नामरूप - ॥ समास छठवां - लघुबोधनाम ॥

इस ग्रंथराज के गर्भ में अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों के अंतर्गत सर्वांगीण निरूपण समाया हुआ है ।


॥ श्रीरामसमर्थ ॥
जिन्हें पंचतत्त्व कहते । उनके नामों का अभ्यास करें । तदुपरांत स्वानुभव से । रूप जानिये ॥१॥
इनमें शाश्वत कौन । और अशाश्वत कौन । ऐसा करें विवरण । प्रत्यय का ॥२॥
पंचभूतों का विचार । नामरूप सारासार । वही कहा निर्धार । सुनो सावधानी से ॥३॥
पृथ्वी आप तेज वायु आकाश । नाम कहे हैं यथावकाश । अब रूप का विश्वास । धरें श्रवण में ॥४॥
पृथ्वी याने वह धरणी । आप याने वह पानी । तेज याने अग्नि तरणि । सतेज आदि ॥५॥
वायु याने वह बयार । आकाश याने सारा विस्तार । अब शाश्वत का करें विचार । अपने मन में ॥६॥
एक चावल के दाने से । समझता मर्म जैसे । वैसे थोड़े अनुभव से । जानें बहुत ॥७॥
पृथ्वी रचती और मिटती । ये बात तो प्रत्यय में आती । नाना रचनायें होती रहती । सृष्टि में ॥८॥
इस कारण बनता वह मिटता । आप भी सूख जाता । तेज भी प्रकट होकर बुझता । हवा भी रुकती ॥९॥
अवकाश नाममात्र है । विचार करें तो वह भी ना रहे । एवं पंचभूतिक रहे । यह तो होता नहीं ॥१०॥
ऐसे पांच भूतों का विस्तार । निश्चयात्मक ये नश्वर । शाश्वत आत्मा निराकार । सत्य जानिये ॥११॥
वह आत्मा किसी को समझे ना । ज्ञान बिन आकलन होये ना । संतजनों से इस कारण । पूछें ॥१२॥
पूछने पर सज्जन से । वे कहते जो अविनाशी है । जन्म मृत्यु आत्मा के । कहें ही नहीं ॥१३॥
निराकार में भासे आकार । और आकार में भासे निराकार । निराकार और आकार । विवेक से पहचानें ॥१४॥
निराकार जानें नित्य । आकार जानें अनित्य । इसे कहते नित्यानित्य । विचारणा ॥१५॥
सार में भासे असार । असार में भासे सार । सारासार विचार । खोजकर देखें ॥१६॥
पंचभूतिक सो मायिक । परंतु भासे अनेक । और आत्मा एक । व्यापक रहता ॥१७॥
चारों भूतों में गगन । वैसे गगन में होता सघन । विचारपूर्वक देखें तो अभिन्न । गगन और वस्तु ॥१८॥
उपाधि योग से ही आकाश । उपाधि ना हो तो निराभास । निराभास वह अविनाश । वैसे गगन ॥१९॥
अस्तु अब रहने दो यह विवंचना । परंतु जो देखने पर नष्ट होये ना । टिके उसे ही अनुमान । में लायें विवेक से ॥२०॥
परमात्मा वह निराकार । जानो यह विचार सार । और मैं कौन यह विचार । देखना चाहिये ॥२१॥
देह का आते ही अंत । वायु निकल जाता तत्त्वतः । इसे अगर कहते हो मिथ्य । तो अभी रोकें श्वासोच्छवास ॥२२॥
श्वास रुकते ही देह गिरता । देह गिरते ही प्रेत कहलाता । प्रेत से कार्य न होता । कभी भी ॥२३॥
देह से अलग वायु ना करे । वायु से अलग देह ना करे । विचार देखें तो कुछ भी न करे । एक से अलग एक ॥२४॥
यूं ही देखें तो मनुष्य दिखे । विचार करें तो कुछ भी ना रहे । अभेद भक्ति के लक्षण ऐसे । पहचानें ॥२५॥
कर्ता स्वयं ऐसा कहें । तो फिर अपनी इच्छानुसार होना चाहिये । इच्छानुसार ना होये । तो मानें सभी व्यर्थ ॥२६॥
कर्ता हम नहीं इस कारण । वहां भोक्ता कैसा कौन । ऐसे विचार के लक्षण । न हों अविचार से ॥२७॥
अविचार और विचार । जैसे प्रकाश और अंधकार । विकार और निर्विकार । दोनो एक नहीं ॥२८॥
जहां नहीं विवंचना । वहां कुछ भी चले ना । सत्य कभी आये ना । अनुमान मे ॥२९॥
प्रत्यय को कहिये न्याय । अप्रत्यय वह अन्याय । जात्यांध को क्या होगी परख । नाना रत्नों की ॥३०॥
इस कारण ज्ञाता धन्य धन्य । जो निर्गुण से अनन्य । आत्मनिवेदन से मान्य । परम पुरुष ॥३१॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे लघुबोधनाम समास छठवां ॥६॥

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Last Updated : December 08, 2023

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