मूरख, छाड़ि बृथा अभिमान ।
औसर बीति चल्यो है तेरौ, दो दिनकौ मेहमान ॥
भूप अनेक भये पृथिवीपर, रुप तेज बलवान ।
कौन बच्यो या काल ब्याल तें मिटि गये नाम निसान ॥
धवल धाम धन, गज, रथ, सेना नारी चंद्र समान ।
अंतसमै सबहीकों तजिकै, जाय बसे समसान ॥
तजि सतसंग भ्रमत बिषयनमें, जा बिधि मरकट स्वान ।
छिन भरि बैठि न सुमिरन कीन्हों, जासों होय कल्यान ॥
रे मन मूढ़ अनत जनि भटकै, मेरौ कह्यौ अब मान ।
नारायन ब्रजराज कुँवरसों, बेगहि करि पहिचान ॥
टेर सुनों ब्रजराज-दुलारे ।
दीन मलीन हीन सब गुनते, आय पर्यो हौं द्वार तिहारे ॥टेर॥
काम क्रोध अरु कपट मोह, मद, सो जाने निज प्रीतम प्यारे ।
भ्रमत रह्यौं सँग इन बिषयनके, तुव पदकमल न मैं उर धारे ॥१॥
कौन कुकर्म किये नहिं मैंने, जो गये भूल सो लिये उधारे ।
ऐसी खेप भरी रचि पचिकै चकित भये लखिकै बनिजारे ॥२॥
अब तौ एक बार कहौ हँसिके, आजहिते तुम भये हमारे ।
वाहि कृपाते नारायनकी बेगि लगैगी नाव किनारे ॥३॥