दोहा
नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप ॥२४१॥
चौपाला
बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा । बहु मुख कर पग लोचन सीसा ॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं । सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें ॥
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी । सिसु सम प्रीति न जाति बखानी ॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा । सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा ॥
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता । इष्टदेव इव सब सुख दाता ॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया । सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया ॥
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ । कवन प्रकार कहै कबि कोऊ ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ । तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ ॥
दोहा
राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर ॥२४२॥
चौपाला
सहज मनोहर मूरति दोऊ । कोटि काम उपमा लघु सोऊ ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके । नीरज नयन भावते जी के ॥
चितवत चारु मार मनु हरनी । भावति हृदय जाति नहीं बरनी ॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला । चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला ॥
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा । भृकुटी बिकट मनोहर नासा ॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं । कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं ॥
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई । कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं ॥
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ । जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ ॥
दोहा
कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल ॥२४३॥
चौपाला
कटि तूनीर पीत पट बाँधे । कर सर धनुष बाम बर काँधे ॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए । नख सिख मंजु महाछबि छाए ॥
देखि लोग सब भए सुखारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई । मुनि पद कमल गहे तब जाई ॥
करि बिनती निज कथा सुनाई । रंग अवनि सब मुनिहि देखाई ॥
जहँ जहँ जाहि कुअँर बर दोऊ । तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ ॥
निज निज रुख रामहि सबु देखा । कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा ॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ । राजाँ मुदित महासुख लहेऊ ॥
दोहा
सब मंचन्ह ते मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल ॥२४४॥
चौपाला
प्रभुहि देखि सब नृप हिँयँ हारे । जनु राकेस उदय भएँ तारे ॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं । राम चाप तोरब सक नाहीं ॥
बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला । मेलिहि सीय राम उर माला ॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई । जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई ॥
बिहसे अपर भूप सुनि बानी । जे अबिबेक अंध अभिमानी ॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा । बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा ॥
एक बार कालउ किन होऊ । सिय हित समर जितब हम सोऊ ॥
यह सुनि अवर महिप मुसकाने । धरमसील हरिभगत सयाने ॥
सोरठा
सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के ॥
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे ॥२४५॥
ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई । मन मोदकन्हि कि भूख बुताई ॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता । जगदंबा जानहु जियँ सीता ॥
जगत पिता रघुपतिहि बिचारी । भरि लोचन छबि लेहु निहारी ॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी । ए दोउ बंधु संभु उर बासी ॥
सुधा समुद्र समीप बिहाई । मृगजलु निरखि मरहु कत धाई ॥
करहु जाइ जा कहुँ जोई भावा । हम तौ आजु जनम फलु पावा ॥
अस कहि भले भूप अनुरागे । रूप अनूप बिलोकन लागे ॥
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना । बरषहिं सुमन करहिं कल गाना ॥
दोहा
जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाई।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं लवाईं ॥२४६॥
चौपाला
सिय सोभा नहिं जाइ बखानी । जगदंबिका रूप गुन खानी ॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं । प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ॥
सिय बरनिअ तेइ उपमा देई । कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥
जौ पटतरिअ तीय सम सीया । जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥
गिरा मुखर तन अरध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही । कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥
जौ छबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छप सोई ॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू । मथै पानि पंकज निज मारू ॥
दोहा
एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥२४७॥
चौपाला
चलिं संग लै सखीं सयानी । गावत गीत मनोहर बानी ॥
सोह नवल तनु सुंदर सारी । जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥
भूषन सकल सुदेस सुहाए । अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ॥
रंगभूमि जब सिय पगु धारी । देखि रूप मोहे नर नारी ॥
हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाई । बरषि प्रसून अपछरा गाई ॥
पानि सरोज सोह जयमाला । अवचट चितए सकल भुआला ॥
सीय चकित चित रामहि चाहा । भए मोहबस सब नरनाहा ॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई । लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥
दोहा
गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ॥
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥२४८॥
चौपाला
राम रूपु अरु सिय छबि देखें । नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं । बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ॥
हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई । मति हमारि असि देहि सुहाई ॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहु । सीय राम कर करै बिबाहू ॥
जग भल कहहि भाव सब काहू । हठ कीन्हे अंतहुँ उर दाहू ॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू । बरु साँवरो जानकी जोगू ॥
तब बंदीजन जनक बौलाए । बिरिदावली कहत चलि आए ॥
कह नृप जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥
दोहा
बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल ॥२४९॥
चौपाला
नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू । गरुअ कठोर बिदित सब काहू ॥
रावनु बानु महाभट भारे । देखि सरासन गवँहिं सिधारे ॥
सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा । राज समाज आजु जोइ तोरा ॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही ॥बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही ॥
सुनि पन सकल भूप अभिलाषे । भटमानी अतिसय मन माखे ॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई । चले इष्टदेवन्ह सिर नाई ॥
तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं । उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं ॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं । चाप समीप महीप न जाहीं ॥
दोहा
तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ ॥२५०॥
चौपाला
भूप सहस दस एकहि बारा । लगे उठावन टरइ न टारा ॥
डगइ न संभु सरासन कैसें । कामी बचन सती मनु जैसें ॥
सब नृप भए जोगु उपहासी । जैसें बिनु बिराग संन्यासी ॥
कीरति बिजय बीरता भारी । चले चाप कर बरबस हारी ॥
श्रीहत भए हारि हियँ राजा । बैठे निज निज जाइ समाजा ॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने । बोले बचन रोष जनु साने ॥
दीप दीप के भूपति नाना । आए सुनि हम जो पनु ठाना ॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा । बिपुल बीर आए रनधीरा ॥