सत्ताइसवाँ पटल - ध्यानलक्ष्यनिरूपण

रूद्रयामल तन्त्रशास्त्र मे आद्य ग्रथ माना जाता है । कुण्डलिणी की सात्त्विक और धार्मिक उपासनाविधि रूद्रयामलतन्त्र नामक ग्रंथमे वर्णित है , जो साधक को दिव्य ज्ञान प्रदान करती है ।


वैष्णव ध्यान --- अब सर्वश्रेष्ठ अञ्जन के समान दृष्टि प्रदान करने वाले धारणा के विषय में सुनिए । देश और काल से सर्वथा अनवच्छिन्न आप शङ्कर में अथवा मुझमें साधक अपना चित्त सन्निविष्ट कर तन्मयता प्राप्त करे । इस प्रकार जीव और ब्रह्म में एकत्व की भावना कर शीघ्र ही तन्मयता प्राप्त करे , इस प्रकार जीव और ब्रह्म में एकत्व की भावना करने से शीघ्र ही तन्मयता प्राप्त हो जाती है ॥८६ - ८७॥

अथवा नखकिञ्जल्क से चित्रित अपने इष्टदेव के पाद में मन लगावे तब भी चित्त स्थिर हो जाता है । अथवा मनन करने वाला यह चञ्चल चित्त यदि शीघ्रता से सिद्ध्क ( स्थिर ) न हो तो शरीर के अवयवभूत एक - एक अड्कों में योगी योग द्वारा चित्त स्थिर रखे । प्रथम नखकिञ्जलक चित्रित इष्टदेव के चरण कमलों में मन लगावे ॥८८ - ८९ ॥

इसके बाद वाटिका स्थित कदली काण्ड के समान प्रभा वाले दोनों जाँघों में मन लगावे । फिर मदमत्त हाथी के शुण्डाग्रदण्ड के समान दोनों ऊरु में मन को स्थिर करे । इसके बाद सिद्धि के लिए प्रवेश किए जाने वाले बिल के समान गङ्गा के आवर्त के समान गम्भीर नाभि स्थान में मन लगावे । इसके बाद श्रीवत्सकौस्तुभ से विराजमान उदर एवं वक्षःस्थल में , तदनन्तर कर कमल में मन लगावे ॥९० - ९१॥

इसके बाद अमृत से संयुक्त पूर्णमासी के चन्द्रमा के समान तथा मनोहर कुण्डल से मण्डित ललाट में मन लगावे । फिर शंख , चक्र गदा और कमल से मण्डित चार भुजाओं से संयुक्त सहस्त्रों सूर्यों के समान देदीप्यमान किरीट एवं दो कुण्डलों से युक्त श्रीकृष्ण परमात्मा में मन लगावे । भगवान् ‍ श्रीकृष्ण के इन स्थानों में विशुद्ध चित्त से मन को लगाने वाला मन्त्रज्ञ साधक निश्चित रुप से विष्णुभक्त बन जाता है । यहाँ तक हमने सत्त्वगुण से संयुक्त अत्यन्त निर्मल वैष्णव ध्यान का वर्णन किया ॥९२ - ९४॥

जिनका मन स्थिर है , ऐसे विष्णुभक्त स्वाधिष्ठान चक्र में विष्णु का ध्यान करते हैं । जब तक मन श्रीकृष्ण में लय को न प्राप्त होवे , तब तब तक आत्मा में उक्त प्रकार से श्री कृष्ण का ध्यान करना चाहिए । तभी स्वाधिष्ठान चक्र की सिद्धि होती है , ऐसा योगशास्त्र का निर्णय है तभी तक मन्त्रज्ञ मन्त्र का जप करे तथा जप और होम का अभ्यास करे ॥९५ - ९६॥

सिद्धि प्राप्त कर लेने के पश्चात् ‍ और कोई कृत्य शेष नहीं रह जाता । क्योंकि मन को हरण करने वाले परतत्त्व परमात्मा का साक्षात्कार हो जाने पर समस्त नियम व्यर्थ ही हैं । इसीलिए सर्वदा ध्यान करे , योग करे , मन्त्र का जप करे , जिस प्रकार अन्धकारपूर्ण घर में रहने वाला घड़ा दीप से दिखाई पड़ता है ॥९७ - ९८॥

उसी प्रकार माया से आवृत आत्मा मन्त्र के द्वारा प्रत्यक्ष हो जाती है । हे नाथ ! यहाँ तक हमने सर्वश्रेष्ठ मन्त्र योग कहा । ऐसा करने से साधक पापों से तथा सब प्रकार के दुःखों से छूट जाता है इसमें संशय नहीं । यह ध्यान विषयी लोगों के लिए दुर्लभ है तथा योगियों के लिए सुलभ हैं ॥९९ - १००॥

विद्वान साधक यदि सिद्धि चाहे तो उसे इस सुलभ मार्ग का त्यागा नहीं करना चाहिए । जो ब्रह्मज्ञानी ! योग , ध्यान , मन्त्र का जाप तथा अपनी क्रिया करता रहता है वह सदा कल्याणकारी योगिराज वीरभद्र बन जाता है । इसलिए सदैव सदाशिव की भक्ति करनी चाहिए अथवा परात्परा श्रीविद्या की भक्ति करनी चाहिए ॥१०१ - १०२॥

योगसाधन काल में केवल भावनादि से ही भाक्ति करे । मनन , कीर्तन , ध्यान , स्मरण , पादसेवन , अर्चन , वन्दन , दास्य , सख्य तथा आत्मनिवेदन उक्त प्रकार वाली भक्ति के सिद्ध हो जाने पर साधक जीवन्मुक्त हो जाता है और योगियों का वल्लभ हो कर समाधि में स्थित ( प्रज्ञ ) योगी बन जाता है ॥१०३ - १०५॥

N/A

References : N/A
Last Updated : July 30, 2011

Comments | अभिप्राय

Comments written here will be public after appropriate moderation.
Like us on Facebook to send us a private message.
TOP