नामरूप - ॥ समास दसवां - सिकवणनिरूपणनामः ॥
इस ग्रंथराज के गर्भ में अनेक आध्यात्मिक ग्रंथों के अंतर्गत सर्वांगीण निरूपण समाया हुआ है ।
॥ श्रीरामसमर्थ ॥
पत्रमाला सुमनमाला । फलमाला बीजमाला । पाषाणमाला कौडीमाला । बनती सूत्र से ॥१॥
स्फटिकमाला मोहरमाला । काष्ठमाला गंधमाला । धातुमाला रत्नमाला । जाली पंक्ति चंदोबा ॥२॥
पर ये तंतू से बनते । तंतू न हो तो बिखरते । ऐसे ही आत्मा के लिये कहते । फिर भी पर्याप्त ना होये ॥३॥
तंतू में मणि पिरोया । तंतू में ही बंदिस्त हुआ । आत्मा ने सर्वांग व्याप्त किया । देखो तो ॥४॥
आत्मा चपल सहज गुणों से । डोरी क्या चपल होगी ऐसे । दृष्टांत देना इस कारण से । विहित नहीं ॥५॥
नाना लताओं में जलांश । गन्ने में भरा रस । परंतु उसका छिलका और रस । एक नहीं ॥६॥
देह में आत्मा देह अनात्मा । उससे भी परे वह परमात्मा । निरंजन को उपमा । होती ही नहीं ॥७॥
राजा से लेकर रंक तक । सारी मनुष्य की कतार । सारे एक ही समान । कैसे कहें ॥८॥
देव दानव मानव । नीच योनी हीन जीव । पापी सुकृति अभिप्राव । अपार हैं ॥९॥
एकांश से चले जग । मगर सामर्थ्य होते अलग अलग । मुक्त किया एक के संग । दूसरे के संग रौरव ॥१०॥
चीनी और मिट्टी पृथ्वी होते । परंतु मिट्टी नहीं खाया जाये । गरल भी आप नहीं क्या । मगर वह मिथ्या ॥११॥
पुण्यात्मा और पापात्मा । दोनों में अंतरात्मा । साधु और पाखंडी की सीमा । भूलो ही नहीं ॥१२॥
अंतरंग एक यह तो सत्य । परंतु न ले सकते महार को साथ । छिछोरे लड़के और पंडित । एक कैसे ॥१३॥
गधे और मनुष्य । मुर्गे और राजहंस । राजा और मर्कट । एक कैसे ॥१४॥
भागीरथी का जल आप । मोरी धोवन भी आप । गंदगीयुक्त उदक अल्प । पी सके ना ॥१५॥
इस कारण आचार शुद्ध । उस पर विचार शुद्ध । वीतरागी और सुबुद्ध । ऐसा चाहिये ॥१६॥
कायर को श्रेष्ठ माना शूर से । तो युद्धप्रसंग मैं होगी दुर्गति ऐसे । श्रीमंत त्यागकर दरिद्र की कैसे । करते हो सेवा ॥१७॥
एक ही उदक से सारे बने । मगर देखकर चाहिये सेवन करने । सारे ही समान समझे । फिर वह मूर्खता ॥१८॥
जीवन से ही हुआ अन्न । अन्न से हुआ वमन । परंतु वमन का भोजन । कर न पाते ॥१९॥
वैसे ही निंद्य को त्यागें । वंद्य को हृदय में धरें । सत्कीर्ति से भरें । भूमंडल ॥२०॥
उत्तम को उत्तम ही माने । कनिष्ठ को वह मान्य न होये । इस कारण अभागों को देव ने । पैदा कर रखा ॥२१॥
त्यागें सार अभागापन । धरें उत्तम लक्षण । हरिकथापुराणश्रवण । नीतिन्याय ॥२२॥
व्यवहार का विवेक । राजी रखें सकललोक । धीरे धीरे पुण्यश्लोक । करते जायें ॥२३॥
बच्चों के चाल से चलें । बच्चों के मनोगत से बोलें । वैसे ही जनों को सिखायें । धीरे धीरे ॥२४॥
मुख्य मनोगत रक्षण । ये ही चातुर्य के लक्षण । चतुर जाने चतुरांग ज्ञान । अन्य वे पागल ॥२५॥
पागल को पागल ना कहें । मर्म कदापि न बोलें । तभी फिर दिग्विजय होये । निस्पृह की ॥२६॥
उदंड स्थलों पर उदंड प्रसंग । जानकर करें यथासांग । प्राणीमात्र के अंतरंग । बनकर रहें ॥२७॥
मनोगत संभालने पर । परस्पर होती अवस्था । मनोगत तोड़ने पर । व्यवस्था सही नहीं ॥२८॥
इस कारण मनोगत । सम्हाले वह बड़ा महंत । मनोगत रखने पर समस्त । खिंचकर आते ॥२९॥
इति श्रीदासबोधे गुरुशिष्यसंवादे सिकवणनिरूपणनाम समास दसवां ॥१०॥
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Last Updated : December 08, 2023
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