हिन्दी पदावली - पद १०१ से ११०
संत नामदेवजी मराठी संत होते हुए भी, उन्होंने हिन्दी भाषामें सरल अभंग रचना की ।
१०१
नाराइंन सूं मन न रंजै । संजम चूकै अरु ब्रत षंडै ॥टेक॥
ऐकादसी ब्रत जुगति न जानैं । चंचलचित मन थिर न धरै ॥१॥
पंच आतमा राषि न सकई । राम दोष दे भूष मरै ॥२॥
पर निंद्या जू आप परकास । झूठी साषि सहजि ठारै ॥३॥
परत्रिया सूं रमैं रैनि दिन । नेम धरम सबै हारै ॥४॥
जलहर पैसि पषालै काया । अंतरि मैल न तउ उतरै ॥५॥
भणै नांमदेव कछु न सूझै । पूजा कौन देव की करै ॥६॥
१०२
पांडे देह अरथि लगाई ।
सात बरस कौ मांहि हौ । तब पांच बरस की माई ॥टेक॥
अगम अलेष बिचारि देषौ । सुसै स्वान छिपाई ।
मीन जलकौ गगन चढीयौ । बाघ षेदे गाई ॥१॥
समंद भीतरि बूंद जाचै । बूंद समंद समाई ।
नामदेव कै ऐक सोई । अलष लष्यौ न जाई ॥२॥
१०३
मन मंझा तूं गोविंद चरण चित लाइ रे ।
हरि तजि अनत न जाइ रे ॥टेक॥
बलिराजा धुंधमार, न जीवै जुग चार ।
मेरी मेरी करता, ते भी गये रे मन मंझा ॥१॥
रे मन मछिद्रनाथ सहस चौरासी होते ।
ते भी देषत काल लीये रे मन मंझा ॥२॥
रवि ससि दोऊ भाई, फिरत गगन लाई ।
ऐसे भूला भ्रम सब जा रे मन मंझा ॥३॥
अहंकार दिन दस राषिलै दिनच्यार ।
पसुडानै मुकति न होई रे मन मंझा ॥४॥
नामदेव छीप्यौ चौपई गाई ।
जाका जैसा भावै तिन तैसी सिधि पाई रे मंझा ॥५॥
रागा आसावरी
१०४
जोगिया जिनी षरचसि दामा । सूंम की नाईं भेटिलै रामा ॥टेक॥
बाई कौ दाम न षरचौ भावै । गांठि परै तब परचौ आवै ॥१॥
भणत नांमदेव राषिलै थाती । प्रगटी जोति जहां दीवा न बाती ॥२॥
१०५
झिलिमिलि झिलिमिलि झिलिमिलि तारा ।
सो झिलिमिलि तिहुं लोक पियारा ॥टेक॥
रहै अकास पडै नहीं दिष्टी । पकड्या जाइ न आवै मुष्टी ॥१॥
दीपक पषै तेल बिन बाती । जोति सरुप बलै दिन राती ॥२॥
भणत नांमदेव अमर पद परस्या । पिंडभया मुकति तया तत दरस्या ॥३॥
१०६
त्रिवेणी प्राग करहु मन मंजन, सेवो राजाराम निरंजन ॥टेक॥
पुरी द्वारिका निकटि गोमती । गंग जमुन बिच बहै सुरसती ॥१॥
अठसठि तीरथ मधि सरोवर । ऐक तया तामैं ताकौं घर ॥२॥
भणत नांमदेव सुणौं तिलोचन । ए तीरथ सब अघके भोचन ॥३॥
१०७
माधौजी माया मिलन न देई । जन जीवै तौ करै सनेही ॥टेक॥
माया जलधर मोर मन मछी । नीर बिना क्यों जीवै हो पियासी ॥१॥
जे मोडौं तौ मूल बिनासा । बोझ पड्या नहीं आवै सांसा ॥२॥
भणत नामदेव दीन दयाला । निरधारन के तुम आधारा ॥३॥
१०८
माधौ माली एक सयाना । अंतरिगत रहै लुकानां ॥टेक॥
आपै बाडी आपै माली, कली कली कर जोडै ।
पाके काचे, काचे पाके, मनि मानै ते तोडै ॥१॥
आपै पवन आपही पाणी, आपै बरिषै मेहा ।
आपै पुरिष नारि पुनि आपै आपै नेह सनेहा ॥२॥
आपै चंद सूर पुनि आपै, आपै धरनि अकासा ।
रचनहार विधि ऐसी रची है, प्रणवै नामदेव दासा ॥३॥
१०९
काल न्याइ विचारि हौ । काइथ बांभण तिलक सुमिरि हौ ॥टेक॥
चारि बेद चौ धरणी । नरक पडौ धरमादिक करणी ॥१॥
सूझणि ना परि धांधे । चंद सूर दोउ उर धरि बांधे ॥२॥
बांभण मद भरि सरवा । जतन पीवै तत मातल बरवा ॥३॥
हरि कौ दास भणै नामा । राम नाम बिन और न जाना ॥४॥
११०
जाणौं नै जाणौं बेद पुरानां । छोडौं पाना पोथी ।
बिन मेघा मुकताहल बरवै । भ्रब निरंतर मोती ॥टेक॥
बिनै बजाया बाजा बाजै । नादै अंबर गाजै ।
बिन भेरै होत झणकारा । न दीसै बजांवण हारा ॥१॥
बिन पावक जोती ही दीसै । सुनि मैं सूता जागै ।
अंधियारानौ भौ भागोरे भाई । जे जोइये ते आगै ॥२॥
कर जोडिनै नामौ बिनवै । मैं मूरिष मति थोडी ।
ये पदनौं हेतारथ जांणै । तेन्है पगि लागूं करजोडी ॥३॥
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Last Updated : January 02, 2015
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