नामरूप - ॥ समास दूसरा - सारासारनिरूपणनाम ॥

इस ग्रंथराज के गर्भ में अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों के अंतर्गत सर्वांगीण निरूपण समाया हुआ है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
सुनो सारासारविचार । उभारा जगडम्बर । उसमें कौन सार कौन असार । विवेक से पहचानें ॥१॥
दिखता सो नष्ट होता । और जो आता वह जाता । जो सदैव ही रहता । वही सार ॥२॥
पीछे आत्मानात्मविवेक कहा । अनात्मा पहचानकर त्यागा । आत्मा जानते ही मिला । मूलारंभ का मूलतंत ॥३॥
मूल में जो रह गई वृत्ति । होनी चाहिये निवृत्ति । सारासारविचार श्रोती । देखें अच्छे से ॥४॥
नित्यानित्यविवेक किया । आत्मा नित्य सा चुन लिया । निवृत्ति रूप में हेतु बच गया । निराकार में ॥५॥
हेतु याने वह चंचल । निर्गुण याने निश्चल । सारासार विचार से चंचल । हो जाता ॥६॥
विचलित होये अतः वह चंचल । विचलित न होये अतः निश्चल । निश्चल से उड़े चंचल । निश्चयात्मक ॥७॥
ज्ञान और उपासना । दोनों एक ही देखो ना । जनों का करने पर उपासना । जगदोद्धार ॥८॥
द्रष्टा साक्षी ज्ञाता । ज्ञानघन चैतन्यसत्ता । ज्ञान देव ही तत्त्वतः । देखो अच्छी तरह ॥९॥
उस ज्ञान का विज्ञान होता । खोज करें बहुत मतों का । चंचल सारा नष्ट होता । इस तरह से ॥१०॥
नाशवंत नष्ट होगा या नहीं । मन में है ऐसा अनुमान ही । फिर वह पुरुष सहसा नहीं । ज्ञान का अधिकारी ॥११॥
नित्य निश्चय किया । संदेह शेष रहते ही गया । फिर जानो वह बह गया । महामृगजल में ॥१२॥
क्षय ही नहीं जो अक्षय । व्यापक रूप में सभी जगह । वहां नहीं हेतु संदेह । निर्विकारी में ॥१३॥
जो उदंड सघन । आद्य मध्य और अंत तक । अचल अडिग अटूट । जैसे का वैसे ॥१४॥
देखें तो जैसे गगन । गगन से भी अधिक सघन । जन ही नहीं निरंजन । सदोदित ॥१५॥
चर्मचक्षु ज्ञानचक्षु । यह तो सारा ही पूर्वपक्षु । निर्गुण निश्चयात्मक अलक्ष्य । लक्ष्य आये ना ॥१६॥
संग त्याग के चिन । परब्रह्म कभी होयें ना । संग त्याग कर देखना । मौन्यगर्भः को ॥१७॥
निरसन करते सबका निरसन हुआ । चंचल सारा निकल गया । निश्चल परब्रह्म जो बचा । वही सार ॥१८॥
आठवां देह मूलमाया । निरसित हुई अष्टकाया । साधु कहते उपाय । कृपालुता से ॥१९॥
सोहं हंसा तत्त्वमसि । वह ब्रह्म है तू ही । देखने पर स्थिति ऐसी । सहज ही होती ॥२०॥
साधक रहकर भी हुआ ब्रह्म । वहां हुई वृत्ति शून्य । किया सारासार का विचार । इस प्रकार से ॥२१॥
ना तपता ना ठंडा होता । ना उजियाला ना काला पडता । ना मैला होता ना निथरता । परब्रह्म वह ॥२२॥
दिखेना ना भासेना । उपजे ना ना नष्ट होये ना । वह आये ना ना जाये ना । परब्रह्म वह ॥२३॥
वह भीगेना ना सूखेना । वह बुझे ना ना जले ना । जिसे कोई भी ले जाये ना । परब्रह्म वह ॥२४॥
जो सम्मुख ही चारों ओर । जहां उड़े दृश्यभास । धन्य वह साधु जो हो तद्रूप । निर्विकार में ॥२५॥
निर्विकल्प में कल्पनातीत । उसे ही पहचानियें संत । अन्य सारे ही असंत । भ्रमरूप ॥२६॥
खोटा त्याग खरा लेना । तभी फिर पारखी कहलाना । असार त्याग सार लेना । परब्रह्म जो ॥२७॥
जानते जानते ज्ञातृत्व जाती । अपनी वृत्ति तद्रूप होती । आत्मनिवेदन भक्ति । यह ऐसी है ॥२८॥
वाच्यांश से भक्ति मुक्ति कहें । लक्ष्यांश में तद्रूप का विवरण करें । विवरण में हेतु न रहने दें । वह तद्रूपता ॥२९॥
सद्रूप चिद्रूप और तद्रूप । स्वस्वरूप याने अपना रूप । अपना रूप याने अरूप । तत्त्वनिरसन के उपरांत ॥३०॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सारासारनिरूपणनाम समास दूसरा ॥२॥

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Last Updated : December 08, 2023

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