अब धारणा कहती हूँ जिसके करने से साधक धीर हो जाता है । धारण वाला योगी सारे त्रैलोक्यको अपने उदर में रख कर पूर्णता प्राप्त कर लेता है । १ . अंगूठा , २ . गुल्फ , ३ . जानु , ४ . ऊरु , ५ . अण्दकोश , ६ . लिङ्ग , ७ . नाभि , ८ . ह्रदय , ९ . ग्रीवा , १० . कण्ठ प्रदेश में , ११ . जिहवा में एवं १२ . नासिका इन द्वादश स्थानों के बाद मस्त्क के भ्रुमध्य में अथवा शिरः प्रदेश में प्राणवायु के धारण करने को धारण करने को धारण कहा जाता है । अथवा सभी नाडियों के ग्रन्थि स्थल में षटचक्र में जहाँ देवताओं का स्थान है अथवा ब्रह्ममार्ग ( सहस्त्रारचक्र ) में प्राणवायु को धारण करना ही धारणा कहा जाता है ॥३१ - ३४॥
अथवा , मूलाधार में , कुण्डली में तथा नासिका प्रदेश में प्राणवायु को शान्त रखना धारणा कहा जाता है । अथवा अत्यन्त सुन्दर तेज वाले श्री भगवती के मङ्गालदायी चरणाम्भोज में भावपूर्वक चित्त को स्थापित चाहिए , जिससे धारणा शक्ति प्राप्त हो । अब ध्यान कहती हूँ , जिसके करने से साधक सर्वज्ञ हो जाता है । ध्यान योग से साधक को मोक्ष मिलता है और वह मेरे कौलिक आगम का ज्ञाता हो जाता है ॥३५ - ३७॥
मन को अत्यन्त समाहित कर अन्तःकरणवर्ती चैतन्य द्वारा अपनी आत्मा में अथवा अभीष्ट देवता में ध्यान करना ही योग ध्यान कहा जाता है । अथवा भगवती महाश्री के नख किञ्जल्क से चित्रित दोनों चरण कमलों में मन रुपी कमल को स्थापित कर इष्टदेवता का ध्यान करना ही ध्यान कहा जाता है ॥३८ - ३९॥