हे सदाशिव ! अब समाधि का माहात्म्य तत्त्वतः कहती हूँ , उसे सुनिए जिसके साधन से साधक मनुष्य पूर्णयोगी बन जाता है । जीवात्मा और परमात्मा में नित्य समत्व की भावना ही समाधि है । हे आनन्दभैरवेश्वर ! इस समाधि से साधक विजय प्राप्त करता है । जीवात्मा तथा परमात्मा के संयोग की सिद्धि हो जाने पर महायोगी साधक , समाधि में स्थित महाजन का दर्शन प्राप्त करता है , यह अष्टाङ्ग लक्षण योग के आठवें भेद समाधि का फल कहा गया है ॥४० - ४२॥
इस समाधि के पूर्ण हो जाने पर ही योगी योगान्वित होता है । चन्द्रमा में मन लगाकर योगी उसी का ध्यान करे । इस समाधि रुपयोग के आठवें लक्षण से साधक योग के योग्य हो जाता है । योग से युक्त होने पर मोक्ष की प्राप्त होती है और उसके मन्त्र की सिद्धि कभी खण्डित नहीं होती । योगशास्त्र के विधान के पालन करने से सभी साधक भैरव के समान हो जाते हैं ॥४३ - ४५॥
ऐसे तो त्रैलोक्य में अतीत काल में कितने शास्त्र बने हुए है , अनेक प्रकार के योगाङ्ग भी बताए गए हैं , किन्तु योग शास्त्र से बढ़कर अन्य कोई दूसरा शास्त्र नहीं है । हे शङ्कर ! योग के अङ्गभूत इन नाना प्रकार के ध्यानों से साधक मेरा दर्शन शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है ॥४५ - ४६॥