सत्ताइसवाँ पटल - दार्शनिकमतकथन

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


वही सर्वश्रेष्ठ बिन्दु स्थान है , अन्य मतावत्नम्बियों का मत सुनिए । ज्ञानीजन उसी को आत्मा कहते है और आत्माज्ञानी उसी को ईश्वर कहते हैं । नाना कर्म न करने वाले मात्र शरीरवादी चार्वाक ’ कुछ भी नहीं है ’ ऐसा कहते हैं । वेद की निन्दा करने वाले सभी बौद्ध शून्य वादी हैं । वे किसी की सत्ता नहीं मानते ॥७१ - ७२॥

ये बौद्ध चीनभूमि में निवास करने वाले मेरे ज्ञानाश्रित होने के कारण मुझे प्रिय हैं । मैं तो अपने को अपरिच्छिन्न समझकर उस बिन्दु स्थान का ध्यान करती हूँ । भगवती महाश्री के चरणा कमलों में नखेन्दु मण्डल के रुप में उन दो बिन्दुयों को शैव , शाक्त तथा महर्षिगण शिव का स्थान देते हैं ॥७३ - ७४॥

सबसे प्रेम करने वाले वैष्णव उस बिन्दु मण्डल को परम पुरुष के रुप में मानते हैं । अन्य जन उन दोनों बिन्दुमण्डलों को हरिहरात्मक रुप में मानते हैं । भगवती के चरणानन्द में निर्भर भक्त उस बिन्दु को देवी का साक्षात् पद मानते हैं । मुख्य मुख्य मुनिगण उसे प्रकृत्यात्मक पुरुष मानते हैं । इस पृथ्वीतल में प्रायः सभी उस बिन्दु को प्रकृत्यात्माक भाव से मान कर उसी में निमग्न हैं । हे नाथ ! इस प्रकार हमने सर्वश्रेष्ठ मन्त्रयोग कहा ॥७५ - ७७॥

योग मार्ग के अनुसार साधक समाहित चित्त से उस बिन्दु का ध्यान करे । सर्वप्रथम महापूरक के द्वारा मूलाधार में अपने मन को लगावे । गुदा और मेढ़ के मध्य में रहने वाली शक्ति को संकुचित कर जागृत करे । इस प्रकार तत्तच्चिन्हों का भेदन कर उसे सहस्त्रार स्थित बिन्दु चक्र में ले जावे । वहाँ से उस पर शक्ति का शिव के साथ एकीभाव के रुप में ध्यान करे । वहाँ से पिघले हुए द्राक्षारस के समान उत्पन्न हुए अमृत रस का उसे पान करावें । इस प्रकार षट्‍चक्र का भेदन करने वाला साधक अमृत धारा के द्वारा योग में सिद्धि प्रदान करने वाली उस महाकाली शक्ति को तृप्त करावे ॥७८ - ८१॥

उसे तृप्त कराने के बाद सुधी साधक पुनः उसी मार्ग से उसे मूलाधार में ले आवे । इस प्रकार प्रतिदिन वायु का अभ्यास करते हुए साधक जरा मरण तथा समस्त दुःखों से छुटकारा पा जाता है और वह संसार बन्धान से मुक्त हो जाता है , किं बहुना तन्त्र शास्त्र में कहे हुए वे , सभी मन्त्र उसे सिद्ध हो जाते है . जिसे सिद्ध करने का कोई अन्य उपाय नहीं है ॥८२ - ८३॥

वह स्वयं शीघ्रतापूर्वक सिद्ध हो जाता है , योग में रहने वाली योगवल्लभा उस पर कृपा करती हैं , पञ्चकृत्य विद्यायी सदाशिव देव में जितने गुण हैं वे सभी गुण उस साधक श्रेष्ठ में आ जाते हैं । अन्यथा नहीं । हे नाथ ! इस प्रकार हमने श्रेष्ठ मन्त्र योग कहा ॥८४ - ८५॥

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Last Updated : July 30, 2011

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