाला
देव पितर पूजे बिधि नीकी । पूजीं सकल बासना जी की ॥
सबहिं बंदि मागहिं बरदाना । भाइन्ह सहित राम कल्याना ॥
अंतरहित सुर आसिष देहीं । मुदित मातु अंचल भरि लेंहीं ॥
भूपति बोलि बराती लीन्हे । जान बसन मनि भूषन दीन्हे ॥
आयसु पाइ राखि उर रामहि । मुदित गए सब निज निज धामहि ॥
पुर नर नारि सकल पहिराए । घर घर बाजन लगे बधाए ॥
जाचक जन जाचहि जोइ जोई । प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई ॥
सेवक सकल बजनिआ नाना । पूरन किए दान सनमाना ॥

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Last Updated : February 25, 2011

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