१३१
तुम्हारी कृपा बिना न पाइये हो । राम न पाई हो ॥टेक॥
भाव कलपतर भगति लता फल । सो फल रसाल कै बेसी देवा ॥१॥
नामौ भणै केसवे तूं देसी तर लाहाइणै । उपाये तुझे भणीजै ॥२॥
१३२
चूक भजीला चूक भजीला । चूकै चित अवतार धरीला ॥टेक॥
दृग हीणां औतार बषाणैं । अकल अगोचर एक न जाणैं ॥१॥
भूला जग पाषांण पुजीला । अंतरजामी उरि न सुझीला ॥२॥
जन नामदेव निरषि निरंजन घ्यावै । अंजन आवै जाइ न भावै ॥३॥
राग मारु षंभाइची
१३३
धनि दिहाडौं धनि घडीयै । साधो भाई गोविंदजी धरि आया ऐ ॥टेक॥
चंदन चौक पुरावज्योऐ । साधो भाई पांच सषी मिलि बधाया ऐ ॥१॥
गगन मंडल म्हारो बैषणोऐ । साधो भाई बाजै अनहद तूरौ ऐ ॥२॥
हरी जी आव्या म्हारै पाहुंणाऐ । साधो भाई आज बधावौ पूरौ ऐ ॥३॥
आंबा रि लागी बादलीऐ । साधो भाई झिरिमिरि बरषै मेहौ ऐ ॥४॥
गरीब नामदेव हरि भज्यौऐ । साधो भाई लोग हंसे बादी ज्यों ऐ ॥५॥
राग परजीयौ
१३४
लागी जनम जनम की प्रीति, चित नहीं बीसरै रे ॥टेक॥
जेन्है मुषडौ दीठै सुष थाई, तेन्हें कोई जाइ कहौ रे ॥१॥
जासों मन बांधी प्रीति अपार, अपरछन थई रह्यौ रे ॥२॥
भर्यौ सरवर लहर्या जाइ, धायौ नहीं पपीहरौ रे ॥३॥
तेन्हौ घन बिन तृपति न थाइ जोवौ तेन्हौ नेहरौ रे ॥४॥
दोइ लष चंदल दूरि कमोदनि बिगसै रे ॥५॥
जन नामदेव नौ स्वामी दीन दयाल, ते बेदनि लहै रे ॥६॥
राग कल्याण
१३५
नाचि रे मन राम के आगे । ग्यांन बिचारि जोग बैरागे ॥टेक॥
नाचै ब्रम्हा नाचै इंद । सहस कला नाचै रवि चंद ॥१॥
रामकै आगै संकर नाचै । काल विकाल अकाललहिं नांचै ॥२॥
नारद नाचै दोइ कर जोडि । सुर नांचै तैतीसूं कोडि ॥३॥
भणत नांमदेव मनहिं नचाऊं । मनके नचाये परम पद पाऊं ॥४॥
राग सारंग
१३६
भइया कोई तूलै रे रांम नांम ।
जोग जिग तप होम नेम व्रत ए सब कौने काम ॥टेक॥
एक पलै सब बेद पुरानां एक पलै अरध नांम ॥
तीरथ सकल अंहडै दीन्हैं तऊ न होत समान ॥१॥
नाद न बिंद रुप नहीं रेषां ताकौ धरिये ध्यांन ।
तीनि लोक जाकै उद्र समाना, सिभूं पद नृबान ॥२॥
भणत नामदेव अंतरजामी, संतौ लेउ बिचारी ।
रामनाम समि कोई न तूलै, तारण तिरण मुरारी ॥३॥
१३७
गोविंद राषउ चरणन तीर ।
जैसे तरवर पात परै झरि, बिनसै सकल सरीर ॥टेक॥
जब त्रिया उद्र कीयौ प्रतिपाल, ग्रभ संकट दुष भीर ।
नरसहै यूं बिनसि जावै, चलत मिटै नहीं पीर ॥१॥
जैसे भुतंगम पंष बिहूनौं, नलनी बिनि झरै नीर ।
नामदेव जन जम की त्रास तैं प्राण धरत नहीं धीर ॥२॥
राग धनाश्री
१३८
हमारै करत राम सनेही ।
काहे रे नर गरब करत है बिनसि जाइगी देही ॥टेक॥
उंडी षणि षणि नींव दिवाई, ऊंचे मंदिर छाये ।
मारकंडै ते कौन बडौ है, तिन सिरि द्यौस बलायै ॥१॥
मेरी मेरी कैरौ करते, दुरजोधन से माई ।
बारह जोजन छत्र चलत सिरि, देही गिरधनि षाई ॥२॥
सर्व सोवनी लंका होती रावण से अहंकारी ।
छाडि गये दर बांधे हाथी, छिन मैं भये भिषारी ॥३॥
दुरबासा सूं करी ठगौरी, जादौ सबै षपाये ।
गरब प्रहारी हैं प्रभु मेरौ नामदेव हरि जस गाये ॥४॥
१३९
बाल सनेही गोविंदा । अब जिनि छांडौ मोहिं ।
मैं तोसौं चित लाइयौ । मेरे अवर न दूजा कोई ॥टेक॥
तूं निर्गुण हौं गुण भरी । एकहिं मंदिर वास ।
एक पालिक पौढतें । अब क्यों भये उदास ॥१॥
बडी सौति मेरी मरि गई । भयौ निकटौ राजौ ।
अब हौं पीयकी लाडली । मेरो कबूहं न होइ अकाजौ ॥२॥
जेठ निमानौं परिहर्यौ । छांडि सुसर कौ हेत ।
पुरिष पुरातन व्याहियौ । कबहूं न होइ कुहेत ॥३॥
सासुरवाड्यों परिहर्यौ । पीहर लीयौ न्हालि ।
नामदेव कौ साहिब मिल्यौ । भागी कुलकी गाली ॥४॥
१४०
कपट मैं न मिलै गोविंद गुन सागर गोपाल ।
गोपी चंदन तिलक बनावै कंठहु लावै माल ॥टेक॥
मन प्रतीति नहीं रे प्रांनी औरन कूं समझाइ ।
लोकन कू वैकुथं पठावै, आपण जमपुरि जाइ ॥१॥
जानि बूझि विष षाइअये रे, अंधे अंधा हाथि ।
देखत ही कूंवै पडै, अंधो अंधा साथि ॥२॥
जोग जग जप तप तीरथ व्रत मन राषै इन पास ।
दान पुनि धरम दया दीनता, हरि की भगति उदास ॥३॥
भजि भगवंत भजन भजि प्रांनी छांडे अणेरी आस ।
बरना बरन सुभासुभ भजि करि, कौन भयो निज दास ॥४॥
कोमल विमल संत जन सूरा करैं तुम्हारी आस ।
तिन पर कृपा करौं तुम केसव प्रणवत नामदेव दास ॥५॥